‘यह सिर्फ अब है, सावधानी से पीछे मुड़कर देखते हुए कि मैं यह महसूस कर पाता हूं कि मेरी पूरी जवानी एक सांस्कृतिक बंजर में गुजरी थी और मेरा आरंभिक लेखन पूरी तरह घृणा, हिंसा और अहंकार से पोषित हुआ या दूसरे शब्दों में झूठ, चालाकी और असभ्यता से. पार्टी संस्कृति के इस ज़हर से चीनियों की अनेक पीढ़ियां बुझी हुई थीं और मैं भी कोई अपवाद न था...इस विष से मुक्त होने में हो सकता है मेरा पूरा जीवन लग जाए.’
यह सबकुछ ल्यू शियाबो ने कहा अपने बारे में. 2003 में ‘डेमोक्रेसी एक्टिविस्ट अवार्ड’ को स्वीकार करते हुए उन्होंने अपने वक्तव्य का आरंभ ही इस तरह किया. ल्यू बात चीन की कर रहे थे, उसकी साम्यवादी सत्ता की. जिस जहर की वे कर रहे थे, उसका एक नमूना मिलता है चीनी पार्टी के नियंत्रण में निकलने वाले ग्लोबल टाइम्स की उस खबर से जो ल्यू की मौत के बारे में सूचना देती है. इस खबर में कहीं भी इसका जिक्र नहीं है कि ल्यू को शांति का नोबेल पुरस्कार मिला था. इसका तो सवाल ही नहीं उठता कि पाठकों को यह बताया जाए कि यह सम्मान उन्हें क्यों मिला था. वह ठंडे तरीके से सूचना देता है कि सरकार को अपदस्थ करने के षड्यंत्र के कारण उन्हें कैद की सजा मिली थी.
ग्लोबल टाइम्स की चिंता अपने पाठकों को सिर्फ यह विश्वास दिलाने की है कि उनका इलाज बेहतरीन था. वह यह बताना ज़रूरी समझता है कि सरकार ने सबसे योग्य चीनी डॉक्टरों के अलावा जर्मन और अमरीकी डॉक्टरों को भी उनके इलाज के लिए बुलाया गया था और उन्होंने कहा कि ‘वे इससे बेहतर विकल्प के बारे में सोच नहीं सकते...’
क्या चीनी पार्टी सचमुच यह सोचती है कि जनता को ल्यू के बारे में उतना ही और उसी तरीके मालूम होगा जितना और जैसे वह बताती है? और क्या चीनी जनता सत्ता के द्वारा अपने साथ किए जा रहे इस तरह के बर्ताव से अपमानित महसूस नहीं करती?
चीन की प्रगति और उसके विकास से चकाचौंध दुनिया को ल्यू की कितनी फिक्र होनी चाहिए और क्यों? ग्यारह साल की उनकी कैद चीन के लिए कोई पहली और आखिरी नहीं होने वाली है. लेकिन चीन इसके बारे में निश्चिंत है कि यह सबकुछ उसके लिए अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति के रास्ते में कहीं बाधा नहीं बनेगा.
चीन इस वजह से भी निश्चिंत है कि उसे अपने मिथ्या अभियान में अपने बौद्धिक अभिजन के सहयोग का आश्वासन है. ल्यू अपने इसी संबोधन में कहते हैं कि ‘किसी हिंसा के डर से नहीं, बल्कि यह भौतिक उपलब्धि के लोभ की वजह से की जा रही सक्रिय भागीदारी है.’ वे कहते हैं कि ऐसी सत्ताओं को दरअसल बड़े हिंसक विद्रोह की फिक्र नहीं होती. उन्हें वे आसानी से दबा सकती हैं. उनके लिए सबसे भयंकर एक ऐसी स्थिति है जिसमें अपने भौतिक लाभ की परवाह किए बिना बौद्धिक जन और अन्य अभिजन झूठ बोलने से इनकार करें. खामोश रहना भी बुरा न होगा क्योंकि इससे होगा यह कि झूठ कम से कम दुहराया तो न जाएगा और लोग असत्य का जीवन जीने से इनकार कर देंगे. फिर व्यवस्था का गला घुट जाएगा. ल्यू की कैद और उनकी मौत इसकी त्रासद गवाही है कि चीन में उनकी बात सुनी नहीं गई.
