Friday, December 30, 2016

यह एक निःशक्त कविता है

यह एक निःशक्त कविता है
जो युद्ध की बात नहीं कर सकती
स्वतंत्रता की अलख नहीं जगा सकती
क्योंकि स्वतंत्रता तो
सत्तर साल पहले दिल्ली की गलियों में
घोषित हो चुकी है.
यह एक निःशक्त कविता है
क्योंकि ये
जनता का, जनता को, जनता द्वारा
हो रहे इस शासन में
गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, अशिक्षा
से स्वतंत्रता की बात नहीं कर सकती,
सब जगह लोग देशद्रोही का ठप्पा लगाने घूम रहे हैं.
लोकतंत्र में अपनी सरकार के खिलाफ बोलना वर्जित है,
लोकतंत्र एक सबसे बड़ी दुविधा है,
यह एक निःशक्त कविता है.

मैं प्रेरणाओं की बातें नहीं कर सकता
जूनून और बदलावों की बातें नहीं कर सकता
ये कपडा इतना फट गया है की
थिंगरे लगाने से ये सुधर नहीं पायेगा,
देश सिर्फ बातों से असर नहीं पायेगा.
शोषण, पतन, गरीबी पर लिखना
और थप्पड़ खाने से परे,
प्रेमिका के केशों पर लिखना सुविधा है,
यह एक निःशक्त कविता है.

दुनिया तवायफों की नींदों जैसी है
पूँजीवाद कस्टमर सा है
उम्मीद बूचड़खाने में अपना इंतज़ार कर रही है
सीरिया आँखें नुचने तक रो रहा है.
जो जल रही है, वो आग सीने की नहीं है
किसी क्रन्तिकारी कवि की चिता है,
यह एक निःशक्त कविता है.

हर निराश में उजास भरना जरूरी है
'अंत भला, सब भला' करना जरूरी है,
इसलिए 'प्रेमिका की सांसे सागर की लहरें हैं,
प्रेमिका के गाल अमेरिका की चिकनी सड़कें हैं,
प्रेमिका की आँखों में थेम्स का साफ़ जल है,
प्रेमिका के दिल में मिसिसिपी की कलकल है,
प्रेमिका का यौवन लोकतंत्र सा नया है,
प्रेमिका का ज्ञान डिजिटल रेवोलुशन सा खरा है.
प्रेमिका का चेहरा चाँद सा है.'

रुको! चाँद तो आर्मस्ट्रॉन्ग के पैरों तले कुचला गया है!
इसीतरह प्रकृति पैरों तले कुचली गई
मानवता तकनीक तले कुचली गई है
सीरिया, लीबिया के मुंह जुबानी नहीं है,
जैसे शादी के बाद रेप की मनाही नहीं है!
सॉरी! अंत तक उजास, उम्मीद न भर सका
कवि बेचारगी लिए दुल्हन का पिता है
ये वर्ष की की आखिरी कविता है
वर्ष की तरह, यह भी एक निःशक्त कविता है.

Tuesday, December 27, 2016

गरीबी

गरीबी भूख है
गरीबी बीमार होना और
डॉक्टर को न दिखा पाने की विवशता है,
गरीबी स्कूल न जा पाना और
निरक्षर रह जाना है.
या पढ़-लिख जाना
पर नैतिक मूल्यों का न आ पाना है.
गरीबी सड़क पे लड़की छेड़ना है
डॉक्टर का बेईमान हो जाना है.

गरीबी नैतिकता का पतन है.
गरीबी भूख है,
गरीबी सिर्फ भूख ही नहीं है.

गरीबी बेरोज़गारी है
भविष्य के प्रति भय है,
दिन में बस एक बार भोजन पाना है
या दूसरी बार पाने बेईमान हो जाना है.
गरीबी मजबूर हो जाना है,
गरीबी रोज़गार में स्वाभिमान खोना है.

गरीबी बेरोज़गारी है,
गरीबी तिल-तिल मारती रोज़गारी है.

गरीबी अपने बच्चे को
उस बीमारी से मरते देखना है,
जो अस्वच्छ पानी पीने से हुई है.

गरीबी खुद के सरकारी-शौचालय को
गोदाम बनाना,
और शौच बाहर को जाना है.
गरीबी ट्रैन के टॉयलेट में बैठ
सफर करके आना है.

गरीबी अस्वच्छ में रहना है
गरीबी अस्वच्छता फैलाना है
गरीबी अस्वछता से अस्वस्थ होना है.

गरीबी
शक्ति, प्रतिनिधित्वहीनता,
स्वतंत्रता की हीनता का नाम है.
और गरीबी पैसे के बदले वोट डालने जैसे काम है.

गरीबी डरना है
गरीबी मरना है
गरीबी स्वतंत्रता की हीनता है
विकल्पों की दीनता है
गरीबी पराधीनता है.

गरीबी स्वाभिमान का पतन है
कहीं मजबूरी,
तो कहीं स्वजनित है, स्व-जतन है.
गरीबी खोखला होना है,
गरीबी अंदर के आदमी का पतन है.

Inspired from the writings of Shaheen Rafi Khan, Damian Killeen and Amartya Sen

Monday, December 26, 2016

भाषा और पर्यावरण / अनुपम मिश्र

किसी समाज का पर्यावरण पहले बिगड़ना शुरू होता है या उसकी भाषाहम इसे समझ कर संभल सकने के दौर से तो अभी आगे बढ़ गए हैं. हम विकसित हो गए हैं.

भाषा यानी केवल जीभ नहीं. भाषा यानी मन और माथा भी. एक का नहींएक बड़े समुदाय का मन और माथाजो अपने आसपास के और दूर के भी संसार को देखनेपरखनेबरतने का संस्कार अपने में सहज संजो लेता है. ये संस्कार बहुत कुछ उस समाज के मिट्टी,पानीहवा में अंकुरित होते हैंपलतेबढ़ते हैं और यदि उन में से कुछ मुरझाते भी हैं तो उनकी सूखी पत्तियां वहीं गिरती हैंउसी मिट्टी में खाद बनाती हैं. इस खाद यानी असफलता की ठोकरों के अनुभव से भी समाज नया कुछ सीखता है.

लेकिन कभीकभी समाज के कुछ लोगों का माथा थोड़ा बदलने लगता है. यह माथा फिर अपनी भाषा भी बदलता है. यह सब इतने चुपचाप होता है कि समाज के सजग माने गए लोगों के भी कान खड़े नहीं हो पाते. इसका विश्लेषणइसकी आलोचना तो दूरइसे कोई क्लर्क या मुंशी की तरह भी दर्ज नहीं कर पाता.

इस बदले हुए माथे के कारण हिंदी भाषा में ५०६० बरस में नए शब्दों की एक पूरी बारात आई है. बरातिये एक से एक हैं पर पहले तो दूल्हे राजा को ही देखें. दूल्हा है विकास नामक शब्द. ठीक इतिहास तो नहीं मालूम है कि यह शब्द हिंदी में कब पहली बार आज के अर्थ में शामिल हुआ होगा. पर जितना अनर्थ इस शब्द ने पर्यावरण के साथ किया हैउतना शायद ही किसी और शब्द ने पर्यावरण के साथ किया हो.

विकास शब्द ने माथा बदला और फिर उसने समाज के अनगिनत अंगो की थिरकन को थामा. अंग्रेजों के आने से ठीक पहले तक समाज के जिन अंगों के बाकायदा राज थेवे लोग इस भिन्न विकास की अवधारणा के कारण आदिवासी कहलाने लगे. नए माथे ने देश के विकास का जो नया नक्शा बनायाउसमें ऐसे ज्यादतर इलाके पिछड़े शब्द के रंग से ऐसे रंगे गएजो कई पंचवर्षिय योजनाओं के झाड़ूपोंछे से भी हल्के नहीं पड़ पा रहे. अब यह हम भूल भी चुके हैं कि ऐसे ही पिछड़े इलाकों की संपन्नता सेवनों सेखनिजोंलौहअयस्क से देश के अगुआ मान लिए गए हिस्से कुछ टिके से दिखते हैं.

कुछ मुट्ठी भर लोग पूरे देश की देह काउसके हर अंग का विकास करने में जुट गए हैं. ग्राम विकास तो ठीकबाल विकासमहिला विकास सब कुछ लाईन में है.

अपने कोअपने समाज को समझे बिना उसके विकास की इस विचित्र उतावली में गजब की सर्वसम्मति है. सभी राजनैतिक दलसभी सरकारें फिर चाहे वे मिशन वाली हो या वर्ग संघर्ष वालीगर्व से विकास के काम में लगी हैं. विकास की इस नई अमीर भाषा ने एक नई रेखा भी खींची है – गरीबी की रेखा. लेकिन इस रेखा को खींचने वाले संम्पन्न लोगों की गरीबी तो देखिए कि उनकी तमाम कोशिशें रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या में कमी लाने के बदले उसे लगातार बढ़ाती जा रही हैं.

पर्यावरण की भाषा इस सामाजिकराजनीतिक भाषा से रत्तीभर अलग नहीं है. वह हिंदी भी है यह कहते हुए डर लगता है. बहुत हुआ तो आज के पर्यावरण की ज्यादातर भाषा देवनागरी कही जा सकती है. लिपि के कारण राजधानी में पर्यावरण मंत्रालय से लेकर हिंदी राज्यों के कस्बोंगांवों तक के लिए बनी पर्यावरण संस्थाओं की भाषा कभी पढ़ कर तो देखें. ऐसा पूरा साहित्यलेखनरिपोर्ट सबकुछ एक अटपटी हिंदी से पटा पड़ा है.

कचरा शब्दों का और उन से बनी विचित्र योजनाओं का ढेर लगा है. इस ढेर को पुनर्चक्रित भी नहीं किया जा सकता. दोचार नमूने देखें. सन् १९८० से आठदस बरस तक पूरे देश में सामाजिक वानिकी नामक योजना चली. किसी ने भी नहीं पूछा कि पहले यह तो बता दो कि असामाजिक वानिकी क्या हैयदि इस शब्द कायोजना का संबंध समाज के वन से है,गांव के वन से हैतो हर राज्य के गांवों में ऐसे विशिष्ट ग्रामवनपंचायती वनों के लिए एक भरा पूरा शब्द भंडारविचार और व्यवहार का संगठन काफी समय तक रहा है.

कहीं उस पर थोड़ी धूल चढ़ गई थी तो कहीं वह मुरझा गया थापर वह मरा तो नहीं था. उस दौर में कोई संस्था आगे नहीं आई इन बातों को लेकर. मरु प्रदेश में आज भी मौजूद हैं ओरणएक शब्द जो अरण्य‘ से बना है. ये गांवों के वनमंदिरदेवी के नाम पर छोड़े जाते हैं. कहीं कहीं तो मीलों फैले हैं ऐसे जंगल. इनके विस्तार कीसंख्या की कोई व्यवस्थित जानकारी नहीं है. वन विभाग कल्पना भी नहीं कर सकता कि लोग ओरणों से एक तिनका भी नहीं उठाते.

