Friday, February 27, 2015

गंगा मस्जिद -फ़रीद खां

 
यह बचपन की बात हैपटना की.
गंगा किनारे वाली गंगा मस्जिद’ की मीनार पर,
खड़े होकर घंटों गंगा को देखा करता था.

गंगा छेड़ते हुए मस्जिद को लात मारती,
कहती, “अबे मुसलमानकभी मेरे पानी से नहा भी लिया कर.
और कह कर बहुत तेज़ भागती दूसरी ओर हँसती हँसती.
मस्जिद भी उसे दूसरी छोर तक रगेदती हँसती हँसती.
परिन्दे ख़ूब कलरव करते.

इस हड़बोम में मुअज़्ज़िन की दोपहर की नीन्द टूटती,
और झट से मस्जिद किनारे आ लगती.
गंगा सट से बंगाल की ओर बढ़ जाती.
परिन्दे मुअज़्ज़िन पर मुँह दाब के हँसने लगते.

मीनार से बाल्टी लटका,
मुअज़्ज़िन खींचता रस्सी से गंगा जल.
वुज़ू करता.
आज़ान देता.

लोग भी आते,
खींचते गंगा जल,
वुज़ू करतेनमाज़ पढ़ते,
और चले जाते.

आज अट्ठारह साल बाद,
मैं फिर खड़ा हूँ उसी मीनार पर.
गंगा सहला रही है मस्जिद को आहिस्ते आहिस्ते.
सरकार ने अब वुज़ू के लिए
साफ़ पानी की सप्लाई करवा दी है.
मुअज़्ज़िन की दोपहर,
अब करवटों में गुज़रती है.

गंगा चूम चूम कर भीगो रही है मस्जिद को,
मस्जिद मुँह मोड़े चुपचाप खड़ी है.

गंगा मुझे देखती है,
और मैं गंगा को.
मस्जिद किसी और तरफ़ देख रही है.

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(मुअज़्ज़िन - अज़ान देने वाला)