Saturday, October 1, 2016

घाव जो अलगाववादियों ने दिए | रामचंद्र गुहा


एक ताजा साक्षात्कार में सीरियाई कवि अडोनीज से जब पश्चिम एशिया में इस्लामिक कट्टरवाद और सीरिया के खुद के हिंसक टकरावों के बारे में पूछा गया, तो उनका जवाब था, 'कोई बदलाव तब तक नहीं हो सकता, जब तक धर्म और राज्य को अलग-अलग नहीं रखा जाता। यदि हम यह भेद नहीं कर सके कि धर्म क्या है और राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक सरोकार व दायित्व क्या हैं, तो यकीन मानिए कि अरब देशों का पतन निश्चित है।'
भारत में भी संघ परिवार... उनकी बड़ी पुरानी तमन्ना भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की है, जिसकी नीतियां संत और शंकराचार्यों की उस सोच से तय हों, जो उनकी नजर में 'हिंदुत्व' हैं। संविधान इसकी इजाजत नहीं देता, लेकिन इस सांविधानिक बाध्यता के बावजूद सच यही है कि भाजपा जब-जब सत्ता में रही है, संघ ने सार्वजनिक जीवन की तमाम नीतियों को हिंदुत्व के सांचे में ढालने की बारहा कोशिश की है।
पहली नजर में अडोनीज अरब दुनिया के मुसलमानों को संबोधित करते और उस सच की ओर इशारा करते दिखते हैं, जिस तरह वहां 'इस्लामिक दर्शन' के नाम पर धर्म और राजनीति का घालमेल हुआ और सामाजिक संरचना के साथ छेड़छाड़ हुई, लेकिन क्या अडोनीज की बातें सिद्धांत रूप में उस भारतीय हिंदू पर भी लागू नहीं होती हैं, जो संघ के निशाने पर है। कश्मीरी हिंदुओं के मामले में तो यह ज्यादा ही बड़ा सच है। अपने कल के आलेख में मैंने कहा था कि घाटी में कश्मीरियों के प्रति दशकों से हो रहे अत्याचार के लिए भारत सरकार को माफी मांगनी चाहिए, लेकिन यह भी सच है कि कुछ कश्मीरियों को भी अपने कुछ कृत्यों के लिए माफी मांगनी होगी, कम से कम उन कृत्यों के लिए, जिनके कारण वहां से उन हिंदुओं को पलायन करना पड़ा जिनका कार्य-व्यवहार, खान-पान, रहन-सहन, सब उन्हीं के जैसा था।
कश्मीरी पंडितों के पलायन के इस दर्द को सोनिया जब्बर जैसी पत्रकारों और राहुल पंडिता, सिद्धार्थ गिगू-वरद शर्मा ने अपनी किताबों में बखूबी बयां किया है। इस बात के पर्याप्त और ठोस सबूत हैं कि घाटी में इस्लाम के नाम पर खूब-खूब अत्याचार हुए, लेकिन यह भी सच है कि कश्मीर में रह रहे तमाम लोग उस दंश को भुलाना चाहते हैं। यह भी भुलाना चाहते हैं कि कभी तत्कालीन गवर्नर जगमोहन भी कथित रूप से पंडितों के पलायन के लिए जिम्मेदार बने थे।
एक धड़ा ऐसा भी है, जो कश्मीरी पंडितों को आईबी और रॉ जैसी संस्थाओं का एजेंट कहने से बाज नहीं आता और मानता है कि उनके साथ वही हुआ, जो होना चाहिए था। इन कश्मीरी बुद्धिजीवियों की दो तरह की राय है। या कहें कि ये इसे दो तरह से खारिज करते हैं। ये उस सच से इनकार करते हैं कि कश्मीरी पंडित क्यों और कैसे पलायन को मजबूर हुए? दूसरे, कश्मीर में 'आजादी' की मांग का स्वरूप बदलता रहा है। कभी भले इसका स्वरूप सेकुलर रहा हो, लेकिन बाद में यह कट्टर धार्मिक होता गया। धीरे-धीरे यह कश्मीर और कश्मीरियत की नहीं, बल्कि इस्लाम की बात हो गई।
हाल के दिनों में भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा चलाई गई पैलेट गन से कुछ युवकों और युवतियों के अंधे हो जाने की घटनाएं शर्मनाक तस्वीर दिखाती हैं। ऐसे घाव समस्त भारतीयों के लिए शर्मनाक हैं। लेकिन एक और भी तस्वीर है, जो दक्षिण के एक अखबार ने दिखाई। इस तस्वीर में कुछ बिल्कुल नए, युवा और संभावनाशील चेहरे (कुछ तो 12 वर्ष से भी छोटी उम्र के हैं) प्रदर्शन करते दिखाई दे रहे हैं। इनके हाथों में एक दाढ़ी वाले, टोपी लगाए और अपेक्षाकृत ज्यादा उम्र के उस व्यक्ति की फोटो है, जो पिछले कुछ समय से कश्मीर में भारत विरोधी स्वर को मुखर करने का काम करता रहा है। यह तस्वीर सैयद अली शाह गिलानी की है।
यहां, मेरे लिए आश्चर्य या चिंता का मुद्दा यह है कि इन युवकों और इनके घर वालों को क्या धर्म-राज्य-समाज पर गिलानी की सोच का पता है? यहां मैं गिलानी द्वारा अक्तूबर 2010 में योगिंदर सिकंद को दिए गए उस साक्षात्कार की चर्चा करना जरूरी समझता हूं, जिसमें गिलानी कहते हैं कि, 'मुसलमानों को जीवन के हर क्षेत्र, हर काम में इस्लाम का पालन करना चाहिए। उन्हें सिर्फ इबादत में नहीं, बल्कि युद्ध और शांति, व्यापार, अंतरराष्ट्रीय संबंध जैसे हर मामले में इस्लाम के निर्देशों का पालन करना चाहिए, क्योंकि इस्लाम संपूर्ण जीवन दर्शन का नाम है।' गिलानी आगे कहते हैं,'यदि कोई सच्चा मुसलमान किसी 'संघर्ष' में शामिल होता है, तो यह इस्लाम की खातिर होगा।
ऐसे में, आप यह कैसे कह सकते हैं कि कश्मीर का संघर्ष धर्म से अलग है?' गिलानी की नजर में हिंदू और मुस्लिम, दो पूरी तरह अलग राष्ट्र-राज्य हैं। गिलानी आगे कहते हैं कि हिंदू बहुल भारत में मुसलमानों के लिए जगह नहीं है। उनका मानना है कि 'इस्लामिक नीतियों के अभाव में मुसलमानों के लिए आसान नहीं है कि वे भारत में खुलकर सांस ले सकें।'
इस साक्षात्कार के अलावा सिकंद ने अपने एक आलेख 'जेहाद, इस्लाम ऐंड कश्मीर: सैयद अली शाह गिलानीज पॉलिटिकल प्रोजेक्ट' में गिलानी की कुछ चिट्ठियों की चर्चा की है। इनमें से एक चिट्ठी 1994 में गिलानी ने तब के मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला को लिखी थी। इसमें धर्म, संस्कृति, सभ्यता, रीतियों-नीतियों और विचार के आधार पर मुसलमानों के लिए बिल्कुल स्वतंत्र राज्य की बात की थी। कहा था कि उनकी राष्ट्रीयता उनके गृहनगर या राज्य, नस्ल, भाषा, रंग के आधार पर नहीं, बल्कि इस्लाम और सिर्फ इस्लाम के लिए, ईश्वर नहीं, सिर्फ अल्लाह के प्रति उनकी एकता के आधार पर होनी चाहिए। दूसरे पत्र में गिलानी ने 1993 में तब और आज के भी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को लिखा था। इस चिट्ठी में पाकिस्तान को सभी कश्मीरियों के सपनों का स्वर्ग बताया गया था। सिकंद साफ तौर पर मानते हैं कि गिलानी कश्मीर के गैर-मुसलमानों की भावनाओं के पूरी तरह खिलाफ हैं और इस बात के पर्याप्त कारण हैं कि ऐसे लोग खुद को 'गिलानी की कल्पना के पाकिस्तान में शामिल कश्मीर' के माहौल में असुरक्षित और हाशिये पर फेंका गया महसूस करें, जिसकी वकालत गिलानी जैसे लोग करते हैं।
कहना न होगा कि सैयद अली शाह गिलानी के सुर और स्वर अब भी वैसे ही हैं, जैसे कि साल 2010 में थे। हालांकि यदि इसे 'गिलानी असर' कहा जाए, तो यह असर अपेक्षाकृत कम कट्टर मीरवाइज उमर फारूक और गांधी से प्रभावित होने की बात करने वाले यासीन मलिक जैसे लोगों पर भी पड़ा है, जो किसी स्तर पर गिलानी के सुर में सुर मिलाते दिखाई दिए। यानी इसने कश्मीरी अलगाववाद के रंग को थोड़ा और गहरा किया।
ऐसे में, यही सच लगता है कि अडोनीज यदि कश्मीर के ताजा अतीत पर नजर डालेंगे, तो निश्चित तौर पर उनके पास कुछ ज्यादा ही कठोर शब्द होंगे, लेकिन मुझे यह भी लगता है कि वह आत्मनिर्णय की लड़ाई लड़ रहे लोगों को भी नहीं बख्शेंगे। वह ठीक उसी तरह कहते दिखाई देंगे, जिस तरह उन्होंने सीरिया के बारे में कहा था कि, राजनीतिक और सामाजिक मामलों में यदि धर्म व्यक्तिगत इच्छाओं और खुद को खुश रखने का जरिया है, तो यह सच है कि 'धर्म किसी समस्या का जवाब या समाधान नहीं, बल्कि यह समस्या पैदा करने वाला है।'
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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विदेशी निवेश के फर्जी रास्तों पर पहरा | भरत झुनझुनवाला

