Tuesday, November 22, 2016

दक्षिण चीन सागर पर क्यों है घमासान | अनीता वर्मा

वर्तमान वैश्विक आर्थिक परिप्रेक्ष्य में दक्षिण चीन सागर की अवस्थिति के कारण सामरिक, आर्थिक व खाद्य सुरक्षा आदि की दृष्टि से इसकामहत्त्व जाहिर है। उपर्युक्त कारणों से दक्षिण चीन सागर की अहमियत इसके तटीय देशों के बीच संघर्ष का सबब भी समय-समय पर बनती रही है। साथ ही दक्षिण चीन सागरके मद््देनजर इस क्षेत्र में महाशक्तियों का हस्तक्षेप भी होता रहा है। इस संदर्भ में दक्षिण चीन सागर में चीन द्वारा अवैध कृत्रिम द्वीपों का निर्माण व ओबामा द्वारा चीन को चेतावनी देना महाशक्तियों के हस्तक्षेप को ही प्रदर्शित करता है। उल्लेखनीय है कि 12 जुलाई 2016 को हेग स्थित संयुक्त राष्ट्र न्यायाधिकरण ने दक्षिण चीन सागर पर चीन के एकाधिकार के दावे को खारिज कर दिया। पांच सदस्यीय न्यायाधिकरण ने स्पष्ट किया कि चीन के पास ‘नाइन डैश लाइन’ के भीतर पड़ने वाले समुद्री इलाकों पर ऐतिहासिक अधिकार जताने का कोई कानूनी आधार नहीं है। ‘नाइन डैश लाइन’ द्वारा चीन ने दक्षिण चीन सागर के काफी हिस्से को अपने दायरे में लेने की घोषणा की थी, जिसमें कई छोटे-बड़े द्वीप भी शामिल हैं। ऐसी स्थिति में चीन की आक्रामकता ने न केवल विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों का अतिक्रमण किया बल्कि ताइवान, फिलीपींस, मलेशिया, विएतनाम जैसे तमाम तटीय देशों के लिए खतरा पैदा किया, जिनके द्वीप इन क्षेत्रों में हैं। अब हालत ऐसे हो गए कि समुद्र व आकाश में आवागमन के लिए चीन की इजाजत आवश्यक हो गई। चीन की मनमानियों से प्रभावित देशों ने विरोध किया और फिलीपींस ने अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण से हस्तक्षेप की मांग की।
इसी संदर्भ में न्यायाधिकरण ने यह भी स्पष्ट किया कि चीन द्वारा दक्षिण चीन सागर में द्वीप बना कर समुद्र संबंधी संयुक्त राष्ट्र के नियमों (यूनाइटेड नेशंस कन्वेशन ऑन द लॉ ऑफ सी) का उल्लंघन किया गया है। उल्लेखनीय है कि चीन द्वारा दक्षिण चीन सागर में कृत्रिम द्वीप बनाने से कोरल रीफ को खतरा है। अनुमान के अनुसार 162 वर्ग किलोमीटर कोरल रीफ नष्ट हो चुका है जो समुद्री पर्यावरण की दृष्टि से काफी गंभीर नुकसान है। चीन ने न्यायाधिकरण के फैसले को मानने से इनकार कर दिया है। यही नहीं, उसने यह भी कहा कि वह न्यायाधिकरण को शुरू से अवैध मानता है। 1970 के दशक से शुरू होकर 1980 के दशक के मध्य तक विवाद काफी फैल गया, क्योंकि दक्षिण चीन सागर के संघर्ष में तेल एक कारक के रूप में उभर कर आया। तेल मिलने की संभावना के कारण दक्षिण चीन सागर के द्वीपों को लेकर तटीय देशों के बीच संप्रभुता के दावे की होड़ मच गई। इसी संदर्भ में ‘स्प्रातली द्वीप’ विवाद देखा जा सकता है। 1982 में 200 नाटिकल (समुद्री) मील का विशेष आर्थिक क्षेत्र संयुक्त राष्ट्र के समुद्री कानून का एक भाग बना और इस कानून पर हस्ताक्षर भी इसी वर्ष किए गए।
