एक लड़की की डायरी का एक पन्ना....
दिनांक 15-04-2015
दिनांक 15-04-2015
मैं एक लड़की हूँ। कहाँ की?शायद यूपी की... नहीं बिहार की... ओह नहीं दिल्ली की...अच्छा चलो भारत की।
रात को नींद नहीं आ रही थी। सुबह आठ बजे जगी हूँ। सामने मंदिर के पुजारी की आवाज़-'दीन दयाल बिरद सम भारी'... मैं उससे पहले ही बोल उठती हूँ-'हरहुँ नाथ मम संकट भारी'। ओह!यह क्या!भीष्म साहनी की एक कहानी याद आ गई-एक भारतीय है जो अँग्रेजी ढ़ंग से रहता है। स्वयं को अंग्रेज़ ही मानता है। सिनेमा हाल के टायलेट में वास्तविक अंग्रेज़ों द्वारा अपमानित होने पर आत्मग्लानिवश 'अहं ब्रम्हास्मि'का जाप करने लगता है। लेकिन हक्सले का अंग्रेज़ी अनुवाद-'आई एम द डिवाईन फ्लेम'... मैं भी तो यही कर रही हूँ। बहुत धार्मिक नहीं रही कभी। बस मन्दिर देखा,सर झुका लिया।मस्जिद देखा,सर झुका लिया।सत्यनारायण व्रत का प्रसाद भी खाया और मजार पर मन्नतों के धागे भी बाँधे।
'हरहुँ नाथ मम संकट भारी'... मेरा संकट क्या है! कुछ भी तो नहीं। कल बाज़ार गई श्वेता घर नहीं आई। सुना किसी ने उठा लिया। अरे नहीं वो श्वेता नहीं जी। वो तो अब घर से निकलती भी नहीं। कहती है-'तेजाब से जले इस चेहरे को देखकर लोग डर जाते हैं'। यह तो दूसरी श्वेता है।
मयंक बोलता है-50%आरक्षण तो लिया ही है तुम लड़कियों ने। मयंक मैं कैसे समझाऊँ तुम्हें कि,परीक्षा देने जाते समय बगल के अंकल टाईप आदमी के कन्धे कैसे मेरी कन्धों से रगड़ खाते हैं।परीक्षा का पन्द्रह मिनट तो खुद को उस क्रोध, बेबसी और नफ़रत से नजात दिलाने में बीत जाता है। लौटते समय इसी बात का खौफ। 'रैन्चो' ने कहा कि-आल इज वेल बोलना। पता है पांच सौ बार आल इज वेल बोलकर ही श्वेता के घर फोन किया-आन्टी श्वेता का पता चला? उधर की आवाज़-नहीं बेटा। फिर एक लंबी खामोशी... फिर फोन कट।झूठ बोलता है रैन्चो।
आकांक्षा के भाई की शादी है आज। मैंने फोन पर कहा-नहीं आ सकती तबीयत खराब... आकांक्षा डांटती है-चल झूठी। महीने में कितनी बार एक ही बहाने बनाती हो...।
इस खौफ को तुम नहीं समझोगे मयंक,कि रात के नौ बजे छोटी बहन के साथ लौटना कैसा लगेगा! इसीलिये महीने में तीन बार तबीयत खराब होती है मेरी।
मयंक तुमने पूछा था कि-मेरा प्रिय मौसम कौन सा है? मैंने कहा था कि-खूब ठंड वाला। जानते हो क्यों? जैकेट शाल स्कार्फ से ढंकी होने पर तुम मर्दों की नजरों से थोड़ी ही सही नजात तो मिलती है।
मेरा नाम श्वेता नहीं। लेकिन कब तक?कभी न कभी तो इस फेहरिश्त में नाम आएगा ही। रोज मरती हूँ मयंक... रोज। नहीं चाहिए मुझे आरक्षण। नहीं बनना मुझे मर्द,जींस पहन कर। तुम श्वेता को ला दो बस!मुझसे वादा करो कि उसके आने के बाद उँगलियाँ नहीं उठेंगी उस पर।तुम तो जानते हो वह घरेलू लड़की थी। सलवार-सूट टाईप...तो नहीं चाहिए मुझे कोई हक... बराबरी...आरक्षण वगैरह वगैरह। मुझे मेरी इस खौफ से नजात दे दो बस!
