Monday, December 26, 2016

भाषा और पर्यावरण / अनुपम मिश्र

किसी समाज का पर्यावरण पहले बिगड़ना शुरू होता है या उसकी भाषाहम इसे समझ कर संभल सकने के दौर से तो अभी आगे बढ़ गए हैं. हम विकसित हो गए हैं.

भाषा यानी केवल जीभ नहीं. भाषा यानी मन और माथा भी. एक का नहींएक बड़े समुदाय का मन और माथाजो अपने आसपास के और दूर के भी संसार को देखनेपरखनेबरतने का संस्कार अपने में सहज संजो लेता है. ये संस्कार बहुत कुछ उस समाज के मिट्टी,पानीहवा में अंकुरित होते हैंपलतेबढ़ते हैं और यदि उन में से कुछ मुरझाते भी हैं तो उनकी सूखी पत्तियां वहीं गिरती हैंउसी मिट्टी में खाद बनाती हैं. इस खाद यानी असफलता की ठोकरों के अनुभव से भी समाज नया कुछ सीखता है.

लेकिन कभीकभी समाज के कुछ लोगों का माथा थोड़ा बदलने लगता है. यह माथा फिर अपनी भाषा भी बदलता है. यह सब इतने चुपचाप होता है कि समाज के सजग माने गए लोगों के भी कान खड़े नहीं हो पाते. इसका विश्लेषणइसकी आलोचना तो दूरइसे कोई क्लर्क या मुंशी की तरह भी दर्ज नहीं कर पाता.

इस बदले हुए माथे के कारण हिंदी भाषा में ५०६० बरस में नए शब्दों की एक पूरी बारात आई है. बरातिये एक से एक हैं पर पहले तो दूल्हे राजा को ही देखें. दूल्हा है विकास नामक शब्द. ठीक इतिहास तो नहीं मालूम है कि यह शब्द हिंदी में कब पहली बार आज के अर्थ में शामिल हुआ होगा. पर जितना अनर्थ इस शब्द ने पर्यावरण के साथ किया हैउतना शायद ही किसी और शब्द ने पर्यावरण के साथ किया हो.

विकास शब्द ने माथा बदला और फिर उसने समाज के अनगिनत अंगो की थिरकन को थामा. अंग्रेजों के आने से ठीक पहले तक समाज के जिन अंगों के बाकायदा राज थेवे लोग इस भिन्न विकास की अवधारणा के कारण आदिवासी कहलाने लगे. नए माथे ने देश के विकास का जो नया नक्शा बनायाउसमें ऐसे ज्यादतर इलाके पिछड़े शब्द के रंग से ऐसे रंगे गएजो कई पंचवर्षिय योजनाओं के झाड़ूपोंछे से भी हल्के नहीं पड़ पा रहे. अब यह हम भूल भी चुके हैं कि ऐसे ही पिछड़े इलाकों की संपन्नता सेवनों सेखनिजोंलौहअयस्क से देश के अगुआ मान लिए गए हिस्से कुछ टिके से दिखते हैं.

कुछ मुट्ठी भर लोग पूरे देश की देह काउसके हर अंग का विकास करने में जुट गए हैं. ग्राम विकास तो ठीकबाल विकासमहिला विकास सब कुछ लाईन में है.

अपने कोअपने समाज को समझे बिना उसके विकास की इस विचित्र उतावली में गजब की सर्वसम्मति है. सभी राजनैतिक दलसभी सरकारें फिर चाहे वे मिशन वाली हो या वर्ग संघर्ष वालीगर्व से विकास के काम में लगी हैं. विकास की इस नई अमीर भाषा ने एक नई रेखा भी खींची है – गरीबी की रेखा. लेकिन इस रेखा को खींचने वाले संम्पन्न लोगों की गरीबी तो देखिए कि उनकी तमाम कोशिशें रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या में कमी लाने के बदले उसे लगातार बढ़ाती जा रही हैं.

पर्यावरण की भाषा इस सामाजिकराजनीतिक भाषा से रत्तीभर अलग नहीं है. वह हिंदी भी है यह कहते हुए डर लगता है. बहुत हुआ तो आज के पर्यावरण की ज्यादातर भाषा देवनागरी कही जा सकती है. लिपि के कारण राजधानी में पर्यावरण मंत्रालय से लेकर हिंदी राज्यों के कस्बोंगांवों तक के लिए बनी पर्यावरण संस्थाओं की भाषा कभी पढ़ कर तो देखें. ऐसा पूरा साहित्यलेखनरिपोर्ट सबकुछ एक अटपटी हिंदी से पटा पड़ा है.

कचरा शब्दों का और उन से बनी विचित्र योजनाओं का ढेर लगा है. इस ढेर को पुनर्चक्रित भी नहीं किया जा सकता. दोचार नमूने देखें. सन् १९८० से आठदस बरस तक पूरे देश में सामाजिक वानिकी नामक योजना चली. किसी ने भी नहीं पूछा कि पहले यह तो बता दो कि असामाजिक वानिकी क्या हैयदि इस शब्द कायोजना का संबंध समाज के वन से है,गांव के वन से हैतो हर राज्य के गांवों में ऐसे विशिष्ट ग्रामवनपंचायती वनों के लिए एक भरा पूरा शब्द भंडारविचार और व्यवहार का संगठन काफी समय तक रहा है.

