मेरे प्रिय हिन्दी माध्यम और अपने अपने विषयों में कमज़ोर छात्रों,

मैं यह पत्र या लेख इसलिए नहीं लिख रहा हूं कि मैं इसकी योग्यता रखता हूं। बल्कि इसीलिए लिख रहा हूं क्योंकि ऐसे विषयों पर लिखने के लिए जिस योग्यता और अध्ययन की ज़रूरत होती है, वो मेरे पास नहीं है। हिन्दी माध्यम और किसी भी विषय के कमज़ोर छात्रों के तनाव में टूटने की ख़बर से मन विचलित हो जाता है। लगता है कि उनकी जगह मैं ख़ुद टूट गया हूं। ऐसा इसलिए लगता है कि मैं कमज़ोरी की आशंकाओं से गुज़रा हूं। जनवरी आते ही अप्रैल की आशंका में अजीब सी दहशत घेर लेती थी। ऐसा लगता था कि दुनिया मेरे लिए उजाड़ हो गई है। इम्तहानों के विषय छुरी लेकर मेरी गर्दन पर रगड़ रहे हैं। कभी इस दोस्त में सहारा ढूंढता था तो कभी उस दोस्त में। कभी लगता था कि काश ये टीचर मुस्कुरा कर कुछ बता दे तो अच्छे नंबरों से पास कर जाऊंगा। इम्तहान के दिन आते थे तो बिखर जाता था। अकेले में और सबके सामने भी रोने लगता था। मैं इन मनोदशा का सहयात्री रहा हूं, इस अनुभव के सहारे आपसे कुछ बात कहना चाहता हूं।

बीते हफ्ते आई आई टी दिल्ली के छात्र नितिश ने अपने हॉस्टल की छत से छलांग लगा ली। अमेटी यूनिवर्सिटी में मैकेनिकल इंजीनियरिंग के तीसरे साल के छात्र मुधर मिहिर ने आत्महत्या ही कर ली। 2012 में एम्स के एक छात्र अनिल कुमार मीणा ने ख़ुदकुशी कर ली थी। अनिल राजस्थान के एक गांव का रहने वाला लड़का था। अनुसूचित जनजाति का यह छात्र जब एम्स पहुंचा तो अंग्रेज़ी ने उसके आत्मविश्वास को तोड़ दिया। अनिल की आत्महत्या को लेकर सिस्टम से लेकर समाज में उस साल ख़ूब हलचल मची थी। नितिश की आत्महत्या की कोशिश के बाद आई आई टी प्रशासन भी हिला हुआ है। उसने हिन्दी सेल को फिर से सक्रिय करने का एलान किया है. छात्रों से अपील की है कि अवसाद से घिरे अपने दोस्तों पर नज़र रखें। उनकी मदद करें। शिक्षक भी अपनी तरफ से कोशिश कर ही रहे होंगे। लेकिन जैसा काम का अतिरेक और संसाधनों की कमी का दबाव शिक्षकों पर है, उसके बीच एक एक छात्र पर ध्यान देना आसाम नहीं है।
इसलिए मैं आप सब कमज़ोर छात्रों से बात करना चाहता हूं। डरना, घबराना एक सामान्य प्रक्रिया है। ज़रूरी है कि हम इस डर के कारणों को समझें। क्यों किसी को आई आई टी या एम्स में आकर दहशत होती है। विषय के कारण या भाषा के कारण या परिवेश के कारण दहशत होती है? क्या वहां की विशालकाय और निर्जीव सी इमारतें आपके भीतर दहशत पैदा करती हैं? इस सवाल का जवाब बहुत ज़रूरी है। हम कहां कहां से इन संस्थानों में पहुंचते हैं। बहुत से ऐसे छात्र होते हैं जो सीधा गांव से निकल कर आते हैं, जिनके घर कच्चे होते हैं, उनके सामने एक आधुनिक और अनजान से इमारत दैत्य की तरह खड़ी होती है। हमारी संस्थाओं की इमारतें चाहे जितनी आधुनिक हों, चाहे जिस किसी महान आर्किटेक्ट ने बनाया हो मगर वो हम जैसे परिवेश से आए छात्रों को पहली नज़र में डराती हैं। उनकी बनावट हमारे परिवेश से मिलती जुलती नहीं है। लंबे और सुनसान गलियारे आपको बताते हैं कि आप अकेले हैं। इन इमारतों के भीतर कई तरह के दियारा क्षेत्र होते हैं। हम गावों में दियारा क्षेत्र किसे कहते हैं, सब जानते हैं। अनजान और निर्जन क्षेत्र को दियारा कहा जाता है। इन इमारतों के भीतर गुज़रते हुए हमारे भीतर डर बैठ जाता है। सबके भीतर नहीं बल्कि मुमकिन है कि कई लोगों के भीतर बैठता है। कुछ लोग जल्दी उबर जाते हैं, कुछ लोग उबर नहीं पाते हैं।
