Sunday, January 13, 2013

कपड़े पहिन लेने से बन्दर इन्सान थोड़ी न बन जाता है!


             कि उठा ली गयी बंदूकें, सत्ता के खिलाफ लड़ने के लिए...क्यूंकि सत्ता को फ़िक्र नहीं भूखों-नंगों की, सत्ता ने दिया है उन्हें एक नाम 'शेडूल ट्राइब्स', जिनके पास थे जंगल....फिर धीरे धीरे किया उनका विकास....जिसमें वो रहे तो भूखे और  नंगे ही लेकिन जंगल में न रहे...क्यूंकि रहने को बचने न दिए गये जंगल. फिर हुआ एक शोर, हाथों में थम गयी बंदूकें, लड़ गये लोग....दबाने आवाजें आ गयी सरकार....जंग जारी है, देखते हैं जीतता कौन है. भूखे-नंगे लोग या चमकती सरकार....या इन दोनों के बीच पिस रही आम अवाम, जिसे पीस जाती है कभी सरकार तो कभी लाल सलाम!!
                      तमाशा नहीं है ये कोई, फिर भी चल रहा है 45 बरस से.....और चलने दे रही है सरकार.



             कुछ बा-अक्ल बंदरों ने कर ली तरक्की, पहिन लिए कपड़े, बना लिए घर, फिर समाज और फिर मुल्क....बाँट ली ज़र-जमीन और फिर सकेरने बना दी सरहदें....बंदरों ने सरहदें बचाने रख दिए पहरेदार! अब कुछ बन्दर करते हैं सियासी हरकतें, समेटने ज़र-जमीन  और सरहदों पे मरते हैं पहरेदार.
          लोग कहते हैं बंदरों ने कर ली तरक्की....लेकिन चन्द कपड़े पहिन लेने से बन्दर इन्सान थोड़ी न बन जाता है!



            'तुम्हें पता है, एक रात में नहीं बदलता सब कुछ, न ही उगते हैं पेड़ पर पैसे'.....तुम्हारी बात मान कर लिया इंतज़ार, कुल 65 साल करवटें बदल-बदल निकाल दी रातें, कि कहीं न कहीं से बदलेगा कुछ और लगा दिया जिस्म, खरोच दी रूह, क्यूंकि पैसा पेड़ पे नहीं उगता. पूरे 65 साल बाद भी मेरा वजूद वहीँ हैं....अब मत कहो. 'थोडा इंतज़ार और करो.'  हड्डियों से खड्ग बना उखाड़ फेंकूंगा एक दिन.


खामखाँ ख्याल


               सुना है, सिर्फ पानी पे ग्यारह दिन रह सकता है आदमी जिंदा, लेकिन बिन सोये छ: दिन भी नहीं....खुदा, या तो तू दुनिया की हालत देख कई रात नहीं सोया होगा....तो अब तक तो मर गया है....या कर कोशिशें पूरी, बदतर हालात नहीं सुधरेंगे सोचकर, सो रहा है चैन की नींद!


             ट्रैफिक जाम में कांदिवली से ट्रेन पकड़ने जब मैं उस दिन गुजरा महानगर की संकरी गलियों से पैदल, जहां संकरी सड़क पे नंगे बच्चे खेल रहे थे कोई सा खेल, जहां घर के नाम पे पड़े थे चार पत्थर, लिपटे थे पोलिथिन की 'छत' से, तंग गली से गुजर न पा रही थी छोटी साइकिल....तो फिर चौड़ी सड़क पर कार में घूमना बेमानी लगता रहा कई दिन! मैं नहीं कहता खुदा, तूने 'सोशल डिसकिर्पेंसी' क्यूँ  बनाई, लेकिन इतनी ज्यादा भी क्यों?


            बचपन में एरोप्लेन देख बजाते थे तालियाँ, भागते थे भीतर से बाहर तक, देखने एरोप्लेन....अब उसमें बैठना भी नहीं लगता अचम्भा. ऐसा नहीं है, सारे गाँव के हालात सुधर गये हैं, उन्हें भी नहीं लगता अचम्भा. हालात मेरे सुधरे हैं, अभी 5000 लोगो के सुधारना बाकी हैं. दिल्ली के कानों में कहो कोई, कि तरक्की करना अभी बाकी है.



             तुम्हें कभी समझ नहीं आयेगा की रात रात भर जागना क्या होता है....वो भी बिना किसी वजह के. 'इश्क में लिप्त तुम्हें कहीं दिखता तो होगा मेरा मासूम सा चेहरा...जो बिना कुछ कहे-सुने ही चुपचाप निकल जाता होगा आँखों के सामने से....और एक पल पलक झपकाना भूल जाते होगे तुम'.....यही, यही सोचना होती है, मेरे रात भर जागने की वजह...लोग कहते हैं, ये भी कोई वजह है!?!


          क्यों कर इंसान सरे बाज़ार चिल्लाता  है मज़हबी बकवास, और क्यूँ कर लोग तालियाँ पीट पीटकर उसकी करते हैं तरफदारी....क्यों कर सरे आम लोग हो जाते है उद्वेलित, फिर क्यों कर हो जाते हैं दंगे.....कल शाम दंगे के बाद एक लाश से पूछा था मैंने....'मुझे क्या पता, मरने के बाद इंसान का मज़हब नहीं होता.' .....ये बड़ा अजीब सा जबाब दिया उसने!


           कुछ लोग कर लेते हैं बेअक्ल बातें, कुछ अनपढ़ उन्हें ठहरा देते हैं संत...फिर वो देश को समझ लेते हैं अपनी जागीर.....और सरे आम खोलते हैं जुबां....जिसका कोई सरोकार नहीं.
                       कब तक तुम मोक्ष पाने की आशा में 'आशाराम' बनाते रहोगे? लगता है 'जागो, ग्राहक जागो' की तरह, एक इश्तिहार 'जागो, अवाम जागो' का भी देना पड़ेगा.  
                      क्या तुम जागोगे अवाम?