Saturday, February 23, 2013

सिवाए इन नासमझ नज्मों के!




 
          खिड़की पे बैठे चाँद देखता हूँ....अधूरा चाँद कुछ कहता ज़रूर है, जैसे उसे फलक से उतर सड़क दर सड़क आवारागर्दी के मज़े लेने की इच्छा हो....घटता-बढ़ता चाँद रिश्तों के घटने-बढ़ने के एहसास भी तो लिए है....फिर कैसे अधूरे चाँद में लोगो को अपना प्यार नज़र आता है? बेवजह ही सही, ख्याल मुक़र्रर तो है!

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चल चाँद,
साथ फिरते हैं
इन आवारा सड़कों पे.

मैं भी तन्हा हूँ आज.
....और फ़िक्र भी नही किसी को,
सिवाए इन नासमझ नज्मों के!

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क्यूँ ये नज़्म
घुल जाती है तुममें.

बिखर-बिखर
लाख कोशिशें करता हूँ मैं.

....और हमेशा तुम तक
ख़त्म होते हैं लफ्ज़.


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तुम्हें,
जितनी बार पढता हूँ...
नया पाता हूँ.

....और हर बार
फिर पढने की इच्छा तीव्रित होती है.

तुम मेरा सबसे प्यारा नोवेल हो.


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तुम्हारी नर्म उंगली पकड़
कई बसंत गुजार देता.

बसंत के ख्वाब,
छिटके न होते तो!

Thursday, February 21, 2013

पैकिंग करते-करते



                   पैकिंग करना आसान नहीं! हर चीज़ से जुड़े रहते हैं ख्याल, यादें और लोग, जो बरबस ही याद आते हैं. महीनों से सम्हाल रखा गया वो दस रूपये का सिक्का, जो तुमने दिया था.....देखो, वैसा ही तुम्हारे पास भी है. सोचता हूँ, तुमने अब तक सम्हाला होगा उसे? उम्मीद कम है मुझे! 'की रिंग', महीनों से सोच रहा हूँ की निकाल दूँ...हिम्मत ही नहीं हुई. अक्सर उसपे लिखे 'you' में तुम दिख जाते हो मुझे. क्या तुमने भी अज़ीज़ बना सम्हाला है उसका आधा हिस्सा? 

                   ये 'टेडी' वो 'पिंक स्टोल' अक्सर छू लिया करता था मैं. आज पैक किया तो बड़ी हिम्मत लगी उठाने में. 'टेडी' आज भी बड़ा नर्म लगता है मुझे. 'हग' किया तो तुम्हारी याद आ गयी! 'पिंक स्टोल' तो तुम्हें याद भी नहीं होगा....याद है बस से उतर रहे थे तुम और मैंने छीन लिया था.....अब वो मेरे 'कपबोर्ड' में सामने टंगा रहता है. 

                तुम्हारे 'ग्रीटिंग्स', 'डायरी' खोले नहीं मैंने, जैसे थे, वैसे 'पैक' कर दिए. हिम्मत नहीं थी. एक बार लगा, सब बेमतलब है अब, उठा के फेंक दूँ कचरे में....लेकिन, तुम्हें पता है मैं फालतू का सेंटी इन्सान हूँ!    
               'विंड चाइम' जिसपर मेरी 'पिक' भी है.....'कपबोर्ड' से छांकता था, जब भी खोलो....बड़ी शिद्दत से पैक करना पड़ा....रिश्ते कि तरह उसके भी टूटने का डर था! 

               'डार्क शर्ट्स', बहुत सी गिफ्ट की हैं तुमने...और अब तो 'डार्क' ही खरीदता हूँ....तुमने कहा था, अच्छा लगता हूँ. अब तो मुझे भी यकीं होने लगा है. अम्बार था, सारे 'शर्ट्स' समेटते-समेटते दिन लग गया!

              'शिर्डी' से 'साईं बाबा' की एक मूर्ति तुम्हारे लिए भी लाया था, सोचा, कहीं मिले तो दे दूंगा, यहीं छोड़ के जा रहा हूँ....शायद मिलना नहीं मुझे, या शायद यकीं है की तुम्हारी ही हिम्मत न होगी मिलने की.