भारत ने मारीशस के साथ अस्सी के दशक में दोहरे टैक्स की संधि की थी। इस संधि का दुरुपयोग हो रहा था। शेयर बाजार में किये गये निवेश से दो प्रकार से लाभ हासिल होता है। कम्पनी द्वारा प्रति वर्ष शेयर पर डिविडेन्ट दिया जाता है। साथ-साथ शेयर की मूल्य वृद्धि से भी लाभ होता है। जैसे आपने किसी कम्पनी का शेयर 100 रुपये में खरीदा और दो साल के बाद इसे 150 रुपये में बेच दिया। आपको 50 रुपये का लाभ हुआ। इस लाभ को कैपिटल गेन्स कहा जाता है।
अस्सी के दशक में मारीशस के साथ हुए दोहरे टैक्स की संधि के अंतर्गत मारीशस से भारत में किये गये निवेश पर कैपिटल गेन्स टैक्स भारत में देय नहीं होता था। केवल मारीशस द्वारा कैपिटल गेन्स टैक्स वसूला जा सकता था। लेकिन मारीशस में कैपिटल गेन्स टैक्स की दर शून्य थी। इसलिये भारत में किया गया निवेश कैपिटल गेन्स टैक्स से मुक्त हो जाता था। भारत में इस टैक्स को वसूल नहीं किया जाता था, चूंकि इसे वसूल करने का अधिकार मारीशस के पास था। अतः दुनिया के तमाम निवेशक भारत में मारीशस के रास्ते निवेश करते थे। मसलन अमेरिकी निवेशक भारत में सीधे निवेश करे तो उसे भारत में कैपिटल गेन्स टैक्स देना होगा। वही निवेशक मारीशस में एक कम्पनी बनाये और इस कम्पनी के माध्यम से भारत में निवेश करे तो उस पर कैपिटल गेन्स नहीं देना पड़ता था।