जैसे ही हम किसी नए संस्थान में पहुंचते हैं, हम कई तरह से अजनबी होने लगते हैं। दोस्त नए होते हैं या होते ही नहीं हैं। टीचर एक अलग ही भाषा में दक्ष मिलते हैं। वो अच्छे होते हैं मगर उनकी ट्रेनिंग एक ऐसी भाषा में हो चुकी होती है कि वे भारत में रहकर स्प्रिंग और ऑटम को फील करते हैं, बसंत या शरद ऋतु को नहीं। उनकी नियत अच्छी होती है मगर उनकी संवेदनशीलता या ज़हनीयत को कई छात्र अपने करीब नहीं पाते हैं। इसलिए जब वे शिक्षक हमारे करीब आते हैं तब भी भरोसा नहीं होता। या तो हम उनसे प्यार करने लग जाते हैं या फिर उनसे आश्वस्त नहीं होते हैं। अलग अलग भाषा, परिवेश, आर्थिक स्थिति के नए छात्र हॉस्टल में मिलते हैं। कोई सीधा लंदन या अमरीका के सुपर हिट गानों से जुड़ा होता है तो कोई अभी तक अपने लोकगीतों में ही धंसा रहता है। हालांकि हिन्दी गानों के उद्योग ने इस मामले में बहुतों को एक समान बना दिया है। इसलिए हॉस्टलों के भीतर तमाम तरह के अनजान लोगों के कमरे से हिन्दी गानों की आवाज़ आती रहती है। वही एक ज़रिया है जिससे लगता है कि जिसे मैं नहीं जानता, वो कम से कम उस गाने को जानता है, जो मैं जानता हूं। मेरी राय में ऐसे संस्थानों में हिन्दी गानों की तरह तरह प्रतियोगिता होती रहनी चाहिए। कभी जगजीत फेस्टिवल मने तो कभी अरिजीत फेस्टिवल मने। मैं होता तो 90 के गानों का फेस्टिवल करता। ख़ुदगर्ज के गाने बजवाता। यहीं कहीं जियरा हमार, ए गोरिया गुम होई गवा रे।
मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूं। फिर भी ख़ुद के कमज़ोर वक्त को याद करते हुए आप तक पहुंचना चाहता हूं। आप हिन्दी को लेकर इतना मत घबराइये। अंग्रेज़ी डराती है मगर वो ऐसी है नहीं। आपकी भाषा में नेताओं ने झूठ बोलने और नफ़रत फैलाने की शब्दावली ही सौंपी है। लेखकों ने ऐसी शब्दावली का इस्तमाल किया है जो आपके परिवेश के अनुसार एक तरह की अंग्रेज़ी ही है। बहुत से शब्द अब सिर्फ एक किताब से दूसरी किताब की यात्रा कर रहे हैं। लोगों ने उन शब्दों को या शब्दों ने उन लोगों को छोड़ दिया है। ऐसे में बहुत से कमज़ोर छात्रों को उनकी मातृभाषा भी आश्वस्त नहीं करती है। ये समस्या सिर्फ हिन्दी माध्यम छात्रों की नहीं है। सभी भाषाई माध्यम के छात्र इस संकट से गुज़र रहे हैं। भाषा को हमने खिलौना बना दिया है। उसे लात जूतों से मारते रहते हैं एक दिन वही हमें मार देती है। भाषा भी हत्या करती है। भाषा भी आत्महत्या करने को मजबूर करती है। हमें इस तथ्य को स्वीकार करना होगा। भाषा हमसे हमारी लापरवाही का बदला लेती है। वो हमें सिर्फ दूसरों के ख़िलाफ़ हिंसक नहीं बनाती है बल्कि हमें भी मार देती है। इसलिए भाषा के लिए श्रम कीजिए। पसीना बहेगा तो विश्वास बढ़ेगा।