अकाल के समय में ही इनको खोला जाता है. वैसे ये खुले ही रहते हैंन कटीले तारों का घेरा हैन दीवारबंदी ही. श्रद्धाविश्वास का घेरा इन वनों की रखवाली करता रहा है. हजारबारह सौ बरस पुराने ओरण भी यहां मिल जाएंगे. जिसे कहते हैं बच्चेबच्चे की जबान पर ओरण शब्द रहा है. पर राजस्थान में अभी कुछ ही बरस पहले तक सामाजिक संस्थाएं ही नहींश्रेष्ठ वन विशेषज्ञ भी या तो इस परंपरा से अपरिचित थे या अगर जानते थे तो कुछ कुतुहल भरेशोध वाले अंदाज में. ममत्व नहीं थायह हमारी परंपरा है ऐसा भाव नहीं था उस जानकारी में.

ऐसी हिंदी की सूची लंबी हैशर्मनाक है. एक योजना देश की बंजर भूमि के विकास की आई थी. उसकी सारी भाषा बंजर ही थी. सरकार ने कोई ३०० करोड़ रुपया लगाया होगा पर यह भूमि बंजर की बंजर ही रही. फिर योजना ही समेट ली गई. और अब सबसे ताजी योजना है जलागम क्षेत्र विकास की. यह अंग्रेजी के वॉटरशेड डेवलपमेंट का हिन्दी अनुवाद है. इससे जिनको लाभ मिलेगावे लाभार्थि कहलाते हैंकहीं हितग्राही भी हैं.

यूजर्स ग्रुप‘ का सीधा अनुवाद उपयोगकर्ता समूह भी यहां है. तो एक तरफ साधन संम्पन्न योजनाएं हैंलेकिन समाज से कटी हुई. जन भागीदारी का दावा करती हैं पर जन इससे भागते नजर आते हैंतो दूसरी तरफ मिट्टी और पानी के खेल को कुछ हजार बरस से समझने वाला समाज है. उसने इस खेल में शामिल होने के लिए कुछ आनंददायी नियम,परंपराएं और संस्थाएं बनाई थीं. किसी अपरिचित शब्दावली के बदले एक बिल्कुल आत्मीय ढांचा खड़ा किया था. चेरापूंजीजहां पानी कुछ गज भर गिरता हैवहां से लेकर जैसलमेर तक जहां कुल पांचआठ इंच वर्षा हो जाए तो भी आनंद बरस गया– ऐसा वातावरण बनाया.

हिमपात से लेकर रेतीली आंधी में पानी का कामतालाब में काम करने वाले गजधरों का कितना बड़ा संगठन खड़ा किया गया होगा. कोई चारपाँच लाख गांवों में काम करने वाले उस संगठन का आकार इतना बड़ा था कि वह सचमुच निराकार हो गया. आज पानी का,पर्यावरण का काम करने वाली बड़ी से बड़ी संस्थाएं उस संगठन की कल्पना तो करके देखें. लेकिन वॉटरशेडजलागम क्षेत्र विकास का काम कर रही संस्थाएंसरकारेंउस निराकार संगठन को देख ही नहीं पातीं. उस संगठन के लिए तालाब एक वॉटर बॉडी नहीं था. वह उसकी रतन तलाई थी. झुमरी तलैया थीजिसकी लहरों में वह अपने पुरखों की छवि देखता था. लेकिन आज की भाषा जलागम क्षेत्र को मत्स्य पालन से होने वाली आमदनी में बदलती है.

इसी तरह अब नदियां यदि घर में बिजली का बल्ब न जला पाएं तो माना जाता है कि वेव्यर्थ में पानी समुद्र में बहा रही हैं. बिजली जरूर बनेपर समुद्र में पानी बहाना भी नदी का एक बड़ा काम है. इसे हमारी नई भाषा भूल रही है. जब समुद्रतटीय क्षेत्रों में भूजल बड़े पैमाने पर खारा होने लगेगा तब हमें नदी की इस भूमिका का पता चलेगा.


लेकिन आज तो हमारी भाषा ही खारी हो चली है. जिन सरलसजल शब्दों की धाराओं से वह मीठी बनती थी उन धाराओं को बिल्कुल नीरसबनावटीपर्यावरणीयपरिस्थितिक जैसे शब्दों से बाँधा जा रहा है. अपनी भाषाअपने ही आंगन में विस्थापित हो रही है. वह अपने ही आंगन में पराई बन रही है.

Thursday, December 22, 2016

स्त्री के सपने


मेरे साथ जो स्त्री रहती है
वो सोती है, उसके सपने जागते हैं.
वो रोती है,
उसके सपने झरते हैं.
वो सीने से लगती है,
हिदायत देती सी लगती है,
कि उसके सपने न मरोड़ूँ.

मैं आदमी हूँ,
मेरा दम्भ
उसके सपनों पे धाड़ से पड़ता है
छनाक! उसके सारे सपने टूट जाते हैं.

वो एक आस लिए
फिर रोटी संग सपने बेलती है
चूल्हे पे आंच देती है,
कि मैं कायर किसी दिन
मर्द बनूँगा
और उसके सपने नहीं तोड़ूंगा.

मैं आदमी हूँ,
सभ्यता के आदि से कायर ही हूँ!

WW-I के घोड़े


तुम्हें चाहिए थी ज़मीनें
तुम्हें चाहिए थे राजपाट
तुम्हारी कलहें, तुम्हारी बंदूकें,
फिर हम क्यों मरे?
विश्वयुद्ध-एक के
मरे अस्सी लाख घोड़ों-खच्चरों का हिसाब दो मानव.
बताओ, तुम्हारी लड़ाई में हम क्यों मरे?
एक दिन
प्रार्थनाएं, तप, तमाम भागीरथी प्रयास कर
हम पाएंगे बुद्धि,
लेकिन तब भी
तुम्हारी नथों में न डालेंगे रस्सी.
न पीठ पे चढ़ दौड़ाएंगे तुम्हें,
अस्सी लाख क्या,
एक भी नहीं मरोगे तुम.
क्योंकि हम नहीं करेंगे कोई विश्वयुद्ध.
हम खुद में भी देंगे बराबरी का दर्ज़ा,
बाकि की तमाम नस्लों को भी.
उपनिवेशन, गुलामी और नस्लें पालतू बनाने से परे,
हम ऐसी बुद्धि चाहेंगे
जो समता, समरसता, समानता लाये-
नस्लों के परे, क्लासों के परे,
मुल्कों के परे, रंगों के परे.
हम तुम्हें जानवर नहीं कहेंगे मानव.

Wednesday, December 21, 2016

प्रलय का शिलालेख /अनुपम मिश्र


                        उत्तराखंड में हिमालय और उसकी नदियों के तांडव का
                        आकार प्रकार अब धीरेधीरे दिखने लगा है.
                        लेकिन मौसमी बाढ़ इस इलाके में नई नहीं है.
                        अनुपम मिश्र का सन 1977 में लिखा एक यात्रा वृतांत


सन् 1977 की जुलाई का तीसरा हफ्ता. उत्तरप्रदेश के चमोली जिले की बिरही घाटी में आज एक अजीबसी खामोशी है. यों तीन दिन से लगातार पानी बरस रहा है और इस कारण अलकनंदा की सहायक नदी बिरही का जल स्तर बढ़ता जा रहा है. उफनती पहाड़ी नदी की तेज आवाज पूरी घाटी में टकरा कर गूंज भी रही है. फिर भी चमोलीबदरीनाथ मोटर सड़क से बाईं तरफ लगभग 22 किलोमीटर दूर 6,500 फुट की ऊंचाई पर बनी इस घाटी के 13 गांवों के लोगों को आज सब कुछ शांतसा लग रहा है.

आज से सिर्फ सात बरस पहले ये लोग प्रलय की गर्जना सुन चुके थेदेख चुके थे. इनके घरखेत व ढोर उस प्रलय में बह चुके थे. उस प्रलय की तुलना में आज बिरही नदी का शोर इन्हें डरा नहीं रहा था. कोई एक मील चौड़ी और पांच मील लंबी इस घाटी में चारों तरफ बड़ीबड़ी शिलाएंपत्थररेत और मलबा भरा हुआ हैइस सब के बीच से किसी तरह रास्ता बना कर बह रही बिरही नदी सचमुच बड़ी गहरी लगती है.

लेकिन सन् 1970 की जुलाई का तीसरा हफ्ता ऐसा नहीं था. तब यहां यह घाटी नहीं थी,इसी जगह पर पांच मील लंबाएक मील चौड़ा और कोई तीन सौ फुट गहरा एक विशाल ताल थाः गौना ताल. ताल के एक कोने पर गौना था और दूसरे कोने पर दुरमी गांवइसलिए कुछ लोग इसे दुरमी ताल भी कहते थे. पर बाहर से आने वाले पर्यटकों के लिए यह बिरही ताल थाक्योंकि चमोलीबदरीनाथ मोटर मार्ग पर बने बिरही गांव से ही इस ताल तक आने का पैदल रास्ता शुरू होता था.

ताल के ऊपरी हिस्से में त्रिशूल पर्वत की शाखा कुंवारी पर्वत से निकलने वाली बिरही समेत अन्य छोटीबड़ी चार नदियों के पानी से ताल में पानी भरता रहता था. ताल के मुंह से निकलने वाले अतिरिक्त पानी की धारा फिर से बिरही नदी कहलाती थी. जो लगभग 18 किलोमीटर के बाद अलकनंदा में मिल जाती थी. सन् 1970 की जुलाई के तीसरे हफ्ते ने इस सारे दृश्य को एक ही क्षण में बदल कर रख दिया.

दुरमी गांव के प्रधानजी उस दिन को याद करते हैं – “तीन दिन से लगातार पानी बरस रहा था. पानी तो इन दिनों हमेशा गिरता हैपर उस दिन की हवा कुछ और थी. ताल के पिछले हिस्से से बड़ेबड़े पेड़ बहबह कर ताल के चारों ओर चक्कर काटने लगे थे. ताल में उठ रही लहरें उन्हें तिनकों की तरह यहां से वहांवहां से यहां फेंक रही थीं. देखतेदेखते सारा ताल पेड़ों से ढंक गया. अंधेरा हो चुका थाहम लोग अपनेअपने घरों में बंद हो गए. घबरा रहे थे कि आज कुछ अनहोनी हो कर रहेगी.” खबर भी करते तो किसे करतेजिला प्रशासन उनसे 22 किलोमीटर दूर था. घने अंधेरे ने इन गांव वाले को उस अनहोनी का चश्मदीद गवाह न बनने दिया. पर इनके कान तो सब सुन रहे थे.

प्रधानजी बताते हैं – “रात भर भयानक आवाजें आती रहीं फिर एक जोरदार गड़गड़ाहट हुई और फिर सब कुछ ठंढ़ा पड़ गया.” ताल के किनार की ऊंची चोटियों पर बसने वाले इन लोगों ने सुबह के उजाले में पाया कि गौना ताल फूट चुका हैचारों तरफ बड़ीबड़ी चट्टानों और हजारों पेड़ों का मलबाऔर रेतहीरेत पड़ी है.