तमाम भारतीयों ने भी इस रास्ते का दुरुपयोग किया। जैसे आपको अपनी कम्पनी में एक करोड़ रुपये का निवेश करना है। आप सीधे निवेश करेंगे तो आपको इस पर कैपिटल गेन्स टैक्स देना होगा। इसलिये आपने इस रकम को हवाला के माध्यम से मारीशस भेज दिया। मारीशस में एक कम्पनी बनाई। इस कम्पनी द्वारा अपनी ही पूंजी को अपनी ही भारतीय कम्पनी में निवेश कर दिया गया। अब यह विदेशी निवेश कहलाया। इस निवेश पर आपको भारत में कैपिटल गेन्स टैक्स नहीं अदा करना पड़ा, चूंकि इस टैक्स को वसूल करने का अधिकार मारीशस के पास था। पूर्व में हुई इस दोहरे टैक्स की संधि में हाल में संशोधन कर दिया गया था। नई व्यवस्था में मार्च 2017 तक मारीशस से भारत में किये गये निवेश में पूर्ववत कैपिटल गेन्स टैक्स नहीं देना होगा। 2017 से 2019 तक भारत में लागू कैपिटल गेन्स टैक्स दर का आधा देना होगा। 2019 के बाद भारत में पूरा कैपिटल गेन्स टैक्स देय होगा। मारीशस द्वारा इस संशोधन को स्वीकार कर लेने से 2019 के बाद मारीशस से भारत में केवल सच्चा निवेश आयेगा। अपनी पूंजी की घर वापसी के लिये मारीशस का रास्ता बन्द हो जायेगा। अब मारीशस से केवल सच्ची पूंजी भारत आयेगी।
मारीशस की तर्ज पर भारत ने यूरोप में स्थित द्वीपीय देश साइप्रस के साथ भी दोहरे टैक्स की संधि कर रखी थी। मारीशस के साथ इस संधि में संशोधन किये जाने के बाद संभावना थी कि विदेशी निवेश का फर्जीवाड़ा अब साइप्रस के माध्यम से होने लगेगा। बीते सप्ताह कैबिनेट ने साइप्रस के साथ दोहरे टैक्स संधि में भी संशोधन को मंजूरी दे दी है। सिंगापुर तथा नीदरलैण्ड के साथ इसी प्रकार के सम्पन्न हुए समझौतों में भी संशोधन किया जा रहा है। अतः अब इस प्रकार की संधि की छत्रछाया तले भारत में फर्जी विदेशी निवेश करने के सभी रास्ते बन्द हो जायेंगे। इस साहसिक कदम को उठाने के लिये सरकार को बधाई।
इन कदमों के कारण फर्जी विदेशी निवेश पर ब्रेक लग जायेगी। परन्तु सच्चा विदेशी निवेश आयेगा, यह संदिग्ध है। कारण कि ग्लोबलाइजेशन का सर्वत्र संकुचन हो रहा है। नीदरलैण्ड की ब्यूरो आफ इकोनामिक पालिसी के अनुसार गत वर्ष विश्व व्यापार में 13.8 प्रतिशत की गिरावट आई है। सलाहकार ए. टी. कीयरनी के अनुसार वर्तमान में विश्व में हो रहा विदेशी निवेश वास्तव में ग्लोबलाइजेशन से पीछे हटने को इंगित करता है। उनके अनुसार विश्व के तमाम देश मुक्त व्यापार से पीछे हट रहे हैं। वे आयात कर बढ़ा रहे हैं, जिससे घरेलू उद्यमों को संरक्षण मिले और अपने देश में ही माल का अधिकाधिक उत्पादन हो।
संरक्षण की इन बढ़ती दीवारों को माल के आयात से पार करना कठिन होगा। इसलिये घरेलू बाजार में माल बेचने के लिये कम्पनियों द्वारा मेजबान देशों में फैक्टरी लगाई जा रही है। जैसे लेनोवो कम्पनी को भारत में कम्प्यूटर का आयात करने पर टैक्स देना पड़े तो वह भारत में कम्प्यूटर का उत्पादन करेगी, जिससे वह भारत में अपना माल बेच सके। अर्थ हुआ कि विदेशी निवेशक भारत में माल का उत्पादन भारतीय बाजार में माल बेचने के लिये करना चाहते हैं। वे भारत में माल बनाकर निर्यात करने के लिये भारत में निवेश नहीं कर रहे हैं, जैसा कि चीन में उन्होंने किया है।
पिछले 17 माह में हमारे निर्यातों में लगातार गिरावट आ रही है। यह भी विश्व व्यापार के संकुचन को दर्शाता है। साथ ही यह भी बताता है कि निर्यात के लिये भारत में विदेशी निवेश नहीं आयेगा। ‘‘मेक इन इंडिया’’ के पीछे सोच थी कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारत में फैक्टरी लगाकर विश्व बाजार में माल सप्लाई करेंगी जैसा कि उनके द्वारा चीन में किया गया था। परन्तु वह समय अलग था। उस समय ग्लोबलाइजेशन की तरफ दुनिया बढ़ रही थी। अब ग्लोबलाइजेशन के परिणाम सामने आने लगे हैं। पूरी दुनिया में बड़ी कम्पनियों के प्राफिट बढ़ रहे हैं जबकि आम आदमी के रोजगार घट रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के दोनों प्रत्याशियों ने अमेरिकी नागरिकों के रोजगार के प्रति आवाज उठाई है। आने वाले समय में विश्व व्यापार घटेगा। इसलिये ‘‘मेक इन इंडिया’’ के फेल होने की सम्भावना बनती है।
बची बात विदेशी कम्पनियों द्वारा भारत में भारतीय बाजार के लिये माल बनाने की तो जैसे मारुति द्वारा भारत में कार उत्पादन किया जा रहा है। यहां हमारे सामने दो परस्पर विरोधी लक्ष्य हैं। अकसर विदेशी कम्पनियों के पास उन्नत तकनीकें होती हैं। इससे वे उत्तम क्वालिटी का सस्ता माल बना सकती हैं। इससे हमारे उपभोक्ता को लाभ होता है। दूसरी तरफ इनके द्वारा मुख्य रूप से आटोमेटिक मशीनों से उत्पादन किया जाता है। फलस्वरूप हमारे उद्यमियों एवं श्रमिकों को चोट पहुंचती है।
सरकार को इन दोनों परस्पर विरोधी लक्ष्यों के बीच तालमेल बैठाना है। यदि घरेलू उद्यमों को संरक्षण देंगे तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारतीय बाजार को माल सप्लाई करने के लिये भी भारत में विदेशी निवेश नहीं लायेंगी। तब हर प्रकार का विदेशी निवेश कम हो जायेगा और भारत अपनी पूंजी से अपनी अर्थव्यवस्था को बनाने की ओर बढ़ेगा। मारीशस तथा साइप्रस से दोहरे टैक्स संधि में संशोधन करना इस सुदिशा की ओर पहला कदम है। इसका श्रेय मोदी सरकार को जाता है।

