Sunday, June 20, 2010

Happy Father's Day.......:))

मैं और मेरे पिता  


पिता की आँखें,
वो दीर्घ में देखती आँखें.
आँखों में पलता सपना-
की पाऊं में सफलता.
उन्होंने जो किया संघर्ष,
वो न करना पड़े मुझे!
लड़ना न पड़े मुझे.

मैं-नालायक
संघर्ष नीयति मान करता हूँ.
अपना सपना पाल
खुद के लिए लड़ता हूँ.

अब,
हमारे सपने टकरा गये.
उनका सपना दीर्घ, मेरा सपना शुन्य,
उनकी नज़र में यह बूँद!!
मैं जीते या वो, नहीं पता.
पर मैं सफलता पा गया,
पा के इठला गया.

मैं सोचता हूँ,
वो देखते-मैं कितना खुश हूँ,
अपना सपना साकार कर,
पा सफलता अपने आधार पर.

वो सोचते हैं,
काश! बेटा देखे,
वो खुश हैं, उसकी लगन से,
उसने पाया, जो चाहा मन से.

लेकिन,
मैं दुखी हूँ, उनका सपना न साकार कर,
वो दुखी हैं, सपने थोपने के आधार पर.

हम,
खुश हैं,भीतर से,
दुखी, बाहर से.

मैं, पिता और ये अटूट बंधन,
हँसता, इठलाता ये जीवन.

Tuesday, June 8, 2010

क्यों.... क्यों गये हो इतने दूर?

कानों में,
आज भी गूंजती है
तुम्हारी आवाज़.
फेफड़ों को छलनी कर जाती है,
हवा संग बह
तुम्हारी खुशबू.

इतनी दूर क्यों गये मुझसे,
कि जेहन में भी
धुंधला गये हो तुम.

आज भी,
सांझ ढले लगता है
जैसे तुम,
जला जाओगे बत्तियां.
कर जाओगे रोशन
हमारा घर,
सपनों का घर.

आज,
हर सपना, हर महल
खंडहर सा लगता है,
तुम्हारे बिना.
खुद में जकड़ा सा,
दर्द में बुझा-बुझा 
महसूस करता हूँ.
मैं नहीं करता रोशन
अपना घर,
इतनी हिम्मत ही नही होती मेरी.

तन्हाई में
रोता हूँ मैं,
चंद नवेली साँसों के लिए.
तब लगता है
वैसे ही,
पीछे से आ
तुम थाम लोगे मेरे कंधे.
फिर हाथों में हाथ ले 
दिखा दोगे मुझे राह,
बना दोगे सड़कें,
या खुद ही बन जाओगे मंजिल.

क्यों....
क्यों गये हो इतने दूर?
कि पथरा गईं हैं मेरी आँखें,
तुम्हारी बाट जोहते-जोहते.

वो सड़क,
जहाँ हर सुबह 
हम उन्मुक्त घुमा करते थे,
वर्षों से वैसे पड़ी है.
अब तो पत्तों ने भी,
झड़-झड़ कर
उसपर मोटी परत बना ली है.
कूड़े का,
लम्बा ढेर लगती है दूर से.

क्यों,
क्यों चले गये इतने दूर?
कि वापसी की
हर राह तुम्हें बिसर गई?

तुम्हें लौटता ना देख,
भूलना चाहता हूँ मैं.
पर उन्मुक्त आस बन,
फिर-फिर आ जाते हो,
मेरे पास.
इतने दूर गये हो तुम,
कि शायद ना आ सको लौटकर.
फिर भी मेरा दिल
यह मानने तैयार नहीं.

तुम जिंदा रहोगे,
हमेशा मेरे मन में,
जेहन में.