ताल की पिछली तरफ से आने वाली नदियों के ऊपरी हिस्सों में जगहजगह भूस्खलन हुआ थाउसके साथ सैकड़ो पेड़ उखड़उखड़ कर नीचे चले आए थे. इस सारे मलबे को,टूट कर आने वाली बड़ीबड़ी चट्टानों को गौना ताल अपनी 300 फुट की गहराई में समाता गयासतह ऊंची होती गईऔर फिर लगातार ऊपर उठ रहे पानी ने ताल के मुंह पर रखी एक विशाल चट्टान को उखाड़ फेंका और देखते ही देखते सारा ताल खाली हो गया. घटना स्थल से केवल तीन सौ किलोमीटर नीचे हरिद्वार तक इसका असर पड़ा था.

गौना ताल ने एक बहुत बड़े प्रलय को अपनी गहराई में समो कर उसका छोटा सा अंश ही बाहर फेंका था. उसने सन् 1970 में अपने आप को मिटा कर उत्तराखंडतराई और दूर मैदान तक एक बड़े हिस्से को बचा लिया था. वह सारा मलबा उसके विशाल विस्तार और गहराई में न समाया होता तो सन् 70 की बाढ़ की तबाही के आकड़े कुछ और ही होते. लगता है गौना ताल का जन्म बीसवीं सदी के सभ्यों की मूर्खताओं से आने वाले विनाश को थाम लेने के लिए ही हुआ था.

ठीक आज की तरह ही सन् 1893 तक यहां गौना ताल नहीं था. उन दिनों भी यहां एक विशाल घाटी ही थी . सन् 1893 में घाटी के संकरे मुंह पर ऊपर से एक विशाल चट्टान गिर कर अड़ गई थी. घाटी की पिछली तरफ से आने वाली बिरही और उसकी सहायक नदियों का पानी मुंह पर अड़ी चट्टान के कारण धीरेधीरे गहरी घाटी में फैलने लगा. अंग्रेजों का जमाना थाप्रशासनिक क्षमता में वे सन् 1970 के प्रशासन से ज्यादा कुशल साबित हुए. उस समय जन्म से रहे गौना ताल के ऊपर बसे एक गांव में तारघर स्थापित किया और उसके माध्यम से ताल के जल स्तर की प्रगति पर नजर रखे रहे.

एक साल तक वे नदियां ताल में भरती रहीं. जलस्तर लगभग 100 गज ऊंचा उठ गया. तारघर ने खतरे का तार नीचे भेज दिया. बिरही और अलकनंदा के किनारे नीचे दूर तक खतरे की घंटी बज गई. ताल सन् 1894 में फूट पड़ापर सन् 1970 की तरह एकाएक नहीं. किनारे के गांव खाली करवा लिए गए थेप्रलय को झेलने की तैयारी थी. फूटने के बाद 400 गज का जल स्तर 300 फुट मात्र रह गया था. ताल सिर्फ फूटा थापर मिटा नहीं था. गोरे साहबों का संपर्क न सिर्फ ताल से बल्कि उसके आसपास की चोटियों पर बसे गांवों से भी बना रहा. उन दिनों एक अंग्रेज अधिकारी महीने में एक बार इस दुर्गम इलाके में आकर स्थानीय समस्याओं और झगड़ों को निपटाने के लिए एक कोर्ट लगाता था. विशाल ताल साहसी पर्यचकों को भी न्यौता देता था. ताल में नावें चलती थीं.

आजादी के बाद भी नावें चलती रहीं. सन् 1960 के बाद ताल से 22 किलोमीटर की दूरी में गुजरने वाली हरिद्वार बदरीनाथ मोटरसड़क बन जाने से पर्यटकों की संख्या भी बढ़ गई. ताल में नाव की जगह मोटर बोट ने ले ली. ताल में पानी भरने वाली नदियों के जलागम क्षेत्र कुंआरी पर्वत के जंगल भी सन् 1960 से 1970 के बीच में कटते रहे. ताल से प्रशासन का संपर्क सिर्फ पर्यटन के विकास के नाम पर कायम रहा. वह ताल के ईर्दगिर्द बसे 13 गांवों को धीरधीरे भूलता गया.

मुख्य मोटर सड़क से ताल तक पहुंचने के लिए (गांवों तक नहीं) 22 किलोमीटर लम्बी एक सड़क भी बनाई जाने लगी. सड़क अभी 12 किलोमीटर ही बन पाई थी कि सन् 1970 की जुलाई का वह तीसरा हफ्ता आ गया. ताल फूट जाने के बाद सड़क पूरी करने की जरूरत ही नहीं समझी गई. सन् 1894 में गौना ताल के फटने की चेतावनी तार से भेजी थीपर सन् 1970 में ताल फटने की ही खबर लग गई.

बहरहालअब यहां गौनाताल नहीं है. पर उसमें पड़ी बड़ीबड़ी चट्टानों पर पर्यावरण का एक स्थायी लेकिन अदृश्य शिलालेख खुदा हुआ है. इस क्षेत्र में चारों तरफ बिखरी ये चट्टानें हमें बताना चाहती हैं कि हिमालय मेंखासकर नदियों के पनढ़ालों में खड़े जंगलों का हमारे पर्यावरण पर क्या असर पड़ता है. ऐसे हिमालय मेंदेवभूमि में हम कितना धर्म करें,कितना अधर्म होने देंकितना विकास करेंकितनी बिजली बनाएं– यह सब इन बड़ीबड़ी चट्टानोंशिलाओं पर लिखा हुआ हैखुदा हुआ है.


क्या हम इस शिलालेख को पढ़ने के लिए तैयार हैं ?

माँ / गुलज़ार

तुझे पहचानूंगा कैसे?
तुझे देखा ही नहीं
ढूँढा करता हूं तुम्हें
अपने चेहरे में ही कहीं
लोग कहते हैं
मेरी आँखें मेरी माँ सी हैं
यूं तो लबरेज़ हैं पानी से
मगर प्यासी हैं
कान में छेद है
पैदायशी आया होगा
तूने मन्नत के लिये
कान छिदाया होगा
सामने दाँतों का वक़्फा है
तेरे भी होगा
एक चक्कर
तेरे पाँव के तले भी होगा
जाने किस जल्दी में थी
जन्म दिया, दौड़ गयी
क्या खुदा देख लिया था
कि मुझे छोड़ गयी
मेल के देखता हूं
मिल ही जाए तुझसी कहीं
तेरे बिन ओपरी लगती है
मुझे सारी जमीं
तुझे पहचानूंगा कैसे?
तुझे देखा ही नहीं

Sunday, December 18, 2016

उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती

उन लोगों को कवितायेँ समझ नहीं आती
जिन्होंने जीने से पहले
जीने की तैयारियां की.
जिन्होंने पांव रखने से पहले
नापे अपने पांव
नापी ज़मीन पे पड़ी धूल.
जिन्होंने बच्चे किये पैदा
और होते ही तय कर दिए उनके भविष्य.
जिन्होंने पहली बार ही चूमी अपनी प्रेमिका
और देख लिए ज़िन्दगी भर के सपने.
उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती.

उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती
जिनकी रातों में चैन की नींद है
जिनके घर के गुसलखाने में
पानी दिनभर आता है
जिनको बचपन से सभ्यता के
भारीभरकम पाठ पढाये गए.
जिनकी बीवियां घर में घुसे घुसे
रोटियां बना ही मनोरंजित हो जाती हैं.
उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती.

उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती
जो करियर के नाम बन गए पंसारी
जिन्हें जीवन ने बना दिया व्यापारी
जो ऑफिस जा रहे हैं, आ रहे हैं
खुश हैं कि खा रहे हैं.
उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती

उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती
जिनकी कॉफीटेबल पे ही
हो जाती हैं सरकारी योजनाएं अच्छी-बुरी.
जिनके घर में चलती हैं बासी ख़बरें
या जोर-शोर बहसों वाले टीवी चैनल
जिनको नहीं शालीनता की आदत.
उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती.

जिन्हें फिल्मों का मतलब है
एक लड़का-एक लड़की, दो घूंसे और विलन।
किताबें जिन्होंने रद्दी में बेचीं
अख़बार के नाम 'डेल्ही टाइम्स' ही पढ़ा
उरेजों-उभारों से बाहर नहीं निकली स्त्री जिनके अंत:करण से.
उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती.

जिनकी बेटियां
पिता से नहीं मिला पाईं अपने प्रेमी
जिनके बेटे
छुपा गए सारे सच.
जिन्होनें बेटों को
कभी नहीं सिखाये इश्क़ के गुर
और जिनके पिता मरे वृद्धाश्रम में.
उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती.

जिन्हें नशा नहीं हुआ कभी
इश्क़-मुश्क़, आशिक़ी-मौसिक़ी का.
जिनके टूटे नहीं दिल,
घर थे जिनके बिल.
जो कभी न अनिद्रा के शिकार हुए.
उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती

जो सामाजिक संरचना में व्यवस्थित हैं
और छटपटाहट अंदर नहीं हुई जिनके
उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती,
जिनके अनुसार पटरी पर है ज़िन्दगी उनकी
उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती.

Thursday, December 15, 2016

नौजवान ख़ातून से / मजाज़ लखनवी

हिजाब ऐ फ़ितनापरवर अब उठा लेती तो अच्छा था
खुद अपने हुस्न को परदा बना लेती तो अच्छा था

तेरी नीची नज़र खुद तेरी अस्मत की मुहाफ़िज़ है
तू इस नश्तर की तेज़ी आजमा लेती तो अच्छा था

तेरी चीने ज़बी ख़ुद इक सज़ा कानूने-फ़ितरत में
इसी शमशीर से कारे-सज़ा लेती तो अच्छा था

ये तेरा जर्द रुख, ये खुश्क लब, ये वहम, ये वहशत
तू अपने सर से ये बादल हटा लेती तो अच्छा था

दिले मजरूह को मजरूहतर करने से क्या हासिल
तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था

तेरे माथे का टीका मर्द की किस्मोत का तारा है
अगर तू साजे बेदारी उठा लेती तो अच्छा था

तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।

Tuesday, December 13, 2016

कैसे पूरा होगा सबको घर का सपना

मानव सभ्यता की विकास यात्रा में जब लोगों ने एक जगह बसना शुरू किया तो घर एक अहम बुनियादी जरूरत के रूप में सामने आया। समय के प्रवाह में कई उतार-चढ़ाव आए, लेकिन एक अदद मकान आज भी लोगों के पहले सपने में शामिल है। आजादी के बाद से ही रोटी, कपड़ा और मकान हमारी प्राथमिकता में सबसे ऊपर रहे हैं। यह बात और है कि ये प्राथमिकताएं कभी पूरी नहीं हो पार्इं। कभी धन की कमी, कभी राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव, कभी योजनाओं का ठीक से क्रियान्वयन न हो पाना तो कभी लाभार्थियों की पहचान में गड़बड़ियां। सिर पर छत का सपना विशाल आबादी खासकर निचले तबके के लिए सपना ही बना रहा।
अब नरेंद्र मोदी सरकार ने ‘सबके लिए आवास’ योजना की घोषणा की है। तय किया गया है कि 2022 तक सभी भारतीयों को घर मुहैया करा दिया जाएगा। सरकार का कहना है कि उसने पहले की सरकार की इंदिरा आवास योजना की विफलता से सबक सीखा है और नई योजना में पुरानी खामियों को दूर कर दिया गया है। नई योजना शहरी और ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों में एक साथ काम करेगी। सरकार ने आगामी तीन साल में तकरीबन एक करोड़ घर बनाने का लक्ष्य रखा है। क्या इस रफ्तार से लक्ष्य को पूरा किया जा सकता है? देश भर में घरों की मांग और आपूर्ति का अंदाजा लगाने के लिए सरकार ने एक समिति का गठन किया था। समिति के मुताबिक शहरों में लगभग दो करोड़ घरों की कमी है और ग्रामीण इलाकों में इसके दोगुने से थोड़ा ज्यादा यानी पांच करोड़ के आसपास घरों की कमी है। सरकार की योजना है कि नरम शुरुआत करके बाद के सालों में तेजी से घरों का निर्माण किया जाए। हालांकि इस राह में कई मुश्किलें भी हैं। पहला, बहुत-से जानकारों ने सरकार के आंकड़े पर सवाल उठाया है। 2011 की जनसंख्या के आंकड़ों के आधार पर किए गए नमूना सर्वेक्षणों से भारतीय सांख्यिकीय संस्थान के शोधकर्ताओं का कहना है कि देश में घरों की वास्तविक मांग सरकारी आंकड़े से तिगुनी यानी इक्कीस करोड़ से ज्यादा है।
केपीएमजी जैसी परामर्शदाता संस्थाओं ने भी देश में घरों की मांग सरकारी आंकड़े से ज्यादा बताई है। ऐसे में सरकार के अभियान से जरूरतमंद लोगों के छूट जाने का खतरा बना हुआ है। दूसरा सवाल योजना के वित्तपोषण से जुड़ा है। केंद्र सरकार ने तीन साल के लिए तकरीबन अस्सी हजार करोड़ रुपए की राशि मंजूर की है। इसमें से लगभग बीस हजार करोड़ रुपए नाबार्ड (राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक) से कर्ज लेकर जुटाए जाएंगे। किसी घर की निर्माण लागत में केंद्र सरकार का हिस्सा साठ फीसद होगा और बाकी चालीस फीसद योगदान राज्य सरकारों को करना होगा। पहले केंद्र और राज्य सरकारों के बीच यह अनुपात अस्सी और बीस फीसद का था। सही बात है कि राज्यों को चौदहवेंं वित्त आयोग से ज्यादा रकम मिलेगी, फिर भी राज्यों की माली हालत को देखते हुए कहा जा सकता है कि चालीस फीसद का बोझ कुछ ज्यादा ही होगा।
खासकर गरीब राज्यों में वित्तीय मोर्चे पर लेटलतीफ हो सकती है। बहुधा देखा गया कि लाभार्थियों को पहली किस्त मिल जाती है लेकिन समय पर दूसरी किस्त नहीं मिल पाती है। जब तक दूसरी किस्त मिलती है तब तक पहले चरण में किए गए निर्माण-कार्य की हालत खस्ता हो जाती है। मकान की निर्माण-लागत में इजाफा हो जाता है और लाभार्थी तय मानक का घर नहीं बनवा पाता है। यह भी सच है कि घरविहीन लोगों की सबसे बड़ी तादाद भी गरीब राज्यों में है। बेहतर होता कि केंद्र और राज्य सरकारें पहले इस योजना की प्रस्तावित रकम को किसी कोष में इकट्ठा कर लेतीं और वहां से सीधे लाभार्थियों के बैंक खाते में हस्तांतरित किया जाता।
तीसरी अहम बात। आवास संबंधी पुरानी योजनाओं की असफलता का एक बड़ा कारण था कि लाभार्थियों की पहचान पारदर्शी और निष्पक्ष तरीके से नहीं की गई थी। जरूरतमंदों के नाम छूट गए, वहीं दबंग लोग योजना का नाजायज फायदा उठाने में कामयाब रहे। सरकार का कहना है कि इस बार 2011 की आर्थिक-सामाजिक जनगणना के आंकड़ों से लाभार्थियों की पहचान की जाएगी। लेकिन इस काम को अंजाम देने वाला सरकारी अमला वही है और उसकी कार्यशैली भी वैसी ही है। ऐसे में दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि इस दफा लाभार्थियों की पहचान निष्पक्ष तरीके से ही होगी और वास्तविक हकदार अपने हक से वंचित नहीं होंगे।
चौथी बात है, घर की समस्या के प्रति समग्र सोच का अभाव। नई योजना (और पुरानी योजनाएं भी) केवल एक चीज पर जोर देती है और वह है चयनित लाभार्थियों के लिए घरों का निर्माण। सरकारी विभागों को लक्ष्य सौंप दिया जाता है और अधिकारी येन-केन-प्रकारेण उसे पूरा करने में जुट जाते हैं। अगर हमें वाकई हर भारतीय के सिर पर छत मुहैया करवानी है तो इस समस्या के सभी पहलुओं पर विचार करते हुए योजना बनानी होगी। मसलन, ग्रामीण और शहरी इलाकों में घरविहीन लोगों में बड़ी तादाद उन लोगों की है जिनके पास घर बनाने के लिए जमीन ही नहीं है। यह योजना घर बनाने के लिए आर्थिक मदद उपलब्ध कराती है, जमीन का इसमें कोई प्रावधान नहीं है। जाहिर है, भूमिहीन लोग इसका फायदा नहीं उठा पाएंगे।
ऐसे में सबको घर मुहैया कराने का सपना कैसे पूरा होगा? देश में बड़ी तादाद में ऐसे लोग भी हैं जो सरकारी तौर पर घरविहीन की श्रेणी में नहीं आते हैं, पर उन्हें घर की जरूरत है। उदाहरण के तौर पर, बीपीएल रेखा के थोड़ा ऊपर झूल रहे निम्न मध्यवर्गीय श्रेणी के लोग या पुराने एक कमरे के दड़बेनुमा घर में बड़े परिवार/संयुक्त परिवार के साथ घिसट रहे लोग। ऐसे लोगों को अगर सरकार सीधे मदद नहीं भी देना चाहे तो राष्ट्रीय आवास बैंक या नाबार्ड की सहायता से इनको रियायती दरों पर आवास ऋण उपलब्ध कराने की कोशिश होनी चाहिए। तब ये लोग भी अपनी न्यूनतम जरूरतों के पूरा करने लायक सुरक्षित घर बना सकेंगे और सम्मानजनक जीवनयापन कर सकेंगे।
शहरी गरीबों के लिए घर और रोजी-रोटी का सवाल आपस में नाभिनाल की तरह गुंथा हुआ है। कम आमदनी के कारण ये लोग यातायात का खर्च उठा पाने में सक्षम नहीं होते हैं, लिहाजा अक्सर कार्यस्थल के पास ही टिन-टप्पर में गुजारा करते हैं। इन लोगों के लिए घर की समस्या सुलझाते समय इस बात का खयाल रखा जाना चाहिए कि कार्यस्थलों के पास घर बनाए जाएं या घरों के पास आजीविका के अवसर उपलब्ध कराए जाएं। पढ़ने-तैयारी करने वाले विद्यार्थियों, नौकरीपेशा और अकेले रहने वाले लोगों के हितों को ध्यान में रख कर पारदर्शी किराया योजना बनाई जाए, जिसका विनियमन सरकारी एजेंसियां सुनिश्चित करें। यह जगजाहिर है कि रीयल एस्टेट के कारोबार में बड़े पैमाने पर काला धन लगा है, जिसके चलते घरों के दामों में गैरजरूरी उछाल रहता है। ऊंची कीमतों के कारण कम आमदनी वाले लोग घर नहीं खरीद पाते हैं, हालांकि जाहिर तौर पर ऐसे लोग घरविहीन नहीं हैं। ऐसे लोग किफायती दामों पर घर खरीद सकें, इसके लिए रीयल एस्टेट में काले धन के प्रवाह पर भी अंकुश लगाना होगा। अगर सरकार हर भारतीय को घर मुहैया कराने के अपने वादे को लेकर गंभीर है तो केवल घर-निर्माण पर जोर देने के बजाय एक व्यापक आवास नीति बनाए जाए जिसमें आवास ऋण, किराया, किफायती घर डिजाइन जैसे तमाम पहलू शामिल हों। एक समग्र दृष्टि अपनाकर ही इस सपने को पूरा किया जा सकता है।
http://www.jansatta.com/politics/how-will-fulfil-everyones-dream-house/192536/

ये नज़्म


उन सारी प्रेमिकाओं के नाम
जो आईं कोई करार ले,
गईं कोई दरार दे.
जो थीं तो
वादे थे, सपने थे, इरादे थे.
दिन थे, रात थी, नींद थी.
मोबाइल में सस्ते कॉल रेट के
प्लान हुआ करते थे,
घर में महक वाले
डेयोडेरेन्ट रहते थे.

अपनी कमाई से गिफ्ट देने
जिनके लिए ट्यूशन लिए मैंने.
दूसरे शहर रही जो
तो चाँद साथ तका करते थे
उस दौर में जिनके लिए हम
पैसों की किल्लत में रहा करते थे,
शहर शहर फिरा करते थे.

जो गईं तो इस तरह कुछ-
'वालिद नहीं माने कभी
हमारे सपने अलग अलग के बहाने कहीं,
साथ एक छत के नीचे रहे
फिर भी हमको वो जाने नहीं.'

दो तालियां,
तीन गलियां,
तमाम बहानों के नाम.
ये नज़्म उन सारी प्रेमिकाओं के नाम.

कर मशक्कत
हमने-तुमने सपने हज़ार बुने,
घर बनाया, सज़्ज़ा की
फिर इश्क़ में तन्हा तार चुने!

चिर यौवन न ठहरा है, न ठहरेगा
दिल जैसे धड़का है, न धड़केगा
तुम जाती थी, भले चली जाती
बस चिर-मुस्कान दिखलाती जाती
शादी में बुलाती जाती.

तेरे दूल्हे से मैं दो बातें कर लेता
गुस्सा, प्यार, ऑन-ऑफ मूड,
कब तू काइंड, कब तू रूड,
ये सब तो बतलाता जाता,
तेरा आने वाला कल
थोड़ा इजी बना जाता.

जो गईं छोड़ कर
नहीं बुलाईं ब्याह पर
घर- बाहर जिनके लिए हुए बदनाम
ये नज़्म,
उन सारी प्रेमिकाओं के नाम.

जो गईं तो गईं
कितनी रातें छोड़ गईं,
कितनी यादें छोड़ गईं

जिनके होंठों का स्वाद जुबां पर
अब भी कभी कभी आ जाता है
जिनकी सिसकी का अहसास
कभी कभी बहका जाता है.
जिनकी ऑंखें चूमे बगैर
रात न कभी बिताई थी
जिनकी शॉपिंग फ़िज़ूल की खर्चाई थी.

होंठों के नाम, आँखों के नाम
बदन पे चिपके बोसों के नाम.
ये नज़्म,
ये आखिरी नज़्म
उन सारी प्रेमिकाओं के नाम.