Source: Patrika Newspaper

वर्चस्व का संकट: सुप्रीम कोर्ट बनाम सरकार | Dr. Vikas Divyakirti

   




27 अप्रैल को मुख्य न्यायमूर्ति श्री एच.एल. दत्तू ने प्रधानमंत्री को यह लिखकर कि संविधान पीठ का फैसला आने तक वे 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग' की बैठकों में शामिल नहीं हो सकेंगे, एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार के सनातन झगड़े को सतह पर ला दिया है। अभी पिछले सप्ताह ही संविधान पीठ ने तय किया था कि उसका अंतिम निर्णय आने तक आयोग न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं करेगा किन्तु अपने बाकी कार्य कर सकेगा. उसी आधार पर आयोग की सदस्यता के लिये दो विख्यात व्यक्तियों के चयन हेतु प्रधानमंत्री ने बैठक रखी थी जिसमें जाने से मुख्य न्यायमूर्ति ने मना कर दिया है. अब महान्यायवादी संविधान पीठ से निवेदन कर रहे हैं कि वह मुख्य न्यायमूर्ति को इस बैठक में शामिल होने का निर्देश दे. कुल मिलाकर, पहले से ही उलझा हुआ यह प्रसंग और ज़्यादा पेचीदा हो गया है.
याद रहे कि असली झगड़ा न्यायाधीशों की नियुक्तियों का है. तकरार इसी बात पर है कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्तियों में किसकी कितनी भूमिका हो। यूँ तो यह मुद्दा शुरू से ही विवादास्पद रहा है, पर अब यह अपने जटिलतम बिंदु पर पहुँच गया है। एक तरफ़ 13 अप्रैल को केंद्र सरकार ने तत्काल प्रभाव से 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग' के गठन की अधिसूचना जारी करके दशकों से चली आ रही न्यायाधीशों के वर्चस्व वाली कोलेजियम व्यवस्था का अंत कर दिया है तो दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट ने इस आयोग का प्रावधान करने वाले 99वें संविधान संशोधन तथा संबंधित अधिनियम की संवैधानिकता पर विचार करने के लिये संविधान पीठ बैठा दी है। असंभव नहीं कि संविधान पीठ इस आयोग के गठन को न्यायपालिका की स्वतंत्रता के विरुद्ध मानते हुए इसे असंवैधानिक ठहरा दे। केंद्र सरकार ने भी मुट्ठियाँ कसी हुई हैं. उसने आयोग की स्थापना हो जाने के आधार पर विभिन्न हाई कोर्टों के उन 125 न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को भी बीच में ही रोक दिया है जिनके पक्ष में सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम ने सिफ़ारिश की थी। ऐसे में स्वाभाविक तौर पर प्रतीत होता है कि हम 1993 और 1998 की तरह फिर से इस मुद्दे पर किसी टकराव की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसे में एक नागरिक के तौर पर हमारे मन में स्वाभाविक तौर पर यह सवाल उठना चाहिये कि दोनों में से किसका पक्ष सही है?

