मैं न्याय के उन उसूलों की बात नहीं करूंगा
जो संविधान में लिखे हैं
या जिन्हें न्यायपालिका कहती है.
उन उसूलों की बात करूंगा
जिनसे झोपड़ियों पे ज़मींदारों के हक़ हो जाते हैं
कई लोग आज भी मैला ढोते हैं
और कई तो अब भी मंदिर के अंदर नहीं पहुँच पाते.
उन उसूलों की बात करूंगा
जिनके चलते तीन करोड़ केस आज भी
न्यायलय के अंदर कहीं धूल खा रहे हैं.
जिनके चलते कई लोग आज भी
बिना ज़ुर्म की सजा पा रहे हैं.
उन उसूलों की बात करूंगा
जिनमे रिश्वत लेना तो पुण्य है,
न्याय मांगना पाप.
मैं उन उसूलों की बात करूंगा
जिनमे सरपंच तो औरत होती है
लेकिन सरपंची पुरुष करता है.
सरपंच तो दलित होता है
लेकिन सरपंची ठाकुर करता है.
उन उसूलों की बात करूंगा
जिनमे मंदिर में सिर्फ जाति का ब्राह्मण ही हो सकता है पुजारी
और दक्षिण में आज भी है देवदासी प्रथा जारी.
थक गया हूँ
लिखते-पढ़ते-सुनते बातें
संविधान प्रदत्त अधिकारों की,
समानता की,
बातें ईमान की खाई शपथों की.
मैं आज धरातल की बात करूंगा
जिसमें पिस रही है दो तिहाई जनता
कानून बना रहे हैं कुछ हज़ार
और सिर्फ चंद लाख लोगों तक ही पहुचें हैं अधिकार.
महोदय, हम एक सौ तीस करोड़ से ज्यादा हैं
और सौ करोड़ में नौ शून्य होते हैं.
देश की अधिकतर आबादी
वो शून्य है जिसके आगे कोई अन्य अंक नहीं है,
उनके होने न होने के माने नहीं हैं.
मैं इसी शून्य की बात करूंगा,
क्यूंकि मैं भी वही शून्य हूँ.