कहीं उस पर थोड़ी धूल चढ़ गई थी तो कहीं वह मुरझा गया थापर वह मरा तो नहीं था. उस दौर में कोई संस्था आगे नहीं आई इन बातों को लेकर. मरु प्रदेश में आज भी मौजूद हैं ओरणएक शब्द जो अरण्य‘ से बना है. ये गांवों के वनमंदिरदेवी के नाम पर छोड़े जाते हैं. कहीं कहीं तो मीलों फैले हैं ऐसे जंगल. इनके विस्तार कीसंख्या की कोई व्यवस्थित जानकारी नहीं है. वन विभाग कल्पना भी नहीं कर सकता कि लोग ओरणों से एक तिनका भी नहीं उठाते.

अकाल के समय में ही इनको खोला जाता है. वैसे ये खुले ही रहते हैंन कटीले तारों का घेरा हैन दीवारबंदी ही. श्रद्धाविश्वास का घेरा इन वनों की रखवाली करता रहा है. हजारबारह सौ बरस पुराने ओरण भी यहां मिल जाएंगे. जिसे कहते हैं बच्चेबच्चे की जबान पर ओरण शब्द रहा है. पर राजस्थान में अभी कुछ ही बरस पहले तक सामाजिक संस्थाएं ही नहींश्रेष्ठ वन विशेषज्ञ भी या तो इस परंपरा से अपरिचित थे या अगर जानते थे तो कुछ कुतुहल भरेशोध वाले अंदाज में. ममत्व नहीं थायह हमारी परंपरा है ऐसा भाव नहीं था उस जानकारी में.

ऐसी हिंदी की सूची लंबी हैशर्मनाक है. एक योजना देश की बंजर भूमि के विकास की आई थी. उसकी सारी भाषा बंजर ही थी. सरकार ने कोई ३०० करोड़ रुपया लगाया होगा पर यह भूमि बंजर की बंजर ही रही. फिर योजना ही समेट ली गई. और अब सबसे ताजी योजना है जलागम क्षेत्र विकास की. यह अंग्रेजी के वॉटरशेड डेवलपमेंट का हिन्दी अनुवाद है. इससे जिनको लाभ मिलेगावे लाभार्थि कहलाते हैंकहीं हितग्राही भी हैं.

यूजर्स ग्रुप‘ का सीधा अनुवाद उपयोगकर्ता समूह भी यहां है. तो एक तरफ साधन संम्पन्न योजनाएं हैंलेकिन समाज से कटी हुई. जन भागीदारी का दावा करती हैं पर जन इससे भागते नजर आते हैंतो दूसरी तरफ मिट्टी और पानी के खेल को कुछ हजार बरस से समझने वाला समाज है. उसने इस खेल में शामिल होने के लिए कुछ आनंददायी नियम,परंपराएं और संस्थाएं बनाई थीं. किसी अपरिचित शब्दावली के बदले एक बिल्कुल आत्मीय ढांचा खड़ा किया था. चेरापूंजीजहां पानी कुछ गज भर गिरता हैवहां से लेकर जैसलमेर तक जहां कुल पांचआठ इंच वर्षा हो जाए तो भी आनंद बरस गया– ऐसा वातावरण बनाया.

हिमपात से लेकर रेतीली आंधी में पानी का कामतालाब में काम करने वाले गजधरों का कितना बड़ा संगठन खड़ा किया गया होगा. कोई चारपाँच लाख गांवों में काम करने वाले उस संगठन का आकार इतना बड़ा था कि वह सचमुच निराकार हो गया. आज पानी का,पर्यावरण का काम करने वाली बड़ी से बड़ी संस्थाएं उस संगठन की कल्पना तो करके देखें. लेकिन वॉटरशेडजलागम क्षेत्र विकास का काम कर रही संस्थाएंसरकारेंउस निराकार संगठन को देख ही नहीं पातीं. उस संगठन के लिए तालाब एक वॉटर बॉडी नहीं था. वह उसकी रतन तलाई थी. झुमरी तलैया थीजिसकी लहरों में वह अपने पुरखों की छवि देखता था. लेकिन आज की भाषा जलागम क्षेत्र को मत्स्य पालन से होने वाली आमदनी में बदलती है.

इसी तरह अब नदियां यदि घर में बिजली का बल्ब न जला पाएं तो माना जाता है कि वेव्यर्थ में पानी समुद्र में बहा रही हैं. बिजली जरूर बनेपर समुद्र में पानी बहाना भी नदी का एक बड़ा काम है. इसे हमारी नई भाषा भूल रही है. जब समुद्रतटीय क्षेत्रों में भूजल बड़े पैमाने पर खारा होने लगेगा तब हमें नदी की इस भूमिका का पता चलेगा.


लेकिन आज तो हमारी भाषा ही खारी हो चली है. जिन सरलसजल शब्दों की धाराओं से वह मीठी बनती थी उन धाराओं को बिल्कुल नीरसबनावटीपर्यावरणीयपरिस्थितिक जैसे शब्दों से बाँधा जा रहा है. अपनी भाषाअपने ही आंगन में विस्थापित हो रही है. वह अपने ही आंगन में पराई बन रही है.