Sunday, December 11, 2016

जलवायु परिवर्तन पर जुबानी जमाखर्च

संयुक्त राष्ट्र की बैठक में करीब दो सौ देशों ने एक स्वर में मराकेश कार्य-घोषणा पर अपनी मुहर लगाई है और यह संकल्प भी पारित किया कि ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए युद्धस्तर पर काम करना होगा। सम्मेलन ने पेरिस समझौते, इसके तेजी से क्रियान्वयन, महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों, समावेशी प्रकृति और समान व साझी लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियों और अपनी-अपनी क्षमताओं के साथ जलवायु परिवर्तन से होने वाले जोखिम से निपटने के लिए कार्रवाई करने की रणनीति को अंतिम रूप दिया है। संयुक्त राष्ट्र की पहल पर हुए सम्मेलन ने वर्ष 2018 तक पेरिस जलवायु करार को लागू करने की कार्ययोजना को पारित कर एकजुटता दिखाने की कोशिश की है। गौरतलब है कि यह ऐतिहासिक पहल उस वक्त की गई है जब अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस करार से अमेरिका के अलग हो जाने का इरादा जताया है।  जलवायु शिखर सम्मेलन में इस जोर दिया गया कि विकसित देश क्योटो प्रोटोकाल में तय अपनी-अपनी प्रतिबद्धताओं के अनुरूप उत्सर्जन कम करने के लिए जल्द और जरूरी कदम उठाएं। क्योटो प्रोटोकाल वर्ष 2020 में समाप्त होगा। मराकेश सम्मेलन का इरादा तो निश्चित रूप से नेक है लेकिन कई अहम मुद््दों पर कामयाबी न मिलना दुखद है। मराकेश सम्मेलन में कृषि, वित्त अनुकूलन व वर्ष 2020 से पहले के सुझावों सहित कई महत्त्वपूर्ण मुद््दों पर ज्यादा चर्चा नहीं हो पाई। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पर्याप्त वित्तीय मदद तक पहुंच- वर्ष 2020 से पहले और वर्ष 2020 के बाद- दोनों अवधियों में विकासशील देशों के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय बन गई है। यह बात भारत को भी कुरेद रही है।
दरअसल, नई वैश्विक ऊर्जा रणनीति के बगैर, जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कार्बन उत्सर्जन बढ़ता ही रहेगा और वैज्ञानिकों की मानें तो इसका प्रभाव दस हजार वर्षों तक रहेगा। मराकेश जलवायु सम्मेलन में शोधकर्ताओं की इस नई चेतावनी पर जरूर चर्चा हुई जिसमें कहा गया है कि बढ़ते वैश्विक ताप, बर्फ की चादरों और ग्लेशियरों का पिघलना और समुद्री जलस्तर का बढ़ना, जलवायु परिवर्तन के उन परिणामों में शामिल है जिससे कि आखिरकार समुद्रतटीय क्षेत्र जलमग्न हो जाएंगे। समुद्रतटीय क्षेत्रों में एक करोड़ तीन लाख लोग रह रहे हैं। मराकेश जलवायु सम्मेलन में ‘सोलर अलायंस’ पर हस्ताक्षर हो गए। लेकिन बड़े देशों की उदासीनता से कई सवाल भी अब खड़े हो गए हैं। सोलर अलायंस का मकसद सौर ऊर्जा को बढ़ावा देना और इसका उत्पादन बढ़ा कर इसकी कीमत कम करना है। जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे को देखते हुए इस गठजोड़ या करार की उपयोगिता जाहिर है। लेकिन विशेषज्ञों की बातों पर गौर किया जाए तो इस अलायंस को लेकर सबसे बड़ी चिंता धन और तकनीक को लेकर बनी हुई है। असल में सोलर अलायंस को लेकर अब तक फंड की कोई रूपरेखा भी तैयार नहीं हुई है। भारतीय विशेषज्ञों का मानना है कि जब तक बड़े विकासशील देश इसका हिस्सा नहीं बनेंगे तब तक फंड की दिक्कत बनी रहेगी। यहां यह बताना भी जरूरी है कि बहुत-से गरीब देश इस अलायंस में केवल मदद की उम्मीद से शामिल हुए हैं। भारत का भी इस बारे में स्पष्ट पक्ष है कि नई तकनीक और नए अनुसंधान की जरूरत पड़ेगी और इसके लिए पर्याप्त पैसा चाहिए। यह काम अकेले भारत के लिए कतई संभव नहीं है; वह तो अपनी ही समस्याओं से जूझ रहा है। धन के अभाव में कई बड़े-बड़े संस्थान रोजाना ही अपना रोना रोते रहते हैं।
लिहाजा, धरती को गर्म होने से रोकने की मुहिम में धन की कमी आड़े आ सकती है। पेरिस समझौते के तहत एक हरित जलवायु कोष बनना है, जिससे हर साल गरीब और विकासशील देशों को करीब सौ अरब डॉलर देने का प्रस्ताव है। सबसे बड़ी दिक्कत यह आ सकती है कि कहीं अमेरिका के नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप किसी भी तरह का अंशदान करने से इनकार न कर दें। अमेरिका को वर्ष 2020 तक इस महत्त्वपूर्ण फंड में तीन अरब डॉलर देना है। अगर वह नहीं देता है तो इस बड़ी पहल को जोरदार झटका लग सकता है।
दो सबसे महत्त्वपूर्ण बातों पर पूरे विश्व को ध्यान देना होगा। एक तो यानों के उड़ान द्वारा होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना, और दूसरा, मांट्रियल प्रोटोकॉल में संशोधन, जिसमें शक्तिशली ग्रीनहाउस को हटाना विशेष रूप से शामिल है। अहम बात यह है कि पेरिस समझौते के महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य- 1.5 डिग्री तापमान की सीमा- को दरकिनार कर दिया गया है। इसके संपूर्ण क्रियान्वयन को 2.7 डिग्री तापमान की वृद्धि से जोड़ा गया है। सवाल यह है कि अब कोई भी देश 1.5 डिग्री तापमान की सीमा के लक्ष्य से कैसे आगे बढ़ सकता है। वर्ष 2018 में जब इसकी समीक्षा होगी तब वास्तविक स्थिति का आकलन संभव है। वर्ष 2018 में ही पेरिस समझौते की भी समीक्षा होनी है। लेकिन पेरिस समझौते के क्रियान्वयन की जानकारी के लिए अब तक कोई एकल व्यवस्था नहीं बन पाई है। जबकि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को पूरी दुनिया लगातार बढ़ते तापमान, समुद्र जलस्तर में होती वृद्धि, सूखा, बाढ़, ग्लेशियरों के दूर जाने, हिमखंडों के पिघलने के रूप में देख रही है।
विकासशील देशों को उत्सर्जन कम करने व जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को क्षीण करने के प्रयासों के लिए आवश्यक धन उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। वर्ष 2009 में कोपेनहेगन सम्मेलन में कहा गया था कि अमीर देश प्रत्येक वर्ष 2020 तक दस करोड़ डॉलर इस मकसद के लिए देंगे। इसे पूरे दशक भर आर्थिक सहायता के लिए उपयोग किया जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया।मराकेश सम्मलेन में भी यही बात कही गई कि अमीर देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अधिक प्रयास करने चाहिए और उन्हें गरीब देशों की मदद करनी चाहिए, क्योंकि सबसे ज्यादा ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन वे ही करते आए हैं। मराकेश जलवायु सम्मेलन के दौरान ही विश्व मौसम संगठन की रिपोर्ट भी आई, जिसमें कहा गया है कि रूस और भारत में रिकार्ड गर्मी का उदाहरण दिया गया है। राजस्थान में इस साल 19 मई को 52 डिग्री तापमान दर्ज किया गया। विश्व मौसम संगठन की रिपोर्ट में यह दर्ज भी है। बढ़ते तापमान के कई नए रिकार्ड बने हैं।
वैज्ञानिकों का कहना है कि धरती का तापमान 1.2 डिग्री बढ़ चुका है। उनके मुताबिक 2 डिग्री तापमान से अधिक बढ़ना विनाशकारी हो सकता है। मराकेश में चर्चा के दौरान कहा गया कि भारत में प्रतिव्यक्ति बिजली उपभोग एक हजार किलोवाट हावर वार्षिक से बहुत कम है, जबकि अमेरिका व यूरोप में विद्युत उपयोग बारह हजार-तेरह हजार किलोवाट हावर है। सबसे खास बात जलवायु सम्मेलन में इस बार यह रही कि ‘कांन्फें्रस आॅफ पार्टीज’ (सीओपी-22) में भारत की ओर से जेबी पंत इंस्टीट्यूट आॅफ हिमालयन एनवायरमेंट एंड डेवलपमेंट की ओर से पर्वतीय देशों के समक्ष हिमालय की अहमियत और जलवायु परिवर्तन का ब्योरा पेश किया गया। इस तरह पर्वतीय देशों के वैश्विक एजेंडे में पहली बार हिमालय को शामिल किया गया है। वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमालय के अंतरराष्ट्रीय एजेंडे में शामिल हो जाने से जलवायु परिवर्तन को समझने व खास नीति बनाने में काफी मदद पहुंचेगी। जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर पहाड़ों पर पड़ रहा है। कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए पूरी दुनिया एक मंच पर आ गई है, लेकिन वायुमंडल में पहले से मौजूद कार्बन को कैसे कम किया जाए, इस समस्या का सटीक उपाय न ही पेरिस और न ही मराकेश सम्मेलन में देखने को मिला।