सही-गलत का फ़ैसला करने से पहले इस मुद्दे का थोड़ा सा इतिहास जान लेना ठीक होगा। हमारे संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 बताते हैं कि क्रमशः सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ कैसे की जाएंगी। अनुच्छेद 124 कहता है कि राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाई कोर्टों के जिन न्यायाधीशों से 'परामर्श' करना ठीक समझे, उनसे परामर्श करने के बाद सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को नियुक्त करेगा। इसी प्रकार, अनुच्छेद 217 में राष्ट्रपति को यही अधिकार हाई कोर्टों के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में दिया गया है, शर्त बस यह है कि इस विषय में उसे भारत के मुख्य न्यायाधीश, संबंधित राज्य के राज्यपाल और हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से 'परामर्श' करना होता है।


इस अनुच्छेद के जिस शब्द पर शुरू से ही विवाद रहा है, वह है 'परामर्श'। विवाद का बिंदु यह था कि राष्ट्रपति परामर्श मानने को बाध्य है या वह अपने विवेक से परामर्श को अस्वीकार भीकर सकता है? हम सब जानते हैं कि आम जनजीवन में 'परामर्श' शब्द का अर्थ 'आदेश' नहीं, 'सलाह' होता है जिसे मानने या न मानने की मर्ज़ी उसी व्यक्ति की होती है जिसे परामर्श दिया गया है। उदाहरण के लिये, अगर मैं स्वास्थ्य से जुड़ी किसी समस्या के संदर्भ में किसी डॉक्टर से मिलूँ और वह 'सर्जरी' कराने का परामर्श दे तो समस्या चाहे जितनी भी गंभीर हो, सर्जरी कराने या न कराने का फैसला लेने का अधिकार अंततः मेरा ही होगा। सार यही कि 'परामर्श' में अनिवार्यता का भाव शामिल नहीं होता।


बहरहाल, 1950 में संविधान लागू होने के बाद लंबे समय तक इसी अर्थ के अनुसार न्यायिक नियुक्तियाँ होती रहीं अर्थात् राष्ट्रपति के पास यह अधिकार बना रहा कि वह न्यायाधीशों के परामर्श को माने या नहीं। पर श्रीमती इंदिरा गांधी के शासन-काल में न्यायाधीशों की नियुक्तियों में सरकार बुरी तरह हावी होने लगी। उदाहरण के लिये, जिस तरह 1973 में श्री अजीतनाथ रे को वरिष्ठतम न्यायाधीश न होने के बावजूद भारत का मुख्य न्यायमूर्ति बनाया गया और जिस तरह 1977 में श्री हंसराज खन्ना को वरिष्ठतम न्यायाधीश होने के बावजूद मुख्य न्यायमूर्ति नहीं बनने दिया गया, उससे यह महसूस होने लगा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता ख़तरे में है। श्रीमती गांधी के शासनकाल में ही 1982 में 'एस.पी.गुप्ता' के प्रसिद्ध मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के सामने यह सवाल उठा कि 'परामर्श' शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है; और 7 न्यायाधीशों की पीठ ने 4:3 के बहुमत से यही तय किया कि परामर्श मानना सरकार के लिये बाध्यकारी नहीं है। गौरतलब है कि इसी मामले में एक न्यायाधीश श्री पी.एन. भगवती ने सलाह दी थी कि न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण से जुड़े विषयों का निर्धारण करने के लिये हमें भी ऑस्ट्रेलिया की तरह 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग' का गठन करना चाहिये। वर्तमान में यह आयोग ही विवाद के केंद्र में है।


