Wednesday, February 22, 2017

द्वेष v/s पत्रकारिता

रवीश के भाई पे इल्ज़ाम लगने के बाद Abhishek Upadhyay साहब का लेख पढ़ा. वैसे तो उनके और उनको काम देने वाले चैनल की पत्रकारिता-प्रतिभा जगजाहिर है लेकिन प्रत्यारोप करने की बजाय उनके लेख पर ही आयें तो उनके लेख से तीन बातें निकल सामने आती हैं-
१. रवीश का सबसे बड़ा गुनाह ये है कि वो अपना नाम रवीश कुमार लिखते हैं न कि पूरा नाम- ‘रवीश कुमार पांडे’.
२. रवीश के भाई पे इलज़ाम लगा है (हालाँकि अभी तक असत्यापित है.) इसलिए उनको कटघरे में खड़ा कर दिया जाना चाहिए.
३. रवीश ने पहले एक बार स्क्रीन काली की थी (अभिषेक शायद इसी से खैर खाय बैठे हैं, लेख से तो यही लगता है) तो इस मामले में भी उन्हें कर देनी चाहिए.

प्रश्न है क्यूँ हम किसी के व्यक्ति के रिश्तेदार पे इलज़ाम लगने पर या गुनाहगार साबित होने पर हम व्यक्ति के चरित्र का हनन और उत्खनन करने लगते हैं? क्यूँ हम उसे भी कटघरे में खड़ा करने लगते हैं?
क्या आप भी चाहेंगे कि आपके द्वारा किये किसी कृत्य के लिए आपके भाई, बहिन या परिवार को भी टारगेट किया जाए, कटघरे में खड़ा किया जाए. बिना किसी बात पे, बिना किसी सत्यापन के, बेवजह ही.

क्या आप चाहेंगे की साबित हुए बिना ही आप कठघरे में हों? (हालाँकि मीडिया यही कर रहा है, और दिल्ली-2005 केस में तो पुलिस ने दो लोगों को 12 साल जेल में ठूंसे रखा.)
और क्या आप मानते हैं की नाम का रवीश कुमार होना या रवीश पाण्डे न होना कोई जुर्म है? है तो किस विरह पर? और क्यूँ?
(मेरे अनुसार तो व्यक्ति प्राउड-पंडित, प्राउड-बनिया, प्राउड-ठाकुर विथ सरनेम न हो तो बेहतर ही है)

क्या आप मानते हैं की किसी सन्दर्भ में किया गया कोई कार्य हर बार ही करना चाहिए? इसलिए स्क्रीन काली करना यहाँ भी ज़रूरी है, और सिर्फ उनसे ही आपेक्षित है! क्यूंकि राज्य स्टार का एक (इल्जामित) नेता उनका भाई है? मुद्दे की
गहनता (intensity) ध्यान रखे बिना ही.

बचपन की एक कहानी है, एक रेखा को दो तरीके से छोटा किया जा सकता है. पहला, मिटा के, दूसरा एक दूसरी रेखा खींचे के. वैसे उपाध्याय साहब बड़ी रेखा खींच पायें ये उनसे मुमकिन भी नहीं और अपेक्षित भी नहीं है.

हाँ वो यही कर सकते हैं, करते रहे हैं. करते रहिए. उदहारणत: खुर्शीद अनवर सुसाइड केस में उनका चैनल और वो पहले भी बिना गुनाह साबित हुए ही एक व्यक्ति को गुनाहगार ठहरा आत्महत्या करने को मजबूर कर चुके हैं.