विएतनाम, ताइवान, फिलीपींस, मलेशिया, ब्रूनेई जैसे तमाम तटीय देश ऊर्जा, मत्स्य, प्राकृतिक गैस, सुरक्षा आदि के लिए दक्षिण चीन सागर पर निर्भर हैं। ऐसे में दक्षिण चीन सागर में चीन द्वारा कृत्रिम द्वीप बनाया जाना चिंता का विषय है। इसी संदर्भ में 7 सितंबर 2016 को आसियान व पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में फिलीपींस ने अपने दावे की पुष्टि के लिए कुछ तस्वीरें जारी कीं। इन तस्वीरों से स्पष्ट होता है कि चीनी जहाज ‘स्कारबोरो शोआल’ कृत्रिम द्वीप के निर्माण में जुड़े हैं। हालांकि फिलीपींस पहले भी इस तथ्य को उठाता रहा है, लेकिन चीन इनकार करता रहा है। इसलिए फिलीपींस ने चीन द्वारा कृत्रिम द्वीप बनाए जाने की तस्वीरें तब जारी कीं जब चौदहवें आसियान शिखर सम्मेलन व ग्यारहवें पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में आसियान के सदस्यों के साथ-साथ अन्य साझेदार जैसे अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया आदि के राष्ट्राध्यक्ष सम्मेलन में मौजूद थे।
दक्षिण चीन सागर की महत्ता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह वैश्विक व्यापार के लिए एक बहुत महत्त्वपूर्ण मार्ग है। साथ ही यह प्राकृतिक संपदा से संपन्न है। दक्षिण चीन सागर वह बिंदु है जो हिंद महासागर व प्रशांत महासागर को मलक्का जल संधि के माध्यम से जोड़ता है। भारत के संदर्भ में देखें तो भारत का पचपन फीसद व्यापार इसी मार्ग द्वारा होता है। तटीय देश विएतनाम ने एक सौ अट्ठाईस तेल ब्लॉक भारत को दिए हैं जो दक्षिण चीन सागर में हैं। साथ ही अमेरिका भी इस क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए फिलीपींस के इलाके में नियमित सैन्य अभ्यास करता है जो ‘स्कारबोरो’ से लगभग दो सौ तीस किलोमीटर दूर है। भारत भी आसियान के सदस्य देशों के साथ सैन्य अभ्यास करता रहा है।
तेल की खोज की संभावना और समुद्र के नए कानून से महाद्वीपीय शैल्फ के क्षेत्रों पर दावे व समुद्री चट्टानों और द्वीप समूहों पर कब्जा करने की प्रवृत्ति को बल मिला। तेल की संभावना की खोज से प्रभावित होकर फिलीपींस ने कालायान (स्प्रातली के पूर्वोत्तर भाग) को अपना हिस्सा घोषित किया और 1974 में रीड के किनारे पांच द्वीपिकाओं पर कब्जा कर लिया। वर्ष 1995 में चीन ने फिलीपींस से ‘मिसचीफ भित्ती’ को छीन लिया। स्प्रातली के पश्चिमी क्षेत्र में दक्षिणी विएतनाम ने अमेरिकी कंपनियों से तेल दोहन के लिए समझौते किए और स्प्रातली को दक्षिण विएतनाम के प्रांत के प्रशासन के अंतर्गत लाने की खातिर कदम उठाए गए। वर्ष 1988 में चीन व विएतनाम के मध्य स्प्रातली द्वीप को लेकर संघर्ष हुए जिसमें साठ से ज्यादा विएतनामी नौसैनिक मारे गए। इसके अतिरिक्त मलेशिया ‘स्प्रातली द्वीप’ के दक्षिणी भाग पर दावा करता है। मलेशिया के मामले में चीन नाइन डैश लाइन को अस्वीकार करता है, जहां तेल का खनन कर रहा था।
दक्षिण चीन सागर में अपनी संप्रभुता के दावे के अतिरिक्त चीन ने वैधानिक व सैनिक रूप से भी अपनी स्थिति को आगे बढ़ाया। चीन ने दक्षिण चीन सागर के अपने बेड़े को आधुनिक बनाया है और पराकेल समूह के ‘वुडी द्वीप’ में अपना हवाई अड््डा बनाया है। दक्षिण चीन सागर में मत्स्य भंडार को लेकर भी एक भयावह घटना सन 2000 में देखी गई। चीन द्वारा गैर-कानूनी ढंग से मछली पकड़ने को रोकने के लिए फिलीपींस की गश्ती नावों ने चीनी पोतों पर हमला कर एक कप्तान को मार गिराया। इसी के फलस्वरूप मत्स्य विवाद भी सामने आया। दक्षिण चीन सागर को इस क्षेत्र की अधिकतर सरकारें मत्स्य उद्योग के पर्याप्त आधार के रूप में देख रही हैं। यहां मत्स्य भंडार समाप्त होने पर खाद्य व पर्यावरण सुरक्षा की गंभीर स्थिति उत्पन्न हो सकती है। दक्षिण चीन सागर में तटवर्ती देश मछली आखेट पर न केवल खाद्य सुरक्षा के लिए निर्भर हैं, बल्कि यह उनकी आय का भी महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
