Thursday, November 14, 2013

तीन रातों का लेखा-जोखा


इतिहास


एक पत्थर पे रख परीकथाएं
लगा दूंगा आग,
तबाह कर दूंगा इतिहास को ताकती
तमाम किताबें,
तमाम किवदंतियां
और हौसले पस्त करने वाली सारी बातें.

मैं रचूंगा इतिहास, 
मैं रचूंगा इतिहास
जो मुझसे शुरू होता हो,
जो मेरी कहानी हो.
आम-आदमी की कहानी
जिसका शाहों के रचे इतिहास में
कोई जिक्र नहीं मिलता. 


---**---

इश्क़ की शुरुआत अधिकार से नहीं होती


गीता की कसम
मैंने 'सीता' को नहीं चाहा
तुम्हारे शहर में.
जहां 'सीता' को चाहा
वो शहर कोई और था.
मैं था, तन्हाई थी,
कुछ शहर ही आवारा था, यौवना छाई थी.

हाँ, 'गीता' को ज़रूर चाहा
हमारे शहर में.
क्यूंकि 'गीता' में 'सीता' दिखी थी
और ये शहर भी आवारा लगने लगा था.

...क्यूंकि तुममें मुझे
चाहत से ज्यादा अधिकार दिखा था.
इश्क़ की शुरुआत अधिकार से नहीं होती,
अंत होता है.


---***--

मैं लम्बी कवितायेँ नहीं लिखता, क्यूंकि मैं खुद ही लम्बी कवितायेँ पढ़-पढ़ते ऊब जाता हूँ.#Confession फ़िलहाल लिखते-लिखते लम्बी हो गई एक कविता आप तक पहुंचा रहा हूँ...

मोहब्बत


एक पत्थर पे 
स्वप्नदर्शी चाँद रख गया 
अपनी ख़ामोशी.

नदी का बहाओ बहुत तेज था
फिर भी 
नदी के किनारे से 
तुम तक पहुचने का रास्ता ढूंढ़ ही लिया मैंने.

लोग कहते हैं
वो नदी वक़्त थी.
खामोश चाँद तुम
और पत्थर मैं.

कलह करते लोग
ढूंढते रहे कलह,
उन्हें मिलती रही कलह.
फिर मुझसे कहा
उन्हें मोहब्बत नहीं दिखी कहीं.

तुमने मुझमे सम्भावनाएं देखीं,
खुद में ज़रूरतें.
फिर की मोहब्बत.
ढूंढा मुझे,
काश! ढूंढते मुझमें मोहब्बत.
एक बार भी तुमने ने मोहब्बत नहीं ढूंढी.

वक़्त न बहता नदी कि तरह
न इस तरफ तुम रह जाते
दूसरे किनारे मैं,
और बीच नदी में
न बह जाती ये सम्भावनाएं ढूंढती मोहब्बत. 



Pic: A Chinese Art Exhibition