असित कुमार मिश्र
बलिया
रात को नींद नहीं आ रही थी। सुबह आठ बजे जगी हूँ। सामने मंदिर के पुजारी की आवाज़-'दीन दयाल बिरद सम भारी'... मैं उससे पहले ही बोल उठती हूँ-'हरहुँ नाथ मम संकट भारी'। ओह!यह क्या!भीष्म साहनी की एक कहानी याद आ गई-एक भारतीय है जो अँग्रेजी ढ़ंग से रहता है। स्वयं को अंग्रेज़ ही मानता है। सिनेमा हाल के टायलेट में वास्तविक अंग्रेज़ों द्वारा अपमानित होने पर आत्मग्लानिवश 'अहं ब्रम्हास्मि'का जाप करने लगता है। लेकिन हक्सले का अंग्रेज़ी अनुवाद-'आई एम द डिवाईन फ्लेम'... मैं भी तो यही कर रही हूँ। बहुत धार्मिक नहीं रही कभी। बस मन्दिर देखा,सर झुका लिया।मस्जिद देखा,सर झुका लिया।सत्यनारायण व्रत का प्रसाद भी खाया और मजार पर मन्नतों के धागे भी बाँधे।
'हरहुँ नाथ मम संकट भारी'... मेरा संकट क्या है! कुछ भी तो नहीं। कल बाज़ार गई श्वेता घर नहीं आई। सुना किसी ने उठा लिया। अरे नहीं वो श्वेता नहीं जी। वो तो अब घर से निकलती भी नहीं। कहती है-'तेजाब से जले इस चेहरे को देखकर लोग डर जाते हैं'। यह तो दूसरी श्वेता है।
मयंक बोलता है-50%आरक्षण तो लिया ही है तुम लड़कियों ने। मयंक मैं कैसे समझाऊँ तुम्हें कि,परीक्षा देने जाते समय बगल के अंकल टाईप आदमी के कन्धे कैसे मेरी कन्धों से रगड़ खाते हैं।परीक्षा का पन्द्रह मिनट तो खुद को उस क्रोध, बेबसी और नफ़रत से नजात दिलाने में बीत जाता है। लौटते समय इसी बात का खौफ। 'रैन्चो' ने कहा कि-आल इज वेल बोलना। पता है पांच सौ बार आल इज वेल बोलकर ही श्वेता के घर फोन किया-आन्टी श्वेता का पता चला? उधर की आवाज़-नहीं बेटा। फिर एक लंबी खामोशी... फिर फोन कट।झूठ बोलता है रैन्चो।
आकांक्षा के भाई की शादी है आज। मैंने फोन पर कहा-नहीं आ सकती तबीयत खराब... आकांक्षा डांटती है-चल झूठी। महीने में कितनी बार एक ही बहाने बनाती हो...।
इस खौफ को तुम नहीं समझोगे मयंक,कि रात के नौ बजे छोटी बहन के साथ लौटना कैसा लगेगा! इसीलिये महीने में तीन बार तबीयत खराब होती है मेरी।
मयंक तुमने पूछा था कि-मेरा प्रिय मौसम कौन सा है? मैंने कहा था कि-खूब ठंड वाला। जानते हो क्यों? जैकेट शाल स्कार्फ से ढंकी होने पर तुम मर्दों की नजरों से थोड़ी ही सही नजात तो मिलती है।
मेरा नाम श्वेता नहीं। लेकिन कब तक?कभी न कभी तो इस फेहरिश्त में नाम आएगा ही। रोज मरती हूँ मयंक... रोज। नहीं चाहिए मुझे आरक्षण। नहीं बनना मुझे मर्द,जींस पहन कर। तुम श्वेता को ला दो बस!मुझसे वादा करो कि उसके आने के बाद उँगलियाँ नहीं उठेंगी उस पर।तुम तो जानते हो वह घरेलू लड़की थी। सलवार-सूट टाईप...तो नहीं चाहिए मुझे कोई हक... बराबरी...आरक्षण वगैरह वगैरह। मुझे मेरी इस खौफ से नजात दे दो बस!
असित कुमार मिश्र
बलिया