एक ताजा साक्षात्कार में सीरियाई कवि अडोनीज से जब पश्चिम एशिया में इस्लामिक कट्टरवाद और सीरिया के खुद के हिंसक टकरावों के बारे में पूछा गया, तो उनका जवाब था, 'कोई बदलाव तब तक नहीं हो सकता, जब तक धर्म और राज्य को अलग-अलग नहीं रखा जाता। यदि हम यह भेद नहीं कर सके कि धर्म क्या है और राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक सरोकार व दायित्व क्या हैं, तो यकीन मानिए कि अरब देशों का पतन निश्चित है।'
भारत में भी संघ परिवार... उनकी बड़ी पुरानी तमन्ना भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की है, जिसकी नीतियां संत और शंकराचार्यों की उस सोच से तय हों, जो उनकी नजर में 'हिंदुत्व' हैं। संविधान इसकी इजाजत नहीं देता, लेकिन इस सांविधानिक बाध्यता के बावजूद सच यही है कि भाजपा जब-जब सत्ता में रही है, संघ ने सार्वजनिक जीवन की तमाम नीतियों को हिंदुत्व के सांचे में ढालने की बारहा कोशिश की है।
पहली नजर में अडोनीज अरब दुनिया के मुसलमानों को संबोधित करते और उस सच की ओर इशारा करते दिखते हैं, जिस तरह वहां 'इस्लामिक दर्शन' के नाम पर धर्म और राजनीति का घालमेल हुआ और सामाजिक संरचना के साथ छेड़छाड़ हुई, लेकिन क्या अडोनीज की बातें सिद्धांत रूप में उस भारतीय हिंदू पर भी लागू नहीं होती हैं, जो संघ के निशाने पर है। कश्मीरी हिंदुओं के मामले में तो यह ज्यादा ही बड़ा सच है। अपने कल के आलेख में मैंने कहा था कि घाटी में कश्मीरियों के प्रति दशकों से हो रहे अत्याचार के लिए भारत सरकार को माफी मांगनी चाहिए, लेकिन यह भी सच है कि कुछ कश्मीरियों को भी अपने कुछ कृत्यों के लिए माफी मांगनी होगी, कम से कम उन कृत्यों के लिए, जिनके कारण वहां से उन हिंदुओं को पलायन करना पड़ा जिनका कार्य-व्यवहार, खान-पान, रहन-सहन, सब उन्हीं के जैसा था।
कश्मीरी पंडितों के पलायन के इस दर्द को सोनिया जब्बर जैसी पत्रकारों और राहुल पंडिता, सिद्धार्थ गिगू-वरद शर्मा ने अपनी किताबों में बखूबी बयां किया है। इस बात के पर्याप्त और ठोस सबूत हैं कि घाटी में इस्लाम के नाम पर खूब-खूब अत्याचार हुए, लेकिन यह भी सच है कि कश्मीर में रह रहे तमाम लोग उस दंश को भुलाना चाहते हैं। यह भी भुलाना चाहते हैं कि कभी तत्कालीन गवर्नर जगमोहन भी कथित रूप से पंडितों के पलायन के लिए जिम्मेदार बने थे।
एक धड़ा ऐसा भी है, जो कश्मीरी पंडितों को आईबी और रॉ जैसी संस्थाओं का एजेंट कहने से बाज नहीं आता और मानता है कि उनके साथ वही हुआ, जो होना चाहिए था। इन कश्मीरी बुद्धिजीवियों की दो तरह की राय है। या कहें कि ये इसे दो तरह से खारिज करते हैं। ये उस सच से इनकार करते हैं कि कश्मीरी पंडित क्यों और कैसे पलायन को मजबूर हुए? दूसरे, कश्मीर में 'आजादी' की मांग का स्वरूप बदलता रहा है। कभी भले इसका स्वरूप सेकुलर रहा हो, लेकिन बाद में यह कट्टर धार्मिक होता गया। धीरे-धीरे यह कश्मीर और कश्मीरियत की नहीं, बल्कि इस्लाम की बात हो गई।
हाल के दिनों में भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा चलाई गई पैलेट गन से कुछ युवकों और युवतियों के अंधे हो जाने की घटनाएं शर्मनाक तस्वीर दिखाती हैं। ऐसे घाव समस्त भारतीयों के लिए शर्मनाक हैं। लेकिन एक और भी तस्वीर है, जो दक्षिण के एक अखबार ने दिखाई। इस तस्वीर में कुछ बिल्कुल नए, युवा और संभावनाशील चेहरे (कुछ तो 12 वर्ष से भी छोटी उम्र के हैं) प्रदर्शन करते दिखाई दे रहे हैं। इनके हाथों में एक दाढ़ी वाले, टोपी लगाए और अपेक्षाकृत ज्यादा उम्र के उस व्यक्ति की फोटो है, जो पिछले कुछ समय से कश्मीर में भारत विरोधी स्वर को मुखर करने का काम करता रहा है। यह तस्वीर सैयद अली शाह गिलानी की है।