खैर, सरकार की यह निरंकुश ताकत 1993 से कम होनी शुरू हुई। कुछ विशेषज्ञ दावा करते हैं कि जब-जब केंद्र सरकार कमज़ोर होती है, तब-तब उसी अनुपात में सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति मजबूत व सक्रिय होने लगते हैं। शायद यही कारण था कि 1989 के बाद गठबंधन सरकारों के दौर में सुप्रीम कोर्ट ताकतवर होता गया जिसकी बानगी 1993 और 1998 के दो मामलों में खास तौर पर देखी जा सकती है। इन मामलों ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में सरकार की निरंकुश शक्ति तो छीन ली, पर वैसी ही बेलगाम ताकत सुप्रीम कोर्ट को दे दी।


1993 के 'सुप्रीमकोर्ट एडवोकेट्स' के मामले में 9 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 7:2 के बहुमत से तय किया कि अनुच्छेद 124 और 217 के तहत न्यायपालिका द्वारा दिया जाने वाला परामर्श मानना राष्ट्रपति के लिये बाध्यकारी है। यह परामर्श एक समूह या 'कोलेजियम' द्वारा दिया जाएगा जिसमें सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायमूर्ति और उसके दो वरिष्ठतम सहयोगी शामिल होंगे। अगर कोलेजियम के सदस्यों में आपसी असहमति हो तो मुख्य न्यायमूर्ति की राय सरकार के लिये अंतिम तथा बाध्यकारी होगी।


1998 में कोलेजियम के परामर्श पर कुछ विवाद हुआ। इसे देखते हुए तत्कालीन एन.डी.ए. सरकार ने अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति को उपलब्ध विशेष शक्ति का प्रयोग करते हुए सुप्रीम कोर्ट से कुछ सवालों पर राय मांगी जिनका संबंध न्यायिक नियुक्तियों से ही था। सुप्रीम कोर्ट में फ़िर 9 न्यायाधीशों की संविधान पीठ बैठी और उसने 9:0 के बहुमत से 1993 के फैसले को थोड़ा सा बदल दिया। अब कहा गया कि 'कोलेजियम' का परामर्श रहेगा तो बाध्यकारी ही, पर कोलेजियम में मुख्य न्यायमूर्ति के अलावा चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होंगे। यह भी स्पष्ट किया गया कि कोलेजियम के पाँचों सदस्यों की राय का बराबर महत्त्व होगा और कोई भी दो सदस्य किसी उम्मीदवार के नाम पर वीटो कर सकेंगे। तब सेअभी तक यह व्यवस्था बदस्तूर चल रही है।


प्रश्न है कि क्या कोलेजियम की इस व्यवस्था में कोई समस्या थी या सरकार सिर्फ अपनी ताकत बढ़ाने के लिये इसे बदलना चाहती है? वस्तुतः सरकार की शक्तिशाली होने की इच्छा अपनी जगह है, पर कुछ और तर्क भी हैं जो कोलेजियम की व्यवस्था पर सवाल खड़े करते हैं। पहला तर्क है यह सिद्धांत प्राकृतिक न्याय की दृष्टि से ही गलत है कि खुद न्यायाधीश ही न्यायाधीशों का चयन करें। अगर किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में सरकार, संसद और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का संतुलन होना अच्छा माना जाता है तो वह भारत में क्यों नहीं होना चाहिये? दूसरा तर्क है कि हम इंग्लैंड, अमेरिका या किसी भी विकसित देश को देख लें; हर जगह न्यायिक नियुक्तियों में सरकार या/और संसद की प्रभावी भूमिका होती है। तो भारत की न्यायपालिका को यह विशेषाधिकार क्यों होना चाहिये? तीसरा तर्क एक आलोचना के रूप में है। वह यह है कि इस प्रणाली के कारण न्यायिक नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद बढ़ा है और समाज के वंचित तबकों को हिस्सा नहीं मिल सका है। कुछ आलोचक यहाँ तक कहते हैं कि उच्चतर न्यायपालिका के अधिकांश न्यायाधीश सिर्फ 80-100 परिवारों से आते हैं। इस कारण हमारी न्यायपालिका समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व भी नहीं कर पाती है। यह तथ्य रोचक है कि सुप्रीम कोर्ट में आज तक सिर्फ 6 महिलाएँ न्यायाधीश बन पाई हैं। अनुसूचित जातियों से अभी तक सिर्फ 3 न्यायाधीश बने हैं और अनुसूचित जनजातियों से तो एक भी नहीं। क्या इन वर्गों में पूरे देश में ऐसे 2-4 योग्य व्यक्ति भी उपलब्ध नहीं हैं जो सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश बनने की योग्यता रखते हों? यह सही है कि इस स्तर के पदों पर हम आरक्षण नहीं दे सकते; पर इतना तो हमें करना ही चाहिये कि इन वर्गों के योग्य उम्मीदवारों को कुछ वरीयता दें ताकि न्यायपालिका चुनिंदा ताकतवर समूहों की जगह पूरे देश का समुचित प्रतिनिधित्व कर सके और सही अर्थों में वैसी 'रिफ्लेक्टिव ज्यूडिशियरी' बन सके जैसी आजकल कई देशों में दिखाई देती है। आख़िर न्याय करने वाली संस्था के गठन में भी तो न्याय होना चाहिये। जैसा शानदार प्रतिनिधित्व हमारी न्यायपालिका ने धार्मिक अल्पसंख्यकों को दिया है, वैसा ही मुख्यधारा से कटे अन्य वंचित वर्गों को क्यों नहीं दिया जा सकता?


