मैं कहता हूँ
बूढ़े बरगद पे साया है कोई.
लेकिन जुदा हैं उसके ख्याल.
हमारे ख्याल,
जैसे एक ग़ज़ल के दो मिसरे
जुड़े हों ग़ज़ल से
पर कहते हों अलग-अलग सी बात.
अहसास होता है
वो भी बालिग हुआ है,
समझने लगा है कि साये नहीं होते.
बड़े भाई होने की धौंस अब नहीं चलेगी. :-)