यहां, मेरे लिए आश्चर्य या चिंता का मुद्दा यह है कि इन युवकों और इनके घर वालों को क्या धर्म-राज्य-समाज पर गिलानी की सोच का पता है? यहां मैं गिलानी द्वारा अक्तूबर 2010 में योगिंदर सिकंद को दिए गए उस साक्षात्कार की चर्चा करना जरूरी समझता हूं, जिसमें गिलानी कहते हैं कि, 'मुसलमानों को जीवन के हर क्षेत्र, हर काम में इस्लाम का पालन करना चाहिए। उन्हें सिर्फ इबादत में नहीं, बल्कि युद्ध और शांति, व्यापार, अंतरराष्ट्रीय संबंध जैसे हर मामले में इस्लाम के निर्देशों का पालन करना चाहिए, क्योंकि इस्लाम संपूर्ण जीवन दर्शन का नाम है।' गिलानी आगे कहते हैं,'यदि कोई सच्चा मुसलमान किसी 'संघर्ष' में शामिल होता है, तो यह इस्लाम की खातिर होगा।
ऐसे में, आप यह कैसे कह सकते हैं कि कश्मीर का संघर्ष धर्म से अलग है?' गिलानी की नजर में हिंदू और मुस्लिम, दो पूरी तरह अलग राष्ट्र-राज्य हैं। गिलानी आगे कहते हैं कि हिंदू बहुल भारत में मुसलमानों के लिए जगह नहीं है। उनका मानना है कि 'इस्लामिक नीतियों के अभाव में मुसलमानों के लिए आसान नहीं है कि वे भारत में खुलकर सांस ले सकें।'
इस साक्षात्कार के अलावा सिकंद ने अपने एक आलेख 'जेहाद, इस्लाम ऐंड कश्मीर: सैयद अली शाह गिलानीज पॉलिटिकल प्रोजेक्ट' में गिलानी की कुछ चिट्ठियों की चर्चा की है। इनमें से एक चिट्ठी 1994 में गिलानी ने तब के मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला को लिखी थी। इसमें धर्म, संस्कृति, सभ्यता, रीतियों-नीतियों और विचार के आधार पर मुसलमानों के लिए बिल्कुल स्वतंत्र राज्य की बात की थी। कहा था कि उनकी राष्ट्रीयता उनके गृहनगर या राज्य, नस्ल, भाषा, रंग के आधार पर नहीं, बल्कि इस्लाम और सिर्फ इस्लाम के लिए, ईश्वर नहीं, सिर्फ अल्लाह के प्रति उनकी एकता के आधार पर होनी चाहिए। दूसरे पत्र में गिलानी ने 1993 में तब और आज के भी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को लिखा था। इस चिट्ठी में पाकिस्तान को सभी कश्मीरियों के सपनों का स्वर्ग बताया गया था। सिकंद साफ तौर पर मानते हैं कि गिलानी कश्मीर के गैर-मुसलमानों की भावनाओं के पूरी तरह खिलाफ हैं और इस बात के पर्याप्त कारण हैं कि ऐसे लोग खुद को 'गिलानी की कल्पना के पाकिस्तान में शामिल कश्मीर' के माहौल में असुरक्षित और हाशिये पर फेंका गया महसूस करें, जिसकी वकालत गिलानी जैसे लोग करते हैं।
कहना न होगा कि सैयद अली शाह गिलानी के सुर और स्वर अब भी वैसे ही हैं, जैसे कि साल 2010 में थे। हालांकि यदि इसे 'गिलानी असर' कहा जाए, तो यह असर अपेक्षाकृत कम कट्टर मीरवाइज उमर फारूक और गांधी से प्रभावित होने की बात करने वाले यासीन मलिक जैसे लोगों पर भी पड़ा है, जो किसी स्तर पर गिलानी के सुर में सुर मिलाते दिखाई दिए। यानी इसने कश्मीरी अलगाववाद के रंग को थोड़ा और गहरा किया।
ऐसे में, यही सच लगता है कि अडोनीज यदि कश्मीर के ताजा अतीत पर नजर डालेंगे, तो निश्चित तौर पर उनके पास कुछ ज्यादा ही कठोर शब्द होंगे, लेकिन मुझे यह भी लगता है कि वह आत्मनिर्णय की लड़ाई लड़ रहे लोगों को भी नहीं बख्शेंगे। वह ठीक उसी तरह कहते दिखाई देंगे, जिस तरह उन्होंने सीरिया के बारे में कहा था कि, राजनीतिक और सामाजिक मामलों में यदि धर्म व्यक्तिगत इच्छाओं और खुद को खुश रखने का जरिया है, तो यह सच है कि 'धर्म किसी समस्या का जवाब या समाधान नहीं, बल्कि यह समस्या पैदा करने वाला है।'