              ये 'वाच', सच तो ये है मुझे अभी पता चला कि घड़ी गिफ्ट करने से रिश्तों के अच्छे दिन ख़त्म हो जाते हैं...पता होता तो कभी गिफ्ट न करता....ना ही तुमसे लेता. 'मिनट' की सुई खराब है इसकी, लेकिन नई लेने के बावजूद पहनता इसे ही हूँ.... पता नहीं क्यूँ, मन नहीं है की किसी और का हाथ लगे, तो सुधरवाया भी नहीं और कभी उतारा भी नहीं.

             सोचता हूँ, तुमने कैसे सम्हाली होंगी मेरा दिया सामान? यहाँ मुझे किसी को जवाब नहीं देना, लेकिन तुम्हें? इत्तेफाकन देख लिया किसी ने तो? कभी तो तुम छूते होगे उसे....शयद बहुत कुछ तो कचरे में फेंक दिया होगा तुमने. कहाँ-कहाँ ले के जाओगे तुम? 'हॉस्टल' से घर फिर किसी और के घर.............

            तुमने कहा था, अब नहीं पढ़ते तुम मुझे....URL नहीं बदला 'ब्लॉग' का, क्यूंकि मुझे तुम पे यकीं है....कि तुम ये भी नहीं पढ़ोगे.

Tuesday, February 19, 2013

इश्क का डिपार्टमेंट


               
           
                 कच्ची पक्की सड़कों पे पत्थर बहुत हैं....और उनपे चलने की अब आदत सी हो गयी है. उम्र ढलान पे बहुत रफ़्तार से गुजरती है और हमें पता भी नहीं चलता कि हम जा कहाँ रहे हैं....लेकिन जब रुकते हैं तो क्या खोया, क्या पाया का हिसाब बड़ा तीखा लगता है. अपनों को खोना, खुद को खोने से ज्यादा तकलीफदेह है....और उनसे जब आप नज़रें न मिला पायें तो और भी तकलीफदेह.
                 इश्क से निकला आदमी थोडा पुरातन हो जाता है, थोडा कम अक्लमंद, थोडा कम समझदार और हर एक शख्स को एक ही चश्मे से देखना शुरू कर देता है....इश्क का डिपार्टमेंट शायद है ही कुछ ऎसा!


मैं नहीं जानता
कितना प्यार किया मैंने.

मगर इश्क का
गुलाबी खुमार 
बाकी है अब तक आँखों में.



ये नज़्म,
ज़रा रुक
मेरी नज़रों पे अभी
चश्मे हैं सारे.

जब नितांत अकेला रहूँ,
तो आना जेहन में



कॉफ़ी टेबल पे पड़े तुम्हारे ख़त,
पढ़-पढ़ के फाड़ रहा हूँ ये ज़िन्दगी.

तूने इश्क भी बहुत किया
तूने सदमे भी बहुत दिए.

धड़कन के सहारे तू
आज भी चलती है तो
अच्छा लगता है!



मेरे महबूब,
गुस्ताखी माफ़ करना
पर तेरी बेवफाई से
ये बादल बहुत रोये हैं.

अगली दफ़ा,
किसी बंजर से इश्क करना.
जिससे रो न सके वो!

Monday, February 18, 2013

Politics on Justice Katju Remark

         

              काटजू साहब, मैं आपका कोई बहुत बड़ा फैन नहीं हूँ न ही आपका क्रिटिक, बस रेगुलर रीडर हूँ, जिसे आदत है कुछ लोगों को पढने की. मैं आपके ब्यान से इत्तेफाक रखता हूँ या नहीं, ये दूसरी बात है लेकिन इतना ज़रूर जानता हूँ आपको कहने का हक है. प्रेस कौंसिल के चेयरमैन को  क्या बोलना चाहिए या क्या नहीं ये रूल न तो IBN के आशुतोष बना सकते हैं न बीजेपी या कांग्रेस। आपका बयाँ हिस्ट्री प्रेरित था राजनीति नहीं. देश में घटी बड़ी घटनाएँ बिना राजनैतिक सपोर्ट के नहीं हो सकती ये अप भी जानते हैं, जनता भी, कांग्रेस भी, बीजेपी भी.
   