इसी क्रम में दक्षिण चीन सागर के संदर्भ में अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने चीन को चेताया कि अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण का फैसला मानने को वह बाध्य है, जब फिलीपींस ने अपने दावे के समर्थन में ‘स्कारबोरो शोआल’ में कृत्रिम द्वीप बनाए जाने की तस्वीरें जारी कीं। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा कि दक्षिण चीन सागर में आवागमन के समुद्री लेन वैश्विक व्यापार के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण मार्ग हैं। वैश्विक समुद्री कानून के आधार पर भारत ने नौवहन स्वतंत्रता की वकालत की। प्रधानमंत्री ने कहा, चीन को अंतरराष्ट्रीय कानून का पालन करना चाहिए जिससे क्षेत्र में शांति, स्थिरता व समृद्धि बनी रहे। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि भारत समुद्री संसाधनों के संरक्षण, पर्यावरण क्षरण के रोकथाम और समुद्र की आर्थिक संभावनाओं के दोहन के लिए अपने अनुभव साझा कर सकता है। भारत इसी साल (2016) ‘समुद्री सुरक्षा एवं सहयोग’ पर दूसरे ‘ईएस’ का आयोजन करेगा।
दक्षिण चीन सागर अपनी भौगोलिक अवस्थिति के कारण विश्व का महत्त्वपूर्ण व्यापार मार्ग है। इसके तटवर्ती देश प्राकृतिक तेल, गैस, मत्स्य, सुरक्षा आदि के लिए इस पर निर्भर हैं। ऐसे में यदि चीन अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण के फैसले की अवहेलना करता है तो इसके फलस्वरूप टकराव की नौबत आ सकती है, क्योंकि क्षेत्रीय शक्तियां अपने अधिकार जताना नहीं छोड़ेंगी, वे वर्चस्व स्थापित करने की होड़ में भी पड़ सकती हैं। दक्षिण चीन सागर पर वर्चस्व स्थापित करने की होड़ केवल चीन, विएतनाम, इंडोनेशिया, फिलीपींस, मलेशिया, ताइवान व ब्रुनेई के बीच नहीं रह गई है; अब अपने सामरिक व आर्थिक हितों की खातिर इसमें कई नए अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी भी शामिल होंगे और ऐसी स्थिति में अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न होगी जो दीर्घकाल तक सामरिक, आर्थिक, व्यापारिक समीकरणों तथा खाद्य सुरक्षा व पर्यावरण को प्रभावित करेगी।
इसी क्रम में शांति, स्थिरता व समृद्धि बनाए रखने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने चीन को चेताया कि अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण का फैसला बाध्यकारी है। भारत ने भी 1982 की संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून संधि के तहत दक्षिण चीन सागर में नौवहन की स्वतंत्रता का समर्थन किया क्योंकि यह कानून अबाधित रूप से व्यापार की स्वतंत्रता भी प्रदान करता है। वस्तुत: चीन पूर्व एशिया में राजनीतिक, आर्थिक व सामरिक रूप से काफी सशक्त है। लेकिन दक्षिण चीन सागर पर वर्चस्व स्थापित करने की उसकी आक्रामक नीति ने सारे तटीय देशों को एकजुट होने के लिए प्रेरित किया। नतीजतन, इन तटीय देशों ने सुरक्षा के मद््देनजर अपने यहां नौसैनिक अड्डे स्थापित कर लिए, साथ ही अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों (भारत, जापान, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, फ्रांस) के एकजुट होने का मार्ग भी, उनके सामरिक व आर्थिक हितों के कारण, प्रशस्त कर दिया।

जल परिवहन : जल मार्ग बनेंगे जीवन रेखा | जयंतीलाल भंडारी

यकीनन प्राकृतिक पथ कहे जाने वाले जलमार्ग कभी भारतीय परिवहन की जीवन रेखा हुआ करते थे.