चीन की निरंकुश साम्यवादी सत्ता की जड़ें दरअसल साम्यवादी अंतर्राष्ट्रीयतावाद से ज्यादा चीनी राष्ट्रवाद की मिट्टी में धंसी हैं और वहीं से उन्हें खाद पानी मिलता है. ‘चीनी राष्ट्रवाद की जड़ें’ शीर्षक वाले अपने लेख में ल्यू इसकी विस्तृत पड़ताल करते हैं कि क्यों एक आम चीनी राष्ट्रवाद की बीमारी से ग्रस्त है. राष्ट्रवाद बिना ‘शत्रुवादी मानसिकता’ के जीवित नहीं रह सकता.
चीन में इस शत्रु मानसकिता को एक लंबे समय तक वर्ग घृणा ने जीवित रखा. लेकिन माओ के गुजर जाने और देंग युग के आगमन ने वर्ग के स्थान पर राष्ट्र को स्थापित किया. माओ की प्रसिद्ध उक्ति ‘राजनीतिक सत्ता बंदूक की नली से निकलती है’ अब बदल जाती है. नई शक्ल में उसे यों पढ़ा जा सकता है – ‘राष्ट्रीय एकता और प्रतिष्ठा बंदूक की नली से निकलती है.’
चीन में आर्थिक तरक्की के बाद साम्यवाद पर लोगों का विश्वास उठ चुका है. इसलिए उसकी जगह अब नई विचारधारा चाहिए और वह राष्ट्रवाद है. ल्यू इस राष्ट्रवाद के साथ हिंसा का रिश्ता अनिवार्य मानते हैं. हिंसा एक बड़े समुदाय के लिए सिर्फ स्वीकार्य नहीं, पूज्य भी हो जाती है. वह एक संस्कृति में बदल जाती है. उसका पहला प्रमाण भाषा में मिलता है.
‘जब हम जैसे लोगों का, जो हीनता बोध से संघर्ष करते रहते हैं, अपनी राष्ट्रीय शक्ति की अपर्याप्तता से सामना होता है या दूसरों से अपेक्षित सम्मान के अभाव के बोध से, तो हम किसी भी ऐसे ऐतिहासिक प्रसंग को ललककर पकड़ते हैं जिससे हमें ज़रा भी गर्व की अनुभूति हो. किसी सफलता को बढ़ा-चढ़ा कर देखना भी उचित है अगर वह इस समूह की एक नंबर का होने की भावना को पुष्ट करती हो. अगर इससे इनकार करना असंभव हो कि हम दूसरों से भौतिक रूप से हीन हैं तो हम यह तो कह ही सकते हैं, जैसा माओ करते थे, कि हम आध्यात्मिक रूप से श्रेष्ठ हैं. अगर हम दूसरों जितने अच्छे आज नहीं हैं, तो हम एक मिथ का निर्माण कर सकते हैं कि किसी न किसी दिन हम ज़रूर ताकतवर राष्ट्र बनेंगे क्योंकि हम अतीत में अवश्य ही शक्तिशाली थे.’
ल्यू शियाबो चेतावनी देते हैं कि जब मानवीय स्वतंत्रता और इज्जत के स्थान पर संकीर्ण राष्ट्रवाद को बहुमत का समर्थन मिलता है तो वह निरंकुश सरकार, सैन्यवादी दुस्साहस और बदमाशी के औचित्य के लिए राष्ट्रवाद का तर्क मुहैया कराता है.
ल्यू शियाबो ने सच बोलने की कीमत दी. तियानानमेन चौक में सरकारी दमन पर से पर्दा हटाने, जनतांत्रिक मूल्यों को राष्ट्रवाद और साम्यवाद के ऊपर रखने की वकालत करने और उससे बढ़कर चीनी जनता को आईना दिखाने का जुर्म बहुत बड़ा था.
ग्यारह साल की कैद, दुनिया से पूरी तरह अलग-थलग कर ल्यू की आत्मा को तोड़ देने की चीनी सरकारी कोशिश कामयाब नहीं हुई. हां! उसने उनके शरीर को ज़रूर क्षत-विक्षत कर दिया. और समाप्त भी. एक दिन आएगा, क्योंकि हर समाज के इतिहास में पीढ़ियों के उदासीन रहने के बाद भी वह आता दीखा है, जब उन सार्वभौम मूल्यों की समझ समाज में पैदा होगी जिनके लिए ल्यू का संघर्ष था, तब चीन सर झुकाकर उनसे क्षमा मांगेगा. वह दिन लेकिन अभी दूर लगता है.