अंग्रेज़ी नहीं सीख सकते तो पहले अपनी हिन्दी को साध लीजिए। जैसे ही आप एक भाषा में सक्षम होने लगेंगे आपको अंग्रेज़ी भी मुश्किल नहीं लगेगी। भाषा के लिए अभ्यास करना होगा। साहित्य का सहारा लेना होगा। आप कविताओं के पास जाइये। वहां शब्दों की ख़ूब इंजीनियरिंग मिलेगी। साहित्यकार आपको आर्किटेक्ट लगेंगे। जो शब्दों से न जाने संवेदनाओं की कैसी कैसी इमारतें खड़ी कर देते हैं और क्रूरता के ताकतवर से ताकतवर महलों को गिरा देते हैं। आप हिन्दी में ही बेहतर नहीं होगे आप अपने विषय में गहराई से नहीं सोच सकते हैं। समस्या यह है कि हम अपनी ही मातृभाषा में कमज़ोर होते हैं। इसे निजी तौर पर और सार्वजनिक तौर पर स्वीकार कीजिए। पूछते रहिए। जब किसी लेख को पढ़ें तो ध्यान दें कि किस तरह से लिखा गया है, उनका संपादन कैसे किया गया है। ख़ुद मेरे ही न्यूज़ रूम में कोई ‘ऊपर’ लिखता है तो कोई ‘उपर’। तो क्या ‘उपर’ लिखने वाला आत्महत्या कर ले। नहीं। ‘उपर’ लिखने वाला ‘ऊपर’ लिखना सीखेगा। यह काम सबसे आसान है और रास्ता भी।
मैं कल ही अपने एक संपादक मित्र के पास गया था। उनसे पूछ रहा था कि अर्ध विराम या कॉमा कहां कहां लगाते हैं,अनुस्वार का इस्तमाल कब कब करते हैं। उनकी पत्नी ने एक दिन दोस्तों की जगह दोस्तो करके भेज दिया था। हिंदी की बिंदी है। आसानी से सही जगह पर नहीं लगती है। ध्यान से लगाना होता है। बिना किसी झिझक के मैं पूरे परिवार के बीच अपनी इन कमज़ोरियों या अक्सर होने वाली चूक के बारे में पूछ आया। अगर मैं ख़ुद को इस बहकावे में रखता कि मैं हिन्दी का एंकर हूं और हिन्दी का ज्ञाता हूं तो मेरे अंदर तरह तरह की जटिलताएं घर करती जाएंगी। उन जटिलताओं में से एक है डर। दहशत। जिससे भागते भागते हम ज़िंदगी ख़त्म कर लेते हैं। मेरे पास एक पर्ची है। जीर्णशीर्ण अवस्था में है। जब एनडीटीवी में चिट्ठी छांटने के बाद अनुवाद करने का काम मिला तो ईरान और इराक में ग़लती कर जाता था। मनहर ने एक पर्ची पर लिखकर दिया। 1996 से लेकर आज तक वो पर्ची मेरे पर्स में है। तब मैं एम ए पास कर चुका था। फ़ाइल में बड़ी ई लगाये या छोटी इसी में कंफ्यूज़ रहता था। ये मेरे सहयोगी मनहर की लिखावट है। इच्छा, इकाई, ईसाई लिखकर दिया था। बीस साल से पर्स में है।
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मुझे अपनी कमज़ोरियों को लेकर कोई शर्म नहीं है। मैंने हाल ही में अपनी एक दोस्त से कहा कि मुझे लगता है कि मैं लिखते वक्त प्रश्नवाचक चिन्हों का सही इस्तमाल नहीं कर पाता हूं। क्या आप मेरी मदद कर सकती हैं? उन्हें कैसा लगा, मुझे इसकी फ़िक्र नहीं, मगर उनके जवाब से मैं कुछ सीख गया। दोस्त सिर्फ हाहा हीही के लिए नही होते। वो हमारे सामुदायिक शिक्षक होते हैं। मैं अपनी कमज़ोरियों से भागूंगा तो एक दिन घिर जाऊंगा। ख़ुदकुशी जैसे ही ख़्याल आएंगे। अवसाद घेर लेगा। भाषा वरदान में नहीं मिलती है। जीवन से मिलती है और इसे जीवन भर सीखना पड़ता है। मैं यह बात अपने चैनल पर भी कहता हूं। मुझे अंग्रेज़ी नहीं आती है। मैं गणित में फिसड्डी था। था तो था। हूं तो हूं। घंटा मेरा क्या कर लेंगे आप। मैं इन सबके कारण जान नहीं देने वाला। सिम्पल। तो निकलिये कमरे से बाहर और पहुंचिये लाइब्रेरी। खोलिये किताब। विषय को समझना शुरू कीजिए। साथ साथ भाषा का सामान भी कीजिए।
