Friday, January 18, 2013

अमृता मत बनना 'शोना'....


             
               
                   देखो मैं इमरोज़ तो नहीं, कि अमृता (प्रीतम) के कहने अपनी पीठ पर गुदवा लूँगा साहिर (लुधियानवी) का नाम, जताने इश्क की रूहानियत....न कि साहिर हूँ, एक सारी  ज़िन्दगी रह लूँगा अकेला, तन्हा, इश्क की याद में, जो कभी न हुआ मेरा! जानता हूँ, तुम भी अमृता नहीं, की ताउम्र लिखते रहो, कहते रहो, उस इश्क के बारे में जो तुम्हारा न हो सका, लेकिन गुज़ार दो सारी उम्र किसी और के साथ एक घर में रहते हुए.....लेकिन जोड़ लो उपनाम (प्रीतम) अपने पहले पति का, और ता उम्रभर जानी जाओ उसी नाम से.
                  मुझे पता है, हम-तुम इनमें से कुछ भी नहीं, लेकिन फिर भी यहाँ दुहरा रहा हूँ साठ  साल पुरानी एक प्रेम कहानी, जिसमे इमरोज़ का इश्क रूहानियत है, साहिर का इश्क तनहा, और अमृता कभी कभी बेवसा लगती है मुझे, तो कभी कभी मतलबी, जो छोड़ आई अपना पहला पति दूसरे के खातिर, और हो भी न पाई दूजे की भी.... शायद, कहीं न कहीं महसूस होता है मुझे, कि मैं हूँ थोडा सा साहिर,  जो ताउम्र तुम्हारी याद में बिताएगा, तन्हा-तन्हा.....या शायद वो रूहानी आशिक इमरोज़ हूँ, जिसे इश्क सिर्फ पाना नहीं, जैसा है वैसे अपनाना भी था....या कि वो प्रीतम, जिसे इश्क न था किसी से, लेकिन समाज ने बना दिए कुछ कायदे और उसे चुकानी पड़ी उसकी कीमत....देखो मैं भी तो चुकाऊंगा कीमत समाज के बनाये बेहुदा उसूलों की.
                 लेकिन तुम क्या हो? अमृता?? नहीं, नहीं अमृता मत बनना 'शोना'....उम्र भर बेवसी में ज़िन्दगी तुमसे काटी न जाएगी!! ....और न ही मैं चाहता हूँ, कि तुम ठुकरा आओ किसी और को सिर्फ मेरे लिए.

Pic: Amrita-Imroz, 2004