शायद इन्हीं सब कारणों से अधिकांश राजनीतिक दलों में इस बात पर सहमति रही है कि न्यायिक नियुक्तियों में सरकार की पर्याप्त भूमिका होनी चाहिये। रोचक बात है कि 1987 में विधि आयोग ने भी 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग' के गठन की सिफ़ारिश की थी और इस विषय पर व्यापक सहमति की संभावना देखते हुए 1990 में तत्कालीन क़ानून मंत्री श्री दिनेश गोस्वामी ने और 1999 में क़ानून मंत्री श्री अरुण जेटली ने संविधान संशोधन के लिये विधेयक पेश किये थे जो कुछ कारणों से पारित नहीं हो सके। वर्तमान केंद्र सरकार ने अपने कार्यकाल की शुरुआत में ही इस मुद्दे पर मजबूत इरादा दिखाते हुए 121वाँ संविधान संशोधन विधेयक पारित कराया। गौरतलब है कि संविधान के प्रावधानों के तहत इस विधेयक को पारित कराने के लिये संसद के दोनों सदनों के विशेष बहुमत के अलावा कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों के समर्थन की भी अपेक्षा थी। श्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने विपक्षी दलों के सहयोग से ये सारी चुनौतियाँ सफलतापूर्वक पार कीं और 31 दिसंबर, 2014 को राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने विधेयक पर हस्ताक्षर कर दिये। अब यह 99वें संविधान संशोधन के नाम से जाना जाता है। इसके तहत अनुच्छेद 124 और 217 को बदलकर लिखा गया है कि राष्ट्रपति 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग' की सिफारिशों के अनुसार न्यायाधीशों की नियुक्ति व स्थानांतरण करेगा। साथ ही, संसद ने एक और विधेयक पारित किया जो 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम' के नाम से जाना जाता है। यह अधिनियम इस आयोग के गठन आदि से जुड़े प्रावधानों व प्रक्रियाओं का प्रावधान करता है। खास बात यह है कि इन दोनों अधिनियमों को तुरंत प्रभाव से लागू नहीं किया गया था। इनमें लिखा गया था कि ये सरकार द्वारा अधिसूचना जारी किये जाने पर लागू होंगे और इनके लागू होने की तारीख वही होगी जो अधिसूचना में घोषित की जाएगी।


जैसे ही ये दोनों विधेयक पारित हुए, कई कानूनविदों ने इनके असंवैधानिक होने का आरोप लगाया क्योंकि उनकी राय में ये क़ानून न्यायपालिका की स्वतंत्रता के ख़िलाफ़ थे। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट न्यायपालिका की स्वतंत्रता को संविधान के आधारभूत ढाँचे का हिस्सा बता चुका है जिसका अर्थ है कि संसद कोई भी क़ानून बनाकर या संविधान में संशोधन करके उसका अतिक्रमण नहीं कर सकती। इसी आधार पर इन दोनों क़ानूनों के पारित होते ही सुप्रीम कोर्ट में कुछ याचिकाएँ दायर की गईँ जिनमें सरकार को अधिसूचना जारी करने से रोकने का आदेश देने की मांग की गई थी। 7 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट की 3 सदस्यीय पीठ ने ऐसा आदेश देने से इंकार कर दिया और मुख्य न्यायमूर्ति से आग्रह किया कि मामले की गंभीरता को देखते हुए यह विषय संविधान पीठ को सौंपा जाए। मुख्य न्यायमूर्ति ने 5 सदस्यीय संविधान पीठ का गठन किया और 15 अप्रैल से सुनवाई की प्रक्रिया शुरू करने की घोषणा की गई। इसी बीच, 13 अप्रैल को केंद्र सरकार ने दोनों अधिनियम तत्काल प्रभाव से लागू किये जाने की अधिसूचना जारी कर दी। अधिसूचना के जारी होते ही कोलेजियम व्यवस्था समाप्त हो गई है, बशर्ते सुप्रीम कोर्ट इन अधिनियमों को ही असंवैधानिक घोषित न कर दे। इस 15 अप्रैल को जैसे ही 5 सदस्यीय संविधान पीठ इस विषय पर विचार करने बैठी तो प्रसिद्ध वकील श्री फली एस. नरीमन ने इस पीठ की अध्यक्षता कर रहे जस्टिस अनिल आर. दवे की उपस्थिति को इस आधार पर चुनौती दी कि चूँकि वे स्वयं नवगठित 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग' के सदस्य हैं, इसलिये उन्हें इस मामले की सुनवाई नहीं करनी चाहिये। जस्टिस दवे ने इस तर्क से सहमत होते हुए खुद को सुनवाई से अलग कर लिया और मुख्य न्यायमूर्ति को निवेदन भेजा कि वे नई स्थितियों के अनुसार संविधान पीठ का पुनर्गठन करें। फिर जब नई पीठ बनी तो पुनः यही तर्क देकर उसके सदस्यों के औचित्य पर सवाल उठाया गया पर इस बार पीठ ने इस तर्क को ख़ारिज कर दिया. अब यह पीठ मूल प्रश्न पर विचार कर रही है.