मैंने यही किया। मुझे पता था कि मैं विषय और भाषा में कमज़ोर हूं। आज भी हूं। बस पढ़ने के लिए दम साधने लगा। आज भी सपने देखता हूं कि एक दिन फिर से गणित पढ़ूंगा और बिना डरे दसवीं का पर्चा दूंगा। आज तक अफसोस है कि मैथ्स का पेपर क्यों रोते रोते देने गया था। मैं एक बार गणित का इम्तहान हंसते देना चाहता हूं। कमबख़्त अभी तक प्रतिशत निकालना नहीं आया। ख़ौर। अंग्रेज़ी अब भी कमज़ोर है मगर पढ़ते पढ़ते समझने लगा हूं। कभी कभार बोल भी लेता हूं। प्रजेंट इंडिफनिट टेंश वाले वाक्यों के बाद दांत चियार देता हूं। बहुत से शब्दों के मतलब नहीं जानता मगर संदर्भ में समझ जाता हूं। मेरी पत्नी ने ये बात बताई थी। शब्दों को संदर्भ से भी समझा करो। उन्होंने तो चलते चलते ये बात कही थी, मैं इसे हमेशा के लिए संभाल कर रख लिया। शब्दकोश पलट लेने में कोई बुराई नहीं है। मेरी एक टीचर ने कहा था नो क्वेश्चन इज़ ए सिली क्वेश्चन। पूछो जो पूछना है। उनके इस वाक्य ने मुझे पूछने के डर से हमेशा आज़ाद कर दिया। कुछ लोग जल्दी सीख जाते हैं, कुछ लोगों को जीवन लग जाता है। मैं दूसरी श्रेणी का छात्र हूं। मगर कोशिश करते रहिए। सीखते सीखते जीवन भी बदल जाता है।
तो मेरे हिन्दी माध्यम के सहयात्रियों, डरो मत। मैं तुम्हें हिन्दी की फ़र्ज़ी संभावनाओं से भी लबालब नहीं करना चाहता। अंग्रेज़ी तो सीखनी ही होगी। कोई कहे कि इसके बिना काम चल जाएगा तो उसे कमरे से भगा दो। इसके बिना तुम्हारी ज़िंदगी मे काम नहीं चलेगा क्योंकि तुम जिस देश में पैदा हुए हो, वहां भाषा को लेकर बकवासबाज़ी ज़्यादा होती है, काम कम। नेताओं के फर्ज़ी आत्मविश्वास के बहकावे में मत आता। उनका आत्मविश्वास सत्ता और भीड़ से बना होता है। अकेले में दारोगा के सामने वे भी वैसे ही भरभराते हैं जैसे हम और आप। इसलिए अंग्रेज़ी सीखना। सीखी जा सकती है। मगर अच्छी अंग्रेज़ी तभी आएगी जब आपकी हिन्दी अच्छी होगी। भाषा बेहतर नहीं होगी तो आप कभी मज़बूत नहीं होंगे। आप जैसे ही हिन्दी में सक्षम होंगे, अंग्रेज़ी बगल में बैठने लगेगी। बाकी आप अंग्रेज़ी की दुनिया की कुलीनता, शालीनता,गौरव,अभिमान, घमंड ये सब रहेगा। ये चीज़ें वास्तविक भी होती हैं और काल्पनिक भी। आप भी तो आई आई टी में आकर दूसरों के साथ वही करते हैं। उन्हें अहसास कराते हैं कि आप आई आई टी के हैं। ये समस्या अंग्रेज़ी या हिन्दी की नहीं है, हमारी संस्कृति की है। सामंतवाद, जातिवाद हमारे ख़ून में है।
मेरे पास वक्त की घोर कमी है। मैं बस आप लोगों के बीच आ नहीं सकता। आने की इच्छा भी नहीं है। मैं ख़ुद को समेटने की तैयारी में हूं। धीरे धीरे आप सबकी ज़िंदगी से दूर होना ही होगा। उसके अनेक कारण हैं। फिर भी अगर आप मेरे पास आ सकें तो स्वागत है। अगर मैं आपको इस डर से आज़ाद कराने के काम आ सकूं तो स्वागत है। बस ख़ुदकुशी मत करो। टूटो नहीं। मुझे रोज़ दस मित्र डराते हैं। कोई कहता है कि चुप रहो,सरकार नौकरी खा जाएगी। तुम्हें इस फ़र्ज़ी मुकदमों में फंसा दिया जाएगा। नौकरी नहीं रहेगी तो भीख मांगोगे। मेरे ही पेशे के लोगों ने अकेला कर दिया है। रोज़ ऐसी बातें सुनता हूं। अचानक देखता हूं कि कुछ वायरल हो गया है जिसकी सत्यता से कोई लेना देना नहीं है। इस देश में चोर चोट्टे नेता बन गए और हम सोशल मीडिया की बदनामी से आत्महत्या कर लें। ग़ज़ब। मैं कोई काठ का बना