           सबको पता है 1984 के बाद के दंगों में अनौपचारिक रूप से सरकार ने सपोर्ट किया, 1992 बाबरी ढही, अब तो कल्याण सिंह भी मान चुके हैं की उन्होंने ये सब होने दिया.

          सर, गलती आपकी नहीं है, देश के उन 60% गधों की है, जो छोटे-मोटे बयानों से परेशां हो जाते हैं लेकिन देश की 50% भूखी जनता के बारे में सोचने का ख्याल उन्हें नहीं आता. गलती उन पढ़े लिखे मूर्खों की है जिनमे समझने की अक्ल नहीं है.
         आपके एजुकेशन सिस्टम, ज्यूडिसरी सिस्टम, देश की गंभीर समस्यायों पे किये गये कमेंट्स की बजाये आज जिन मुद्दों पे आपको घेर गया वो गलत है.

         देश का नागरिक कोई सा वस्त्र पहिन ले रहेगा देश का ही....और देश का नागरिक होने के नाते आपकी टिपण्णी जायज है.

        मैं नरेन्द्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व से प्रभावित हूँ, लेकिन ये मुद्दा न मोदी का न बीजेपी का न कांग्रेस का. ये सीधी-सीधी एक नागरिक होने के नाते कही गयी बात है, जिसे रखने का हक हम सबको है. आपको भी, मुझे भी.

        सॉरी आशुतोष, जिस 'अग्रेस्सिव वे' में आपने बोला, वो आपकी 'आप बेवकूफ हैं' ज़रूर कहता है.

Saturday, February 16, 2013

फांसी का राजनीतिकरण




                 बलवंत सिंह, मैं तुम्हें कोई हीरो नहीं बनाना चाहता...तुम गुनाहगार थे और हो. तुम सजा के हक़दार हो बस, लेकिन मुझे डर है ये सियासत तुम्हें भी कहीं उसी तरह ही न लटका दे जिस तरह अफज़ल को लटका दिया गया. मुझे डर है की जिंदगियों से खेलने बाले लोग अब सज़याफ्ताओं से खेलना शुरू कर दिए हैं और उन्हें सजा में भी सियासत नज़र आती है. एक गहमागहमी और एक शोर खड़ा करने और लोगों के इमोशंस से खेलने के चक्कर में दंगे कराने बाले लोग कहीं तुम्हें ही न चारा बना दें.
                तुम हत्यारे हो और तुम्हें सजा मिलनी चाहिए लेकिन अनैतिक और अमानवीय तरीके से नहीं. सुना है तुम्हारी कौम की भी एक अपनी पार्टी है जो धार्मिक तख़्त भी है....भरोसा उसपे भी मत करना. अगले इलेक्शंस के लिए तुम्हारी मौत प्रदेश की 35% नंगी और 40%  अनपढ़ जनता के इमोशंस से खलने उनके काम आयेगी. तुम्हारे लोग भी तुम्हारी मौत चाहेंगे.

Pic: from OneIndia.in

Thursday, February 14, 2013

मुफ्त की सांसें....


         
       
             एक चाँद हर वक़्त उगा रहता था, पूरी की पूरी चांदनी लिए, खिलने की आदत सी हो गयी थी उसे....दिन में भी आसमां के किसी कोने में नज़र आ ही जाता था......और अब, खुद को धोखा देने की आदत सी हो गयी है....चाँद दिखता तो नहीं है फिर भी एक फरेब अपने से कर होने का एहसास ज़रूर जगा लेता हूँ. मैं नहीं पूछुंगा चाँद तुम क्यूँ गये....हक है तुम्हारा जाना....लेकिन तुम्हारा आना?  ये सवाल आखिर तक सताएगा मुझे.

            उम्र के इस बसंती पड़ाव में इस तरह शोकगीत लिखना अच्छा तो नहीं है....लोग अक्सर हँस कर निकल जाते हैं.....गति से भागते लोग और ठहरा सा मैं....अजीब तो है कुछ...लेकिन ठहराव बाजिव है....वादा था तुमसे की इंतज़ार करूँगा ज़िन्दगी के इस कोने में बैठा......आज तुम्हारी आने की 'हाँ' को टटोलता हूँ तो निरुत्तर पता हूँ....फिर भी बैठा अकेले वादा निभा रहा हूँ.