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
भारत में भी संघ परिवार... उनकी बड़ी पुरानी तमन्ना भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की है, जिसकी नीतियां संत और शंकराचार्यों की उस सोच से तय हों, जो उनकी नजर में 'हिंदुत्व' हैं। संविधान इसकी इजाजत नहीं देता, लेकिन इस सांविधानिक बाध्यता के बावजूद सच यही है कि भाजपा जब-जब सत्ता में रही है, संघ ने सार्वजनिक जीवन की तमाम नीतियों को हिंदुत्व के सांचे में ढालने की बारहा कोशिश की है।
पहली नजर में अडोनीज अरब दुनिया के मुसलमानों को संबोधित करते और उस सच की ओर इशारा करते दिखते हैं, जिस तरह वहां 'इस्लामिक दर्शन' के नाम पर धर्म और राजनीति का घालमेल हुआ और सामाजिक संरचना के साथ छेड़छाड़ हुई, लेकिन क्या अडोनीज की बातें सिद्धांत रूप में उस भारतीय हिंदू पर भी लागू नहीं होती हैं, जो संघ के निशाने पर है। कश्मीरी हिंदुओं के मामले में तो यह ज्यादा ही बड़ा सच है। अपने कल के आलेख में मैंने कहा था कि घाटी में कश्मीरियों के प्रति दशकों से हो रहे अत्याचार के लिए भारत सरकार को माफी मांगनी चाहिए, लेकिन यह भी सच है कि कुछ कश्मीरियों को भी अपने कुछ कृत्यों के लिए माफी मांगनी होगी, कम से कम उन कृत्यों के लिए, जिनके कारण वहां से उन हिंदुओं को पलायन करना पड़ा जिनका कार्य-व्यवहार, खान-पान, रहन-सहन, सब उन्हीं के जैसा था।
कश्मीरी पंडितों के पलायन के इस दर्द को सोनिया जब्बर जैसी पत्रकारों और राहुल पंडिता, सिद्धार्थ गिगू-वरद शर्मा ने अपनी किताबों में बखूबी बयां किया है। इस बात के पर्याप्त और ठोस सबूत हैं कि घाटी में इस्लाम के नाम पर खूब-खूब अत्याचार हुए, लेकिन यह भी सच है कि कश्मीर में रह रहे तमाम लोग उस दंश को भुलाना चाहते हैं। यह भी भुलाना चाहते हैं कि कभी तत्कालीन गवर्नर जगमोहन भी कथित रूप से पंडितों के पलायन के लिए जिम्मेदार बने थे।
एक धड़ा ऐसा भी है, जो कश्मीरी पंडितों को आईबी और रॉ जैसी संस्थाओं का एजेंट कहने से बाज नहीं आता और मानता है कि उनके साथ वही हुआ, जो होना चाहिए था। इन कश्मीरी बुद्धिजीवियों की दो तरह की राय है। या कहें कि ये इसे दो तरह से खारिज करते हैं। ये उस सच से इनकार करते हैं कि कश्मीरी पंडित क्यों और कैसे पलायन को मजबूर हुए? दूसरे, कश्मीर में 'आजादी' की मांग का स्वरूप बदलता रहा है। कभी भले इसका स्वरूप सेकुलर रहा हो, लेकिन बाद में यह कट्टर धार्मिक होता गया। धीरे-धीरे यह कश्मीर और कश्मीरियत की नहीं, बल्कि इस्लाम की बात हो गई।
हाल के दिनों में भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा चलाई गई पैलेट गन से कुछ युवकों और युवतियों के अंधे हो जाने की घटनाएं शर्मनाक तस्वीर दिखाती हैं। ऐसे घाव समस्त भारतीयों के लिए शर्मनाक हैं। लेकिन एक और भी तस्वीर है, जो दक्षिण के एक अखबार ने दिखाई। इस तस्वीर में कुछ बिल्कुल नए, युवा और संभावनाशील चेहरे (कुछ तो 12 वर्ष से भी छोटी उम्र के हैं) प्रदर्शन करते दिखाई दे रहे हैं। इनके हाथों में एक दाढ़ी वाले, टोपी लगाए और अपेक्षाकृत ज्यादा उम्र के उस व्यक्ति की फोटो है, जो पिछले कुछ समय से कश्मीर में भारत विरोधी स्वर को मुखर करने का काम करता रहा है। यह तस्वीर सैयद अली शाह गिलानी की है।
