Sunday, February 23, 2014

दर्द और गुलज़ार




हर दफ़े निखर निखर आता हूँ ग़मों से,
हर दफ़े एक नया ग़म पनप आता है...
डर है कहीं दर्द का 'एडिक्ट' न हो जाऊं!


-*-

तेरे जैसा लिखना-पढ़ना मुझे कभी न आया,
न दिन ढला, न रात उगी, न चाँद शरमाया,
निर- मूरख मैं तुझको पढ़- पढ़ बार-बार हर्षाया,
मुझे भी तरकीब बता 'गुलज़ार' हुनर कहाँ से लाया?




ज़लज़ले की रात



ज़लज़ले की रात 
दुनिया ने बांटा सामान,
मेरे हिस्से में आई एक किताब
जिसक आखिरी पन्ने पे लिखा था-
'ज़लज़ला अच्छा-बुरा देखकर नहीं आता,
कुत्तों की कोई जात नहीं होती,
लोग कभी अपने नहीं होते, मौत अपनी है!'

उस रात ज़लज़ले ने
मुझे कम, रिश्तों को ज्यादा ख़ाक किया.