            क्या तुम्हें पता है 'तीन सेकंड में एक' की गति से चलती मुफ्त की सांस को मैं तुमपर खर्च कर रहा हूँ. जिंदगी का मोल नहीं पहचानते शायद मेरे जैसे लोग...कभी-कभी सोचता हूँ अगर जीने के भी पैसे लगते तो? ....क्या फिर खर्चता अपनी सांसें तुमपर?....पता नहीं मुझे...जवाब तो नहीं है क्यूंकि खुदा अब भी तन्हाई, ज़िन्दगी और साँस मुफ्त में बाँट रहा है!

           कभी-कभी दाईं हथेली में दर्द बहुत होता है....तुम्हारे छूने का असर है या तुम्हारी तड़प का...इस मूक से पूछ भी नहीं सकता. देखो, क्या तुम्हारी बाईं कलाई का हाल भी वही है क्या? कलाई थाम ज़िन्दगी के सपने क्यूँ देखे थे?

           देखो, तुमने चाहा था, मैंने चाहा था, तो हम साथ थे...अब जबरन हाथ पकड़ खींचते नहीं ले जाऊंगा तुम्हें उस मकां तक जिसे हमने साथ मिल घर बनाने का वादा किया था....मैं अपने सपनों में वो मकां खंडहर होने दे सकता हूँ तुमसे जबरदस्ती नहीं!

         यह आखिरी बार है जब मैं तुमपर लिख रहा हूँ....मेरी बातों में ये रहा तुम्हारा आखिरी जिक्र...

                                       

                         सोचता हूँ 'शोना'
                         बुझा दू चाँद भी.

                        डरता हूँ,
                        कहीं ये मेरा जिक्र न कर दे तुमसे!

Sunday, February 10, 2013

....क्यूंकि औरतें जिस्म में संस्कार लिए पैदा हुई हैं!




                 औरत नहीं होती पैदा अकेली....साथ ले के आती है अपने साथ इज्ज़त और पोटली भर के संस्कार......बाप की इज्ज़त के डर से प्रेमी से अलग होती लड़कियां देखी हैं न तुमने? कितनी रूह रोईं हैं इसकी गिनती तो खुद ख़ुदा ने भी नहीं की होगी....हर गली के दूसरे छोर पे एक इश्क दफ़न होते देखा है.....और कहीं कहीं तो इश्क आशिकों के साथ दफ़न होता है.
 
             यहाँ 'शानो' और 'अब्दुल' मार दिए जाते हैं....क्योंकि इश्क कबूल नहीं ख़ुदा को. 'राम' और 'किशोरी' को पैदा ईश्वर ने अलग जात में किया था....इश्क भी सल्ला एक जात में करते तो आज जिंदा होते. यहाँ ज़िन्दगी और ख्वाइशों से बड़ी 'इज्ज़त' होती है....साल्ली झूठी इज्ज़त, भूख लगने पे जिसकी आप रोटियाँ तक सेंक नहीं खा सकते.

             महीनों रेप की शिकार हुई ललिता का बाप रेपिस्ट की  दी 'मुआवजे' की रकम चुपचाप रख लेता है.....पुलिस स्टेशन के सामने हो रही इस करतूत में पुलिस भी शामिल है.....शायद बाहर से मामले सैटल कराने में हमारी पुलिस ज्यादा माहिर है, केस सॉल्व करने में नहीं....और ललिता के बाप को पैसे ज्यादा प्यारे हो गये हैं बेटी की रूह से और अब उसे इज्ज़त से भी फर्क नहीं पड़ता!......ये साल्ला समाज बीमार है, झूठा है और इसी विकृत समाज में लोग में जिए जा रहे हैं. झूठी आबरू लिए. 

             पति से मार खाती औरतों से समाज को सरोकार नहीं है लेकिन विजातिये से शादी की लड़कियों से उन्हें कुछ ज्यादा वास्ता रहता है. रिश्तेदारों के रिश्ते भी इसी वक़्त जागते हैं.....और पड़ोसियों की हमदर्दी भी इसी वक्त शुरू होगी.