लेकिन समय के साथ आए बदलाव और परिवहन के आधुनिक साधनों के चलते बीती सदी में भारत में जल परिवहन क्षेत्र उपेक्षित होता चला गया. लेकिन अब केंद्र सरकार आंतरिक जल परिवहन के विकास के लिए एक के बाद एक नए कदम उठाती दिख रही है. कुल घरेलू परिवहन में जल परिवहन का जो हिस्सा वर्तमान में महज 3.6 फीसद है, इसे वर्ष 2018 तक बढ़ाकर सात फीसद करने का लक्ष्य रखा गया है.
राष्ट्रीय जल मार्ग कानून के तहत 111 नए नदी मार्गों को राष्ट्रीय जल मार्गों के रूप में विकसित किए जाने की योजना है. यह सरकार की उस बड़ी योजना का हिस्सा है जिसके तहत जल मार्ग आगे चलकर  एक पूरक, कम लागत वाला और पर्यावरण के अनुकूल माल एवं यात्री परिवहन का माध्यम बन सकते हैं. साथ ही भारी दबाव से जूझ रहे सड़क और रेल परिवहन तंत्र को काफी राहत मिल सकती है.
सरकार ने राष्ट्रीय जल मार्गों को संविधान की सातवीं अनुसूची की केंद्रीय सूची में शामिल किया है. अनुसूची के तहत केंद्र सरकार अंतर्देशीय जलमार्गों में नौवहन और आवागमन संबंधी कानून बना सकती है. इससे राष्ट्रीय जल मार्गों पर राज्यों के बीच विवाद की गुंजाइश नहीं होगी. सरकार एक एकीकृत राष्ट्रीय जलमार्ग परिवहन ग्रिड की स्थापना की दिशा में भी बढ़ रही है. इसके तहत 4503 किमी जलमार्गों के विकास की योजना है.
इसी तरह राष्ट्रीय जलमार्ग क्रमांक एक के तहत मालवाहक जलपोतों को वाराणसी से कोलकाता ले जाने का परीक्षण चल रहा है.  हालांकि भारत के पास 14,500 किमी. जलमार्ग है. इस विशाल जल मार्ग पर सदानीरा नदियों, झीलों और बैकवाटर्स का उपहार भी मिला हुआ है, लेकिन हम इसका उपयोग नहीं कर सके. वस्तुत: भारत के अंतर्देशीय जलमार्गों में से करीब 5,200 किमी. नदियां और 485 किमी. नहरें ऐसी हैं, जिन पर यांत्रिक जलयान चल सकते हैं.
जमीनी हकीकत यह है कि केरल, असम, गोवा और प. बंगाल के कुछ हिस्सों तक ही जलमार्ग लोगों की जीवनरेखा बने रह सके हैं. घोषित राष्ट्रीय जल मार्गों में से केवल तीन ही सक्रिय हो सके हैं. पहले क्रम पर राष्ट्रीय जलमार्ग क्रमांक एक है. 1986 में स्वीकृत इस जलमार्ग के तहत गंगा-भागीरथी-हुगली नदी प्रणाली का 1,620 किमी. क्षेत्रफल शामिल है. दूसरे क्रम पर 1988 में स्वीकृत राष्ट्रीय जलमार्ग क्रमांक दो है. इसके तहत ब्रह्मपुत्र-सादिया से धुबरी तक का 891 किमी. क्षेत्र शामिल है. तीसरे क्रम पर राष्ट्रीय जलमार्ग क्रमांक तीन है. 1993 में स्वीकृत इस जल मार्ग पर केरल का 205 किमी. जलमार्ग है.