भाषाओं का विस्थापन

बीते चार दशकों के दौरान भारत के विभिन्न हिस्सों की करीब पांच सौ भाषाओं या बोलियों में से लगभग तीन सौ विलुप्त हो चुकी हैं और 190 से ज्यादा आखिरी सांसें ले रही हैं। लेकिन हैरान करने वाली बात यह है कि भाषा-संपदा का इतना बड़ा नुकसान होने के बाद भी कहीं कोई हलचल नहीं है। यह शायद इसलिए कि इनमें से ज्यादातर जनजातियों की मातृभाषाएं थीं। राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, उत्तराखंड और गुजरात जैसे प्रदेश अपनी सांस्कृतिक विविधता और लोकसंपदा के कारण पहचाने जाते रहे हैं। इनका अपना भरा-पूरा लोक संसार रहा है। लेकिन अब इनमें से अधिकांश सांस्कृतिक संपदा खत्म होने के कगार पर है। कारण यह कि जिस भाषा में यह लोक संसार रचा-बसा है, वही भाषा-बोली खत्म होने जा रही है।
किसी भी समाज की भाषा उस अंचल की रीढ़ होती है। उसके खत्म होने का सवाल सिर्फ भाषाई नहीं है। भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का साधन नहीं होती, बल्कि उसमें इतिहास और मानव विकास-क्रम के कई रहस्य छिपे होते हैं। बोली के नष्ट होने के साथ ही जनजातीय संस्कृति, तकनीक और उसमें अर्जित बेशकीमती परंपरागत ज्ञान भी तहस-नहस हो जाता है। बाजार, रोजगार और शिक्षा जैसी वजहों से जनजातीय बोलियों में बाहर के शब्द तो प्रचलित हो रहे हैं, लेकिन उनकी अपनी मातृभाषा के स्थानिक शब्द प्रचलन से बाहर हो रहे हैं। दुखद है कि हजारों सालों से बनी एक भाषा, एक विरासत, उसके शब्द, उसकी अभिव्यक्ति, खेती, जंगल, इलाज और उनसे जुड़ी तकनीकों का समृद्ध ज्ञान, उनके मुहावरे, लोकगीत, लोक कथाएं एक झटके में ही खत्म होने लगी हैं।
यूनेस्को की ‘इंटरेक्टिव एटलस’ की रिपोर्ट बताती है कि अपनी भाषाओं को भूलने में भारत अव्वल नंबर पर है। दूसरे नंबर पर अमेरिका (192 भाषाएं) और तीसरे नंबर पर इंडोनेशिया (147 भाषाएं) है। दुनिया की कुल छह हजार भाषाओं में से ढाई हजार पर आज विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। यूनेस्को के ‘एटलस आफ द वर्ल्ड्स लैंग्वेजेस इन डेंजर’ के मुताबिक अकेले उत्तराखंड में गढ़वाली, कुमाऊंनी और रोंगपो सहित दस बोलियां खतरे में हैं। पिथौरागढ़ की दो बोलियां तोल्चा व रंग्कस तो विलुप्त भी हो चुकी हैं। वहीं उत्तरकाशी के बंगाण क्षेत्र की बंगाणी बोली को अब मात्र बारह हजार लोग बोलते हैं। पिथौरागढ़ की दारमा और ब्यांसी, उत्तरकाशी की जाड और देहरादून की जौनसारी बोलियां खत्म होने के कगार पर हैं। दारमा को 1761, ब्यांसी को 1734, जाड को 2000 और जौनसारी को 1,14,733 लोग ही बोलते-समझते हैं।
एटलस के मुताबिक 20,79,500 लोग गढ़वाली, 20,03,783 लोग कुमाऊंनी और 8000 लोग रोंगपो बोली के क्षेत्र में रहते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि यहां रहने वाले सभी लोग ये बोलियां जानते ही हों। मध्यप्रदेश में भी करीब दर्जन भर बोलियां विलुप्ति के मुहाने पर पहुंच चुकी हैं। प्रदेश की कुल आबादी का 35.94 फीसद अब भी आंचलिक बोलियों पर ही निर्भर है, लेकिन इन आदिवासी बोलियों पर बड़ा संकट मंडरा रहा है। भीली, भिलाली, बारेली, पटेलिया, कोरकू, मवासी निहाली, बैगानी, भटियारी, सहरिया, कोलिहारी, गौंडी और ओझियानी जैसी जनजातीय बोलियां यहां सदियों से बोली जाती रही हैं, लेकिन अब ये बीते दिनों की कहानी बनने के कगार पर हैं। प्रदेश के एक बड़े हिस्से में- करीब बारह जिलों में- बोली जाने वाली मालवी भी अब दम तोड़ने लगी है। मध्यप्रदेश के 8.58 फीसद (51,75,793) लोगों की मातृभाषा मालवी है।
इसी तरह राजस्थान में आधा दर्जन बोलियां यूनेस्को की लुप्तप्राय बोलियों की सूची में शामिल हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार देश के सवा अरब लोग 1652 मातृभाषाओं में बात करते हैं। इसमें सबसे ज्यादा 42,20,48,642 लोग (41.03 फीसद) हिंदी भाषी हैं, राजस्थानी बोलने वाले 1,83,55,613 (1.78 फीसद) लोग हैं। मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र के 28,672 वर्ग मील के बड़े क्षेत्र में भील रहते हैं, पर भीली बोलने वाले 95,82,957 लोग (0.93 फीसद) और संथाली बोलने वाले तो मात्र 64,69,600 (0..63 फीसदी) हैं। देश में लगभग साढ़े पांच सौ जनजातियां निवास करती हैं जिनकी अपनी-अपनी बोलियां भी हैं। लेकिन इनमें से कई बोलियों को बोलने वालों की तादाद अब घट कर हजारों में सिमट चुकी है। जनजातीय बोलियों को लिपिबद्ध किए जाने की अब तक कहीं कोई गंभीर कोशिश नहीं हुई है। इन्होंने अपने वाचिक स्वरूप में ही हजारों सालों का सफर तय किया है।
कई जानकारों का मानना है कि जब तक इन बोलियों या भाषाओं को छात्रों के पाठ्यक्रम से नहीं जोड़ा जाता, तब तक इन्हें आगे बढ़ाने की बात बेमानी साबित होगी। खासतौर पर प्राथमिक शिक्षा में यह बहुत जरूरी है। प्राथमिक शिक्षा हिंदी और अंग्रेजी तक सिमट गई है। इस कारण बच्चे अपनी स्थानीय बोलियों से लगातार कटते जा रहे हैं और अपनी बोलियों को लेकर उनके मन में हीनभावना भी आने लगी है। यदि समय रहते इन बोलियों के संरक्षण के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जाते तो जल्द ही ये पूरी तरह से विलुप्त हो जाएंगी।
यह सिर्फ एक बोली या भाषा की नहीं, मानव समाज की कई अमूल्य विरासतों की भी विलुप्ति होगी। बीते तीस-चालीस सालों में एक बड़ी आबादी की मातृभाषा गुम हो चुकी है।
भूमंडलीकरण के कारण दुनिया भर में इस वक्त जिंदा रहने वाली भाषाओं में चीनी, अंग्रेजी, स्पेनिश, जापानी, रूसी, बांग्ला और हिंदी सहित कुल सात भाषाओं का राज है। दो अरब पचास करोड़ से ज्यादा लोग ये भाषाएं बोलते हैं। इनमें से अंगरेजी का प्रभुत्व सर्वाधिक है और वह वैश्विक भाषा के रूप में स्वीकार कर ली गई है। हालांकि भाषाविज्ञानी इसे खतरनाक रुझान मानते हैं। क्योंकि चीन और अर्जेंटीना ऐसे देश हैं जहां भाषा की विविधता खत्म हो चुकी है। इसकी वजह वहां सरकारी स्तर पर एक ही भाषा का चुनाव रहा। यह हर्ष की बात है कि हिंदी भी जिंदा भाषाओं में शामिल है। हिंदी ढेरों चुनौतियों से निपटती, आज इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में पहुंची है। वह इस समय भले यूनेस्को की सुरक्षित भाषाओं वाली श्रेणी में आती हो, लेकिन महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या इस सदी के अंत तक हिंदी की यही हैसियत बनी रहेगी? या वह भी इक्कीसवीं सदी के आखिरी चरण में यूनेस्को द्वारा लुप्त भाषा की श्रेणी में रखी जाएगी?
असल में यह सब भूमंडलीकरण का असर है। वर्तमान पीढ़ी के पास कोई एक समृद्ध भाषा नहीं है। बहुत सारी मातृभाषाएं व्यवहार में नहीं बची हैं। साढ़े छह लाख गांवों के देश का विकास अंग्रेजी थोपने से संभव नहीं है। कितनी अजीब बात है कि विश्वगुरु बनने का अभिलाषी यह देश संयुक्त राष्ट्र में तो हिंदी का परचम फहराना चाहता है लेकिन अपनी ही धरती पर उसे राजकाज की भाषा के रूप में नहीं अपनाना चाहता, न ही उसे आम जनता की रोजी-रोटी की भाषा बनने देना चाहता है। जबकि सबसे ज्यादा बोली जाने वाली बीस में से छह भाषाएं हमारे देश में हैं। ये हैं- हिंदी, बांग्ला, तेलुगू, मराठी, तमिल और पंजाबी। वर्तमान समय में देश में अपनी भाषाओं की जो भी स्थिति है, उसका कारण ये मानसिक गुलामी से ग्रसित लोग हैं। मानसिक गुलामी को अवश्यंभावी बता कर लोगों को दिग्भ्रमित कर रहे हैं। पूरी दुनिया में चीनी भाषा का जितना सम्मान है, उतना किसी भी भारतीय भाषा का नहीं है। उसकी वजह सिर्फ हम हैं। भलें हम ग्लोबल युग में रहते हैं। लेकिन भाषाओं का इतिहास तो सत्तर हजार साल पुराना है जबकि भाषाएं लिखने का इतिहास सिर्फ चार हजार साल पुराना है। इसलिए ऐसी भाषाओं के लिए यह संस्कृति का ह्रास है। खासकर जो भाषाएं लिखी ही नहीं गर्इं, जब वे नष्ट होती हैं तो यह बहुत बड़ा नुकसान होता है।
यह सांस्कृतिक नुकसान तो है ही, आर्थिक नुकसान भी है। भाषा आर्थिक पूंजी भी होती है, क्योंकि आज की सभी तकनीक भाषा पर आधारित तकनीक हैं। चाहे पहले की रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान या इंजीनियरिंग से जुड़ी तकनीक हो या आज के दौर का यूनिवर्सल अनुवाद, मोबाइल तकनीक, सभी भाषा से जुड़ी हैं। ऐसे में भाषाओं का लुप्त होना एक आर्थिक नुकसान भी है। यही वजह है कि भाषाविद भाषाओं के लुप्त होने को मनुष्य की मृत्यु के समान मानते हैं। भाषाशास्त्री डेविड क्रिस्टल अपनी पुस्तक ‘लैंग्वेज डेथ’ में कहते हैं, भाषा की मृत्यु और मनुष्य की मृत्यु एक-सी घटना है, क्योंकि दोनों का ही अस्तित्व एक-दूसरे के बिना असंभव है।
एक भाषा की मौत का अर्थ है उसके साथ एक खास संस्कृति का खत्म होना, एक विशिष्ट पहचान का गुम हो जाना। तो क्या दुनिया से विविधता समाप्त हो जाएगी और पूरा संसार एक रंग में रंग जाएगा? बहुत सारी भाषाओं के निरंतर कमजोर पड़ने के साथ यह सवाल गहराता जा रहा है। पहनावे के बाद अब भाषाओं पर आया संकट अधिक खतरनाक सिद्ध हो सकता है। कहा जाता है कि भाषा अपनी संस्कृति भी साथ लाती है। वास्तव में भाषा को बचाने का मतलब है, भाषा बोलने वाले समुदाय को बचाना। सागरतटीय, घुमंतू, पहाड़ी, मैदानी और शहरी, सभी समुदायों के लोगों के लिए अलग योजना की जरूरत है। बहुत-से लोग शहरीकरण को भाषाओं के लुप्त होने का कारण मानते हैं, लेकिन शहरीकरण भाषाओं के लिए खराब नहीं है। शहरों में इन भाषाओं की अपनी एक जगह होनी चाहिए। बड़े शहरों का भी बहुभाषी होकर उभरना जरूरी है।
http://www.jansatta.com/politics/jansatta-article-about-language-3/189220/