             ये समाज जिसमे घर की इज्ज़त टॉपर बेटी के इश्क करने से जाती है लेकिन गधे और निकम्मे बेटे के घर बैठने से नहीं! अजीब समाज है ये.

            ये कौन से संस्कार हैं जो सिर्फ औरतों को दिए जाते हैं? ऎसे बेहूदा संस्कार जिसमें घर पे पिटती औरतों का मुंह खोलना मना है....ऎसे संस्कार जिसमे रेप की शिकार औरतों की इज्ज़त जाती है करने बाले की नहीं....ऎसे संस्कार जिनमें दम घुट घुट के सारी उम्र जी लेती हैं लडकियां.....क्यूंकि इश्क गुनाह है यहाँ....सारे घर की इज्ज़त भी तो वही ढो रहीं हैं फिर!

           जिस्म्फ़रोशी जारी है क्यूंकि कोठे पे आदमी का जाना जारी है....क्यूंकि संस्कारों का बीड़ा आदमी को नहीं उठाना. 

         ये विकृत समाज औरतों को घूँघट और बुर्के से ढँक सकता है.....बस.

         ये विकृत समाज ऑनर किलिंग कर सकता है......बस. क्यूंकि इश्क पाप है....सुबह राधा-कृष्णा पूजने  बाले को शाम को प्रेम से नफरत हो जाती है....अजीब लोग हैं यहाँ!

          ये समाज औरतों को घर की चारदीवारी चुपचाप पिटने दे सकता है....बस. क्यूंकि औरतें जिस्म में संस्कार लिए पैदा हुई हैं!

          ये आदमियों का समाज है साहब..... इक्वलिटी,  उफ़! दुखती रग़ है है इक्वलिटी........आदमी और औरत को एकसाथ लगना पड़ेगा इक्वलिटी लाने।


Friday, February 8, 2013

...... कि जिंदा लम्हों की आवाज़ सुन सकूँ






                  माज़े से काट लाया हूँ ढेरों फुरसतें, जिससे कि जिंदा लम्हों की आवाज़ सुन सकूँ....बतिया लेता हूँ अपने से यूँ ही बैठे-बैठे, कि अबोला न हो जाये खुद से कहीं.....वैसे भी, तू ही रहती है मेरे भीतर, और बतियाता हमेशा मैं तुझसे ही हूँ! चल ख़त्म करता हूँ बात, ये खामखाँ ख्याल तो बुलबुलों कि तरह फूटते ही रहते हैं.



नियति ने माथे पे
उगा दी हैं कुछ झाड़ियाँ
और उनमें उगी हैं तेरी यादें!

टपक के गिरती है रोज़
तेरी इक याद,
....और चुभन से भर जाता हूँ मैं!



जब पतझड़ आखिरी बार पर फैलाएगा,
आखिरी सांस ले रही होगी धरती!

गुज़ारिश है,
तब भी न मिलना तुम मुझसे!



रूह से निकाल कुछ टुकड़े,
पन्ने कर देता हूँ लाल!

....और लोग अक्सर पूछ जाते हैं
'ऎसा अच्छा कंटेंट कहाँ से लाये?'



रात भर
जिस्म से खरोंचता रहा,
तेरे हर लम्स के धब्बे.

सुबह तक फिर भी
बची रही तू!
हर कोशिका छू के बैठी हो तुम.
खुद को खरोंचूं भी तो कितना!

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Happy Birthday Jagjit Singh.....

तुम्हारी आवाज़ से,
लफ़्ज़ों में भर जाते थे एहसास.

कितनी ही रातें,
तुम्हारे भरोसे तन्हा काटी हैं हमने!


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Pic: Mahabaleshwar

Wednesday, February 6, 2013

I Love You!


               
     
                    देखो, 'अहा! ज़िन्दगी' एक शब्द लिखने की एक अठन्नी देती है......तुमसे तो खामखाँ 'आई लव यू' बोल दिया....लिखता तो कम से कम डेढ़ रुपये तो कमाता.....अब देखो कल तक खुश था जिसके लिए, वो भी गम बन के आ गया सामने. वक़्त के साथ कब सही गलत, और कब गलत सही हो जाये, पता ही नहीं चलता!
                     अब ये मत कहना, तुम्हें समझ नहीं आया....ये साहित्यिक नहीं है. सीधे सीधे कहा है....बस.