उल्लेखनीय है कि अंतर्देशीय जल परिवहन के विकास के लिए दुनिया के कई देशों में विशेष संगठन सक्रिय हैं. भारत ने भी अक्टूबर, 1986 में भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण की स्थापना की. लेकिन संगठन के तौर पर यह बहुत सफल नहीं रहा. कारण, इसके गठन के बाद से इसे बहुत कम धनराशि मिल सकी. निस्संदेह देश में जल परिवहन के तहत यात्री एवं माल ढुलाई संबंधी जरूरतों की पूर्ति के लिए बहुत संभावनाएं हैं. देश के अधिकांश बिजलीघर कोयले की कमी से घिरे रहते हैं. सड़क और रेल से समय पर कोयला नहीं पहुंच पाता. ऐसे में जलमार्गों द्वारा कोयला ढुलाई की नियमित व किफायती संभावनाएं हैं. हमारी कई बड़ी विकास परियोजनाएं जलमार्गों के नजदीक साकार होने जा रही हैं.
बहुत से नए कारखाने और पनबिजली इकाइयां इन इलाकों में खुल चुकी हैं. इनके निर्माण में भारी-भरकम मशीनरी की सड़क से ढुलाई आसान काम नहीं है. अनाज और उर्वरकों की ढुलाई भी जल परिवहन से संभव है. चूंकि विभिन्न राज्यों में बड़ी नदियों और उनकी कई सहायक नदियों के किनारे बहुत कुछ अनूठी सांस्कृतिक गतिविधियां तथा मेले और पर्व होते हैं. असम, प. बंगाल, केरल और गोवा स्थित काफी इलाकों में पर्यटकों की बड़ी संख्या में आवाजाही होती है. ऐसे में नदी क्षेत्रों के माध्यम से पर्यटकों की गतिशीलता बढ़ाई जा सकती है.
अंतर्देशीय जल परिवहन के विकास से बंदरगाहों और तटीय जहाजरानी क्षेत्रों को भी जोड़ा जा सकता है. इससे हमारी कई नदी प्रणालियों को लाभ होगा. अब देश में नदियों की प्रकृति और उनके गहरे उथले पानी, गाद को निरंतर बहाव के अलावा जगह-जगह बने पीपा पुलों तथा अन्य पुलों की समस्या पर भी ध्यान दिया जाना होगा. वाणिज्यिक नौवहन की व्यावहार्यता के लिए पर्याप्त दोतरफा जिंस और यात्री उपलब्धता पर भी ध्यान देना होगा. सरकार ने अगले पांच वर्ष में जलमार्गों के विकास के लिए 50 हजार करोड़ रुपये खर्च करने के संकेत दिए हैं, पर निजी क्षेत्र से अगले पांच वर्षो में जल परिवहन के लिए इसके पांच गुना निवेश की उम्मीद की गई है. इस क्षेत्र में पूंजी लगाने वालों को प्रोत्साहन देने के लिए नई रणनीति को लागू किए जाने की जरूरत है.
जल परिवहन क्षेत्र के विकास के लिए इस बात की वैधानिक व्यवस्था भी सुनिश्चित करनी होगी कि विभिन्न नदी तटीय इलाकों के कारखाने तथा अन्य उपक्रम अपने माल ढुलाई में एक खास हिस्सा जलमार्गों को दें. जल मार्ग उपयोग करने वालों को कुछ सब्सिडी भी दी जानी चाहिए. इससे अंतर्देशीय जल परिवहन और तटीय जहाजरानी, दोनों को बढ़ावा मिलेगा, सस्ते में परिवहन होगा और इन संगठनों का आधार मजबूत होगा. खासतौर से खतरनाक सामग्री और गैस, पेट्रोल या रसायनों का एक हिस्सा जल परिवहन को आवश्यक रूप से हस्तांतरित किया जाना चाहिए. हम आशा करें कि केंद्र सरकार जल परिवहन को लक्ष्य के अनुरूप रणनीतिक रूप से विकसित करेगी. ऐसा किए जाने से देश में परिवहन के क्षेत्र में एक क्रांति देखने को मिलेगी, जिससे आम आदमी और अर्थव्यवस्था, दोनों लाभान्वित होंगे.