नकदीरहित : अर्थतंत्र की मरीचिका

पांच सौ और हजार रु. के नोटों के बंद किए जाने को सही ठहराने के लिए ‘काले धन’ पर अंकुश लगने का जो दावा किया जा रहा है, उसके अलावा एक और तर्क यह दिया जा रहा है कि यह देश को एक ‘नकदीरहित’ अर्थव्यवस्था की ओर ले जाएगा.
बहरहाल, ‘काले धन’ के संबंध में इस बहुत ही भोली समझ की ही तरह कि ऐसा धन नोटों के बंडलों की ही शक्ल में जमा कर के रखा जाता है, यह दूसरी दलील भी हैरान करने वाले तरीके से भोलेपन पर आधारित है.
सारा का सारा पैसा बैंकिंग प्रणाली की देनदारी के रूप में हम अपने पास रखते हैं. बैंकों पर हमारे दावे दो तरीके से निर्मित होते हैं. पहला, जब हम बैंक में नकदी या अपने पक्ष में किसी और का जारी किया हुआ चैक जमा कराते हैं. दूसरा, जब हमारे कुछ भी जमा किए बिना ही बैंक हमें ‘ऋण’ देता है, या अपने ऊपर देनदारी का हमारा दावा स्वीकार कर लेता है, जैसा कि मिसाल के तौर पर केडिट कार्ड के मामले में होता है. बैंक किसी को भी ऋण तभी देता है जब ऋण हासिल करने वाले में ‘ऋण पात्रता’ हो यानी वह बैंक की नजरों में ऋण देने के लायक हो. दुर्भाग्य से करोड़ों भारतीय बैंकों की नजरों में ‘ऋण पात्र’ नहीं हैं. शहरी मध्य वर्ग के लिए, जिसके बीच से ज्यादातर आर्थिक नीति निर्माता आते हैं, क्रेडिट कार्ड हासिल करना आसान होता है. लेकिन देश की आबादी के अधिकांश हिस्से के मामले में ऐसा बिल्कुल नहीं है. इसलिए यह मानकर चलना कि आम जनता भी, पहले ही नकदी या चैक के माध्यम से उतना ही पैसा जमा कराए बिना ही, बैंकों पर भुगतान के दावे निर्मित कर सकती है, पूरी तरह से निराधार है.
वास्तव में इस तरह की बात सोचा जाना ही अपने आप में आश्चर्यजनक है क्योंकि यह एक जाना-माना तथ्य है कि हमारे देश के बैंक, जिन पर बैंक राष्ट्रीयकरण के बाद, खेती के लिए ‘प्राथमिकता क्षेत्र’ के तौर पर ऋण देने की शर्त लगाई गई थी, देश में नवउदारवादी व्यवस्था के आने के बाद से सुव्यवस्थित तरीके से अपनी उक्त जिम्मेदारी से हाथ खींचते आ रहे हैं. और बैंकों के इस तरह हाथ खींचे जाने को एक के बाद केंद्र में आई सरकारों द्वारा ‘प्राथमिकता क्षेत्र ऋण’ की परिभाषा को ही फैलाने के जरिए वैधता प्रदान की जाती रही है. इस परिभाषा को इतना ज्यादा फैला दिया गया है कि अब तो ग्रामीण क्षेत्र में किसी कृषि उत्पाद का उपयोग करने वाला कारखाना लगाने के लिए, किसी बहुराष्ट्रीय निगम को दिया जाने वाला ऋण भी ‘प्राथमिकता क्षेत्र ऋण’ में गिन लिया जाएगा.
इसके अलावा, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक ही हैं जिन्हें अपनी इस तरह की कोताही को ढांपने की जरूरत पड़ती है. निजी बैंकों को और खास तौर पर विदेशी बैंकों को तो ऐेसे किसी आवरण की कोई जरूरत तक नहीं होती है. कुछ बैंकों ने तो साफ तौर पर यह बता भी दिया है कि उनसे लाखों किसानों से सीधे राब्ता रखने की उम्मीद नहीं की जाना चाहिए और इसके बजाए वे इस काम के लिए ‘सुगमता कारकों’ (बिचौलियों का जो व्यावहारिक मायनों में बैंक द्वारा वित्त पोषित निजी महाजनों की तरह काम करते हैं) का ही सहारा लेना चाहेंगे.
इन परिस्थितियों में यह अचरज की बात नहीं है कि किसान जनता अपनी ऋण संबंधी जरूरतों के लिए बढ़ते पैमाने पर महाजनों के एक नये वर्ग पर निर्भर होती गई है. महाजनों के इस नये वर्ग में बैंकों के ऋण का उपयोग करने वाले बिचौलिए, मुख्यत: स्वतंत्र स्त्रोतों का प्रयोग करने वाले निजी ऑपरेटर, कृषि-बिजनेस फर्मो के एजेंट तथा अन्य शामिल हैं. जो बात किसानों के बारे में सच है, वही लघु उत्पादन के अन्य क्षेत्रों के बारे में भी सच है. इसलिए जब तक अर्थव्यवस्था में एक ऐसा हिस्सा रहेगा जिसे वित्तीय संस्थाएं ‘ऋण पात्र’ नहीं मानती हैं, और इस हिस्से को ऋण के गैर-संस्थागत स्त्रोतों पर निर्भर रहना पड़ेगा (हमारे मामले में इस हिस्से में देश की आधी से ज्यादा कामकाजी आबादी आ जाती है), इसी कारण से नकदीरहित अर्थव्यवस्था की सारी बातें कोरी बतकही ही रह जाएंगी. अब अगर हम यह भी मान लें कि असंगठित क्षेत्र तक में ऐसा हरेक शख्स जिसे नकदी या चैक से कोई भी रकम मिलती है, उसे सीधे-सीधे बैंक में जमा करा देगा और इससे बनने वाले बैंक पर दावों का ही भुगतान करने के लिए या आगे लेन-देन के लिए इस्तेमाल करेगा. तब भी इसके लिए यह जरूरी होगा कि ऐसे शख्स को जिस किसी भी व्यक्ति को भुगतान करना हो, उसका अपना बैंक खाता हो.
संक्षेप में इसके लिए पूरी आबादी के करीब-करीब सार्वभौम बैंक कवरेज की जरूरत होगी, जबकि हमारे देश में अब तक बैंक कवरेज का आंकड़ा करीब 30 फीसद ही है. ऐसा इसलिए है कि ऐसी अर्थव्यवस्था में जिसमें सबसे बड़ी संख्या गरीबों की है जो तरह-तरह की ‘अनौपचारिक’ गतिविधियों से किसी तरह से अपना गुजारा चला लेते हैं, बैंकों को आबादी को सार्वभौम कवरेज मुहैया कराना फायदे नहीं नजर आता है. इतना ही नहीं अगर खुद जनता की नजर से भी देखा जाए तो जब तक उसे बैंकों से ऋण हासिल नहीं होता है, जो उन्हें लुटेरे महजानों के चंगुल से आजादी दिलाए, अपने हाथ में आने वाली सारी नकदी बैंक खाते में जमा कराना और आगे भुगतान करने के लिए, इस तरह बैंकों पर बनने वाली देनदारियों का उपयोग करना, उसके लिए पूरी तरह से निर्थक, अनावयक  तथा अनुपयोगी कसरत ही साबित होगा. इसके बजाए वे अपने हाथ में नकदी रखना तथा नकदी में भुगतान करना ही पसंद करेंगे क्योंकि इसमें यह फायदा भी है कि वे जिसे भी चाहें तथा जितना भी चाहें भुगतान कर सकते हैं, और इस पर रत्तीभर लागत नहीं आएगी. इसी वजह से वे यह भी चाहेंगे कि उनका भुगतान ‘नकदी’ में ही किया जाए.
इसके अलावा, अगर सरकार अर्थव्यवस्था को नकदीरहित बनाना चाहती है तब भी उसका मुद्रा के अमौद्रीकरण के जरिए जनता को ऐसा करने के लिए मजबूर करना शुद्ध तानाशाही का काम है. यह वाकई विडंबनापूर्ण है कि वही सरकार जो विदेशी पूंंजी को इसका भरोसा दिलाने में लगी हुई है कि भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे ‘उदार अर्थव्यवस्था’ है यानी विदेशी पूंजीपतियों को भारत में अपनी आर्थिक गतिविधियां चलाने की पूरी ‘स्वतंत्रता’ हासिल होगी, दूसरी ओर करोड़ों दरिद्र देशवासियों को हफ्तों के लिए ‘नकदीरहित’ रहने के लिए मजबूर कर रही है. इस सरकार को विदेशी पूंजीपतियों की स्वतंत्रता की तो परवाह है, लेकिन उसे खुद अपने नागरिकों की स्वतंत्रता की, जिस माध्यम से चाहें उसमें अपना लेन-देन करने की अपने देश के नागरिकों की स्वतंत्रता की, उसे कोई परवाह ही नहीं है.

आवारा / मजाज़ लखनवी

शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ 
जगमगाती जागती, सड़कों पे आवारा फिरूँ 
ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 
झिलमिलाते कुमकुमों की, राह में ज़ंजीर सी 
रात के हाथों में, दिन की मोहिनी तस्वीर सी 
मेरे सीने पर मगर, चलती हुई शमशीर सी 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 
ये रुपहली छाँव, ये आकाश पर तारों का जाल 
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल 
आह लेकिन कौन समझे, कौन जाने जी का हाल 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 
फिर वो टूटा एक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी 
जाने किसकी गोद में, आई ये मोती की लड़ी 
हूक सी सीने में उठी, चोट सी दिल पर पड़ी 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 
रात हँस – हँस कर ये कहती है, कि मयखाने में चल 
फिर किसी शहनाज़-ए-लालारुख के, काशाने में चल 
ये नहीं मुमकिन तो फिर, ऐ दोस्त वीराने में चल 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 
हर तरफ़ बिखरी हुई, रंगीनियाँ रानाइयाँ 
हर क़दम पर इशरतें, लेती हुई अंगड़ाइयां 
बढ़ रही हैं गोद फैलाये हुये रुस्वाइयाँ 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 
रास्ते में रुक के दम लूँ, ये मेरी आदत नहीं 
लौट कर वापस चला जाऊँ, मेरी फ़ितरत नहीं 
और कोई हमनवा मिल जाये, ये क़िस्मत नहीं 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 
मुंतज़िर है एक, तूफ़ान-ए-बला मेरे लिये 
अब भी जाने कितने, दरवाज़े है वहां मेरे लिये 
पर मुसीबत है मेरा, अहद-ए-वफ़ा मेरे लिए 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 
जी में आता है कि अब, अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ 
उनको पा सकता हूँ मैं ये, आसरा भी छोड़ दूँ 
हाँ मुनासिब है ये, ज़ंजीर-ए-हवा भी तोड़ दूँ 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 
एक महल की आड़ से, निकला वो पीला माहताब 
जैसे मुल्ला का अमामा, जैसे बनिये की किताब 
जैसे मुफलिस की जवानी, जैसे बेवा का शबाब 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 
दिल में एक शोला भड़क उठा है, आख़िर क्या करूँ 
मेरा पैमाना छलक उठा है, आख़िर क्या करूँ 
ज़ख्म सीने का महक उठा है, आख़िर क्या करूँ 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 
मुफ़लिसी और ये मज़ाहिर, हैं नज़र के सामने 
सैकड़ों चंगेज़-ओ-नादिर, हैं नज़र के सामने 
सैकड़ों सुल्तान-ओ-ज़बर, हैं नज़र के सामने 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 
ले के एक चंगेज़ के, हाथों से खंज़र तोड़ दूँ 
ताज पर उसके दमकता, है जो पत्थर तोड़ दूँ 
कोई तोड़े या न तोड़े, मैं ही बढ़कर तोड़ दूँ 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 
बढ़ के इस इंदर-सभा का, साज़-ओ-सामाँ फूँक दूँ 
इस का गुलशन फूँक दूँ, उस का शबिस्ताँ फूँक दूँ 
तख्त-ए-सुल्ताँ क्या, मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 
जी में आता है, ये मुर्दा चाँद-तारे नोंच लूँ 
इस किनारे नोंच लूँ, और उस किनारे नोंच लूँ 
एक दो का ज़िक्र क्या, सारे के सारे नोंच लूँ 
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ 