बहादुर नहीं हूं। मुझे डर लगता है। मुझे भी बेकारी की चिंता सताती है। नौकरी किसे नहीं चाहिए। मुझे भी चाहिए। परिवार चलाने का डर दिखाने वाले दोस्तों से कह देता हूं कि अरे तो चमचागिरी कर लेंगे। दुनिया को बता देंगे कि हम बिक गए हैं और खा रहे हैं। जैसे सब खा रहे हैं। क्या बिके हुए पत्रकारों को भारत के समाज ने उठाकर बाहर फेंक दिया है। नहीं न। कैसा समाज है, जो एक पत्रकार को उसे पेट का डर याद दिलाता है। चिरकुट सब।
ख़ैर, जो नहीं होने वाला है वो मुझसे नहीं होगा। डोंट वरी। यह प्रसंग इसलिए सुनाया कि आप किसी विषय में फेल होकर नाहक शर्मिंदा महसूस न करें। आप वो लोग हैं जो दंगाई, हत्यारे, गुंडे और झूठ बोलने वालों को वोट देकर चुनते हैं। क्या यह हमारे समाज का कमाल नहीं है? जिस देश में आप शांति से एक चौराहा नहीं पार कर सकते, वहां फेल होना कोई अपराध नहीं है। फेल होने पर आराम से घर और दोस्तों को बताएं कि फलां सेमेस्टर में फेल कर गए हैं। इस सिस्टम में फेल नहीं होगा तो कहां होगा। जहां पढ़ाने के लिए टीचर नहीं हैं, जो हैं उनमें से कई पढ़ाते नहीं हैं, बहुत से ठेके पर रखे गए हैं जो क्लास छोड़कर नौकरी पक्की कराने के लिए लाठी खाते रहते हैं, जहां नकल माफिया का राज है, व्यापम घोटाले पर चुप्पी है, पुलिस किसी कमज़ोर को यूं ही दो चार लाठी बरसा कर चल देती है,जहां जजों को कानून के आधार पर फैसला देने में डर लगता है, वहां आप फेल नहीं होंगे तो कहां होंगे। भारत में फेल होने की तमाम अनुकूल परिस्थितियां मौजूद हैं। इसलिए यहां फेल होना कोई बुरी बात नहीं है।
एक बार कमला नगर मे एक टेलिफोन एक्सचेंज के बाहर खड़ा था। दो पंजाबी लड़के आए। अपनी मम्मा को फोन किया कि थर्ड डिविज़न से पास हुए हैं। पार्टी करने जा रहे हैं। मैं सन्न रह गया। अगर उत्तर भारत के सामाजिक सडांध में पैदा हुए हैं तो अवसाद और निराशा विरासत में मिलेगी ही। इसलिए कभी कभी पंजाबी और सिख लोगों से दोस्ती कीजिए। उन लोगों ने जो विस्थापन और दर्द झेला है वो हम उत्तर भारतीयों ने नहीं झेला है। इसके बाद भी वो समुदाय मुस्कुराने का हौसला रखता है। इसलिए सिख भाइयों से खुश होना थोड़ा उधार ले लीजिए। मस्त रहिए। संकट तो उनके यहां भी हैं। लेकिन देखिये कर्जा लेकर की गई शादियों में वे कितना डांस करते हैं। किसी बिहारी की शादी में जाइये, ऐसे मिलेंगे जैसे कोई ग़म का मौक़ा हो।
आपका हक बनता है कि आप अपने लिए भी एक चुनाव करें। वो चुनाव है एक ज़िंदगी का। हिन्दी माध्यम के हैं तो क्या हुआ। फिजिक्स में कमज़ोर हैं तो क्या हुआ। जान नहीं देना है। जानना है। सीखना है। अवसाद या डिप्रेशन सिर्फ आपकी समस्या नहीं है। ये हिन्दी अंग्रेज़ी की समस्या नहीं है। हमारे आस पास का ये जीवन ही ऐसा है। हम सब डिप्रेशन के शिकार हैं। ख़ुद मैं भी। आत्महत्या मत करो। अपने फेलियर पर बात करो। बल्कि सभी संस्थाओं में फेलियर फेस्टिवल होना चाहिए। जहां हम अपनी असफलताओं पर हंस सकें। उन पर बात कर सकें। मैं जल्दी ही एक फेलियर फेस्टिवल का आयोजन करने की सोच रहा हूं। आप प्लीज़ लाइफ़ में कैरी ऑन रहो। ज़्यादा लोड मत लो। ये बात मैं आपसे ही नहीं, ख़ुद से भी कह रहा हूं।
आपका भूतपूर्व प्यारा
रवीश कुमार