Sunday, February 3, 2013

Nadiya Anjuman and her 'Light Blue Memories'


                   

             एक 25 बरस की लड़की जो तालिबानी शासन में भी हाई स्कूल तक पढ़ी और छुप छुप के साहित्य भी. जिसने लिखना चाहा और क्या खूब लिखा कि पहचानी गयी सारी दुनिया में. सिर्फ एक संग्रह जिसमें कुछ गज़लें थी और कुछ ताज़ा नज्में उसे शोहरत दे गया....और शायद साथ में ले के आया मौत भी......क्यूंकि उसने लिखने कि गुश्ताखी की थी, इसलिए पीट पीटकर मार दी गई. अफगानिस्तान में जन्मी 'नादिया अंजुमन' की शायद सबसे बड़ी गलती अफगानिस्तान में जन्म और तालीबान के साये में पलना था. तमाम मुश्किलों के बाद भी पढने बाली, और सार्थक नज्में लिखने बाली इस लड़की को उसके पति के परिवार बालों ने 2005 में पीट पीटकर मार दिया क्यूंकि उसने शायरी करने गुस्ताखी की थी.

अफगानिस्तान के दमनकारी समाज में जिस तरह की कविता लिखने का दुस्साहस अंजुमन ने किया उसके लिए इस्पाती हौसलों और यक़ीन की बुनियाद ज़रूरी थी. अफगानी स्त्रियों की सामाजिक परिस्थितियों को दुनिया के सम्मुख लाने वाली एक ख्यात पत्रकार क्रिस्टीना लैम्ब ने अपनी एक किताब में अंजुमन का ज़िक्र करते हुए लिखा है - "दोस्त बताते हैं की उसका (अंजुमन का) परिवार बेहद गुस्से में था की एक प्रेम और सौन्दर्य के बारे में लिखी एक औरत की कवितायेँ खौफ़नाक पशेमानी की वजह बनने जा रही थीं."

उनकी एक नज़्म का अंश--

"अगर मेरी किताब की आँखों में तुम पढ़ पाते हो सितारों को
 तो फ़क़त एक दास्तान है वो मेरे अनंत सपनों की ...  "


One Blog to Share-- 'Her Blue Print' 


'Light Blue Memories' is her very famous poem written after fall of Taliban. You can read its English translation  Here.

Saturday, February 2, 2013

banning of a film



           
                   किसी कंट्रोवर्सिअल सब्जेक्ट पर लिखना समझदारी नहीं होती, क्योंकि अनजाने में ही आप कई लोगों की भावनाएं आहत कर देते हैं, लेकिन इरादतन लोग कंट्रोवर्सी क्रिएट करें तो मेरा  और आपका गुस्सा वाजिब है. 'विश्वरूपम' देखिये शायद आप दूसरी बार भी देखना चाहें और इस देश की गंगा-जमुना संस्कृति (मिक्स कल्चर) पर गर्व भी महसूस करें.....और उनपर गुस्सा भी, जिन्होंने बेवजह इस फिल्म को हाशिये पे लाया है.
               ये पोस्ट आपके लिए है, और ये पोएम 'तमिल नाडू मुस्लिम मुन्नेत्र कज़ग्हम (TMMK) के लीडर 'जवाहिरुल्लाह' के लिए है जिन्होंने मज़हब की बिसात पे सियासी गोटियाँ बिछा इस फिल्म को रिलीज़ नहीं होने दिया. फिल्म देखिये, शायद आपको भी उसकी इस हरकत पे गुस्सा आये.


जब तुम्हारे बच्चे भी
बस्तों में
किताबों की जगह
ले जाने लगेंगे भर के बारूद.

जब तुम्हारी औरतों का भी
मज़हब नहीं रहेगा कोई,
सरे-आम पत्थरों से पीट-पीटकर
मार दी जाएँगी.
...और तुम्हारी बेटियों के
पढ़ने पे होगे सर कलम!

मज़हब की बिसात पे
सियासत की गोटियाँ बिछा
फिर क्या चिल्लापोगे तुम,
'बैन विश्वरूपम, 'बैन विश्वरूपम'??