यहाँ हमें इस प्रश्न पर भी विचार करना चाहिये कि क्या 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग' से जुड़े प्रावधान सचमुच न्यायपालिका की स्वतंत्रता के ख़िलाफ़ हैं या इस बात को अनावश्यक रूप से तूल दिया जा रहा है? दरअसल, 99वें संशोधन के तहत प्रावधान किया गया है कि इस आयोग में कुल 6 सदस्य होंगे। भारत का मुख्य न्यायमूर्ति इसका प्रथम सदस्य और अध्यक्ष होगा। उसके अलावा सुप्रीम कोर्ट के दो अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश भी इसके सदस्य होंगे। चौथे सदस्य के रूप में भारत के क़ानून व न्याय मंत्री शामिल होंगे। शेष दो सदस्यों के तौर पर दो प्रख्यात हस्तियों को मनोनीत किया जाएगा। इन दो प्रख्यात हस्तियों का चयन करने के लिये एक तीन सदस्यीय समिति गठित की जाएगी जिसमें प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायमूर्ति तथा लोकसभा के नेता विपक्ष शामिल होंगे। अगर लोकसभा में किसी भी व्यक्ति को नेता विपक्ष का दर्जा हासिल नहीं होगा तो सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को समिति में शामिल किया जाएगा। यह भी शर्त है कि इन दो प्रख्यात हस्तियों में से एक का मनोनयन अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों या महिलाओं में से किया जाएगा। एक महत्वपूर्ण प्रावधान यह भी है कि अगर इन 6 सदस्यों में से कोई भी 2 सदस्य किसी व्यक्ति के नाम पर वीटो कर देंगे तो उसे न्यायाधीश नहीं बनाया जा सकेगा।


अब देखते हैं कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सचमुच कोई ख़तरा है या नहीं? अगर आयोग में न्यायपालिका और सरकार की तुलनात्मक शक्ति पर विचार करें तो स्पष्ट है कि 6 में से 3 सदस्य न्यायपालिका से हैं जबकि सरकार का एक ही प्रतिनिधि सीधे तौर पर शामिल है। शेष 2 की नियुक्ति में सरकार से ज़्यादा ताकत मुख्य न्यायमूर्ति और नेता विपक्ष के पास सम्मिलित रूप से रहने वाली है। अगर सरकार अपने समर्थकों को आयोग में घुसाना चाहेगी तो निस्संदेह मुख्य न्यायमूर्ति और नेता विपक्ष उसे ऐसा नहीं करने देंगे। यानी आयोग की संरचना न्यायपालिका को पराधीन नहीं बनाती है।


अब दूसरी बात। जब आयोग के सदस्य न्यायाधीशों का चयन करेंगे तो क्या होगा? यह तय है कि सरकार मनमाने तरीके से एक भी न्यायाधीश की नियुक्ति नहीं करा सकेगी क्योंकि आयोग में न्यायपालिका 3 सदस्य हैं जबकि किसी नाम पर वीटो करने के लिये 2 सदस्य ही काफ़ी हैं। दूसरी ओर, न्यायाधीशों द्वारा सुझाए गए नाम पर वीटो तभी हो सकेगा जब सरकार के पास अपने क़ानून मंत्री के अलावा कम से कम एक सदस्य और हो। अगर दो प्रख्यात हस्तियों का चयन मुख्य न्यायमूर्ति और/या नेताविपक्ष के समर्थन से हुआ है और वह भी सरकार की इस राय से सहमत है कि किसी व्यक्ति विशेष को न्यायाधीश नहीं बनाया जाना चाहिये तो ऐसी स्थिति में उसे रोक देना न्यायपालिका की स्वतंत्रता के विरुद्ध क्यों माना जाना चाहिये? अगर सरकार या संसद की निरंकुशता लोकतंत्र के लिये घातक है तो न्यायपालिका की निरंकुशता क्यों नहीं?


बहरहाल, सरकार ने तो अधिसूचना जारी करके कोलेजियम व्यवस्था का अंत कर ही दिया है। अधिनियम के अनुसार अब आयोग के सदस्यों के चयन की प्रक्रिया शुरू होनी चाहिये तथा न्यायाधीशों के चयन की प्रक्रिया के नियम आदि बनने चाहियें। अब गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में है। बेहतर होगा कि वह अपने लिये निरंकुश शक्ति की इच्छा न करे और संविधान के नए प्रावधानों के अनुसार अपनी भूमिका निभाए; कम से कम तब तक जब तक कि संविधान पीठ अपना फैसला नहीं दे देती है। जिस तरह दुनिया के हर देश में न्यायिक नियुक्तियों में सरकार और/या संसद की भूमिका होती है, उसी तरह भारत में भी वह भूमिका स्वीकार की जानी चाहिये। हाँ, अगर आगे चलकर ऐसा लगता है कि सरकार इस नयी प्रणाली का दुरुपयोग कर रही है तो न्यायिक पुनर्विलोकन की अबाध शक्ति तो सुप्रीम कोर्ट के पास है ही।

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