Saturday, December 10, 2016

हादसों के सफर में

एक बार फिर देश ने एक भीषण रेल दुर्घटना देखी है। उत्तर प्रदेश में कानपुर के पास इंदौर से पटना जा रही इंदौर-पटना एक्सप्रेस पटरी से उतर गई। यह इतनी भीषण दुर्घटना थी कि अभी तक इसमें एक सौ बयालीस लोग मरे हैं। यह दुर्घटना ऐसे समय हुई है जब हरियाणा के सूरजकुंड में रेलवे द्वारा आयोजित एक शिविर में खुद प्रधानमंत्री ‘शून्य दुर्घटना’ के लक्ष्य पर जोर दे रहे थे। ‘शून्य दुघर्टना नीति’ के बावजूद एक रेल दुर्घटना में सौ से ज्यादा लोग मरते हैं तो यह भारतीय रेल की कार्यशैली पर सवालिया निशान है। वर्ष 2000 से पहले भी देश में कई भीषण रेल दुर्घटनाएं हुई थीं। लेकिन उस समय तकनीक का अभाव कह कर रेलवे बच जाता था। आज तमाम तकनीकी विकास के बाद, रेलवे इतनी भीषण दुर्घटना की जिम्मेवारी से बच नहीं सकता।  दिलचस्प बात है कि यात्रा के हिसाब से जो ट्रेनें सुरक्षित हैं उनमें आम लोग सफर नहीं करते। राजधानी और शताब्दी जैसी ट्रेनों में एलएचबी कोच लगे हैं। लेकिन इनका किराया इतना महंगा है कि आम आदमी इनमें सवारी करने सोच नहीं सकता है। हाल ही में रेल मंत्रालय द्वारा राजधानी और शताब्दी एक्सप्रेस की सर्ज प्राइजिंस घोषणा ने इन ट्रेनों में सफर करना और भी महंगा बना दिया है। ये पूरी तरह से कुलीन वर्ग ट्रेनें हो गई हैं, जिनमें सफर करना मध्यवर्ग को भी पुसा नहीं सकता। रेलवे ने दावा किया था कि रेल दुर्घटना की स्थिति में कम से कम नुकसान के लिए राजधानी एक्सप्रेस की तरह सारी रेलगाड़ियों में एलएचबी (लिंक हाफ्फमैन बूश) कोच लगाए जाएंगे।
फिलहाल ज्यादातर रेल गाड़ियों में आईसीएफ (इंटीग्रल कोच फैक्ट्री) कोच लगे हुए हैं। रेलवे ने आईसीएफ की जगह एलएचबी कोच लगाने तो शुरू कर दिए हैं, लेकिन इसकी गति काफी धीमी है। हालांकि रेलवे ने इसके लिए एक समय सीमा तय की है। रेलवे के अनुसार 2020 तक सारी रेलगाड़ियों में एलएचबी डिब्बे होंगे। एलएचबी कोच भारत में बनाए जा रहे हैं और इनमें लगाए जाने वाला स्प्रिंग भी अब विदेशों से मंगाए जाने के बजाय भारत में ही बनाए जा रहे हैं। लेकिन एक दूसरी सच्चाई भी है, जो रेलवे के दावों की पोल खोलती है। भारत में फिलहाल एलएचबी कोचों की संख्या सिर्फ पांच से छह हजार के करीब है। जबकि आईसीएफ कोच की संख्या पचास हजार से ऊपर है। इसलिए इसे इतना जल्दी बदलना आसान नहीं होगा, जितना रेलवे दावा कर रहा है। पुरानी तकनीक से बने आईसीएफ कोच अगर पटरियों से नीचे उतरते हैं तो इसमें मरने वालों की संख्या काफी ज्यादा होती है। क्योंकि पटरियों से उतरने के बाद ये कोच काफी दूर गिरते हैं और एक कोच के दूसरे कोच के ऊपर गिरने की आशंका काफी रहती है।
तकनीक में काफी विकास के बाद भी भारतीय रेल आईसीएफ कोच से छुटकारा नहीं पा सका है। मंत्री और अधिकारी संवेदना व्यक्त कर सुधार की बात भूल जाते हैं। ऊपर से झूठे दावे किए जाते हैं। रेल मंत्रालय इस सच्चाई को छिपा जाता है कि भारत में रेल कोच फैक्ट्रियों की कोच बनाने की क्षमता फिलहाल इतनी नहीं है कि वे अगले तीन साल में पचास हजार आईसीएफ कोच को एलएचबी कोच से बदल दें। वर्ष 1990 के बाद भारत में कई बार भीषण रेल दुर्घटनाएं हुर्इं। रेल दुर्घटनाओं की जांच के लिए समितियां बनीं। उनकी रिपोर्ट भी आई। जांच के दौरान रेलवे बोर्ड के अधिकारियों कोकोशिश रही कि समितियां रेलवे की खामियों को उजागर न करें। आज रेल मंत्रालय का मुख्य उद््देश्य रेलवे का निजीकरण रह गया है, रेलवे की महत्त्वपूर्ण संपत्तियों को निजी क्षेत्र के हवाले कर उनके मुनाफे का बंदोबस्त करना। पिछले सौ सालों में जिस आधारभूत संरचना का विकास भारतीय रेल में हुआ है, उसके रखरखाव में भी रेल मंत्रालय विफल साबित हो रहा है। सिर्फ स्टेशनों को सुंदर बनाने की बात हो रही है। ट्विटर पर संदेश के माध्यम से खाना पहुंचा रेल मंत्रालय अपना महिमामंडन कर रहा है। लेकिन रेल कोचों के अंदर की गंदगी, उनके रखरखाव की हालत कितनी खराब हो गई है, न तो इस पर रेलवे का ध्यान है न कमजोर हो रही रेल पटरियों को मजबूत करने पर।
पिछले एक साल से रेल मंत्रालय हाई स्पीड ट्रेन चलाने की बात कर रहा है। दिल्ली और आगरा के बीच हाई स्पीड ट्रेन चलाई गई। दिल्ली-मुंबई के बीच हाईस्पीड ट्रेन का ट्रायल किया गया। लेकिन खुद रेलवे के इंजीनियर बताते हैं कि रेल पटरियां काफी कमजोर हैं, पुरानी हो चुकी हैं और दुर्घटना की आशंका हमेशा बनी रहती है। इन पटरियों पर डेढ़ सौ किलोमीटर प्रतिघंटे की गति से भी रेलगाड़ी चलाना खतरे से खाली नहीं है। कानपुर के पास जो इंदौर-पटना एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हुई, उसकी गति एक सौ दस किलोमीटर प्रतिघंटा थी। रेलवे के अधिकारी खुद स्वीकार करते हैं कि जिस पटरी पर रेलगाड़ी आ रही थी वह इतनी तेज गति के लायक नहीं थी।1980 के बाद कई भीषण रेल दुर्घटनाओं के मद््देनजर रेलवे ने सुधार को लेकर कुछ ठोस कदम उठाने का भरोसा दिलाया था। वर्ष 1981 में बिहार में तूफान के कारण ट्रेन नदी में जा गिरी थी, जिससे आठ सौ लोगों की मौत हो गई थी। इसके बाद एक और भीषण रेल दुर्घटना उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद के पास हुई जिसमें पुरुषोत्तम एक्सप्रेस का टकराव कालिंदी एक्सप्रेस से हो गया था। इसमें ढाई लोगों की मौत हुई थी। जबकि 26 नवंबर 1998 को लुधियाना के पास खन्ना में फ्रंटियर मेल और सियालदह एक्सप्रेस की टक्कर में 108 लोगों की मौत हुई थी। खन्ना रेल दुर्घटना के बाद रेलवे ने एक जांच आयोग गठित किया। हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जज न्यायमूर्ति जीसी गर्ग की अध्यक्षता वाले जांच आयोग ने 2004 में रेलवे को अपनी रिपोर्ट दे दी।
रिपोर्ट में रेलवे के सुरक्षा के दावों पर सवाल उठाए गए थे। आयोग ने कई सिफारिशें भी की थीं। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में रेलवे को निर्देश दिया था कि पटरियों की जांच हर महीने पर की जाए। साथ ही इस जांच को अल्ट्रासोनिक फ्लॉ डिटेक्टर (यूएसएफडी) की तकनीक से करने के लिए कहा गया था। ये सिफारिशें कागजों में बेशक लागू हो गर्इं, लेकिन जमीन पर? खन्ना जांच आयोग ने ठंड के मौसम में पटरियों पर गश्त बढ़ाने के निर्देश दिए थे। साथ ही कहा था कि गश्त के जिम्मेवार गैंगमैनों की निगरानी की जाए क्योंकि ठंड के मौसम में पटरियों में परिवर्तन होता है। इसलिए यह जरूरी है कि गैंगमैन ईमानदारी से ड्यूटी करें। लेकिन रेलवे के ये आदेश भी कागजों में रहे। यही नहीं, आयोग ने पटरियों की गुणवत्ता पर बराबर निगरानी रखने के लिए भी कहा था। कानपुर के पास हुई रेल दुर्घटना की जांच फिलहाल जारी है। लेकिन आरंभिक जांच में पटरियों की खामियों की तरफ भी इशारा है।
आज भारतीय रेलवे दुनिया के बड़े रेल नेटवर्कों में से एक है, जिसके पास एक लाख पंद्रह हजार किलोमीटर रेल लाइन का नेटवर्क है। रोजाना ढाई करोड़ मुसाफिर इसकी सेवा लेते हैं, लेकिन सुरक्षा-व्यवस्था भगवान भरोसे है। भ्रष्टाचार का आलम यह है कि भर्ती से लेकर तबादलों तक में पैसे लिए जाते हैं। हालांकि रेलवे की कमाई में कोई कमी नहीं आई है, भले रेल मत्रांलय लगातार घाटे की दुहाई दे। तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी दो लाख करोड़ का राजस्व प्राप्त करने वाले रेलवे में यात्री की सुरक्षा के नाम पर सिर्फ घोषणाएं होती हैं। यात्रियों से सुरक्षा के नाम पर टिकटों में पैसे वसूले जाते हैं, लेकिन उनकी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है।
http://www.jansatta.com/politics/jansatta-article-about-kanpur-train-accident/190174/