यहां, मेरे लिए आश्चर्य या चिंता का मुद्दा यह है कि इन युवकों और इनके घर वालों को क्या धर्म-राज्य-समाज पर गिलानी की सोच का पता है? यहां मैं गिलानी द्वारा अक्तूबर 2010 में योगिंदर सिकंद को दिए गए उस साक्षात्कार की चर्चा करना जरूरी समझता हूं, जिसमें गिलानी कहते हैं कि, 'मुसलमानों को जीवन के हर क्षेत्र, हर काम में इस्लाम का पालन करना चाहिए। उन्हें सिर्फ इबादत में नहीं, बल्कि युद्ध और शांति, व्यापार, अंतरराष्ट्रीय संबंध जैसे हर मामले में इस्लाम के निर्देशों का पालन करना चाहिए, क्योंकि इस्लाम संपूर्ण जीवन दर्शन का नाम है।' गिलानी आगे कहते हैं,'यदि कोई सच्चा मुसलमान किसी 'संघर्ष' में शामिल होता है, तो यह इस्लाम की खातिर होगा।
ऐसे में, आप यह कैसे कह सकते हैं कि कश्मीर का संघर्ष धर्म से अलग है?' गिलानी की नजर में हिंदू और मुस्लिम, दो पूरी तरह अलग राष्ट्र-राज्य हैं। गिलानी आगे कहते हैं कि हिंदू बहुल भारत में मुसलमानों के लिए जगह नहीं है। उनका मानना है कि 'इस्लामिक नीतियों के अभाव में मुसलमानों के लिए आसान नहीं है कि वे भारत में खुलकर सांस ले सकें।'
इस साक्षात्कार के अलावा सिकंद ने अपने एक आलेख 'जेहाद, इस्लाम ऐंड कश्मीर: सैयद अली शाह गिलानीज पॉलिटिकल प्रोजेक्ट' में गिलानी की कुछ चिट्ठियों की चर्चा की है। इनमें से एक चिट्ठी 1994 में गिलानी ने तब के मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला को लिखी थी। इसमें धर्म, संस्कृति, सभ्यता, रीतियों-नीतियों और विचार के आधार पर मुसलमानों के लिए बिल्कुल स्वतंत्र राज्य की बात की थी। कहा था कि उनकी राष्ट्रीयता उनके गृहनगर या राज्य, नस्ल, भाषा, रंग के आधार पर नहीं, बल्कि इस्लाम और सिर्फ इस्लाम के लिए, ईश्वर नहीं, सिर्फ अल्लाह के प्रति उनकी एकता के आधार पर होनी चाहिए। दूसरे पत्र में गिलानी ने 1993 में तब और आज के भी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को लिखा था। इस चिट्ठी में पाकिस्तान को सभी कश्मीरियों के सपनों का स्वर्ग बताया गया था। सिकंद साफ तौर पर मानते हैं कि गिलानी कश्मीर के गैर-मुसलमानों की भावनाओं के पूरी तरह खिलाफ हैं और इस बात के पर्याप्त कारण हैं कि ऐसे लोग खुद को 'गिलानी की कल्पना के पाकिस्तान में शामिल कश्मीर' के माहौल में असुरक्षित और हाशिये पर फेंका गया महसूस करें, जिसकी वकालत गिलानी जैसे लोग करते हैं।
कहना न होगा कि सैयद अली शाह गिलानी के सुर और स्वर अब भी वैसे ही हैं, जैसे कि साल 2010 में थे। हालांकि यदि इसे 'गिलानी असर' कहा जाए, तो यह असर अपेक्षाकृत कम कट्टर मीरवाइज उमर फारूक और गांधी से प्रभावित होने की बात करने वाले यासीन मलिक जैसे लोगों पर भी पड़ा है, जो किसी स्तर पर गिलानी के सुर में सुर मिलाते दिखाई दिए। यानी इसने कश्मीरी अलगाववाद के रंग को थोड़ा और गहरा किया।
ऐसे में, यही सच लगता है कि अडोनीज यदि कश्मीर के ताजा अतीत पर नजर डालेंगे, तो निश्चित तौर पर उनके पास कुछ ज्यादा ही कठोर शब्द होंगे, लेकिन मुझे यह भी लगता है कि वह आत्मनिर्णय की लड़ाई लड़ रहे लोगों को भी नहीं बख्शेंगे। वह ठीक उसी तरह कहते दिखाई देंगे, जिस तरह उन्होंने सीरिया के बारे में कहा था कि, राजनीतिक और सामाजिक मामलों में यदि धर्म व्यक्तिगत इच्छाओं और खुद को खुश रखने का जरिया है, तो यह सच है कि 'धर्म किसी समस्या का जवाब या समाधान नहीं, बल्कि यह समस्या पैदा करने वाला है।'
(ये लेखक के अपने विचार हैं)