Tuesday, December 13, 2016

कैसे पूरा होगा सबको घर का सपना

मानव सभ्यता की विकास यात्रा में जब लोगों ने एक जगह बसना शुरू किया तो घर एक अहम बुनियादी जरूरत के रूप में सामने आया। समय के प्रवाह में कई उतार-चढ़ाव आए, लेकिन एक अदद मकान आज भी लोगों के पहले सपने में शामिल है। आजादी के बाद से ही रोटी, कपड़ा और मकान हमारी प्राथमिकता में सबसे ऊपर रहे हैं। यह बात और है कि ये प्राथमिकताएं कभी पूरी नहीं हो पार्इं। कभी धन की कमी, कभी राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव, कभी योजनाओं का ठीक से क्रियान्वयन न हो पाना तो कभी लाभार्थियों की पहचान में गड़बड़ियां। सिर पर छत का सपना विशाल आबादी खासकर निचले तबके के लिए सपना ही बना रहा।
अब नरेंद्र मोदी सरकार ने ‘सबके लिए आवास’ योजना की घोषणा की है। तय किया गया है कि 2022 तक सभी भारतीयों को घर मुहैया करा दिया जाएगा। सरकार का कहना है कि उसने पहले की सरकार की इंदिरा आवास योजना की विफलता से सबक सीखा है और नई योजना में पुरानी खामियों को दूर कर दिया गया है। नई योजना शहरी और ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों में एक साथ काम करेगी। सरकार ने आगामी तीन साल में तकरीबन एक करोड़ घर बनाने का लक्ष्य रखा है। क्या इस रफ्तार से लक्ष्य को पूरा किया जा सकता है? देश भर में घरों की मांग और आपूर्ति का अंदाजा लगाने के लिए सरकार ने एक समिति का गठन किया था। समिति के मुताबिक शहरों में लगभग दो करोड़ घरों की कमी है और ग्रामीण इलाकों में इसके दोगुने से थोड़ा ज्यादा यानी पांच करोड़ के आसपास घरों की कमी है। सरकार की योजना है कि नरम शुरुआत करके बाद के सालों में तेजी से घरों का निर्माण किया जाए। हालांकि इस राह में कई मुश्किलें भी हैं। पहला, बहुत-से जानकारों ने सरकार के आंकड़े पर सवाल उठाया है। 2011 की जनसंख्या के आंकड़ों के आधार पर किए गए नमूना सर्वेक्षणों से भारतीय सांख्यिकीय संस्थान के शोधकर्ताओं का कहना है कि देश में घरों की वास्तविक मांग सरकारी आंकड़े से तिगुनी यानी इक्कीस करोड़ से ज्यादा है।
केपीएमजी जैसी परामर्शदाता संस्थाओं ने भी देश में घरों की मांग सरकारी आंकड़े से ज्यादा बताई है। ऐसे में सरकार के अभियान से जरूरतमंद लोगों के छूट जाने का खतरा बना हुआ है। दूसरा सवाल योजना के वित्तपोषण से जुड़ा है। केंद्र सरकार ने तीन साल के लिए तकरीबन अस्सी हजार करोड़ रुपए की राशि मंजूर की है। इसमें से लगभग बीस हजार करोड़ रुपए नाबार्ड (राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक) से कर्ज लेकर जुटाए जाएंगे। किसी घर की निर्माण लागत में केंद्र सरकार का हिस्सा साठ फीसद होगा और बाकी चालीस फीसद योगदान राज्य सरकारों को करना होगा। पहले केंद्र और राज्य सरकारों के बीच यह अनुपात अस्सी और बीस फीसद का था। सही बात है कि राज्यों को चौदहवेंं वित्त आयोग से ज्यादा रकम मिलेगी, फिर भी राज्यों की माली हालत को देखते हुए कहा जा सकता है कि चालीस फीसद का बोझ कुछ ज्यादा ही होगा।
खासकर गरीब राज्यों में वित्तीय मोर्चे पर लेटलतीफ हो सकती है। बहुधा देखा गया कि लाभार्थियों को पहली किस्त मिल जाती है लेकिन समय पर दूसरी किस्त नहीं मिल पाती है। जब तक दूसरी किस्त मिलती है तब तक पहले चरण में किए गए निर्माण-कार्य की हालत खस्ता हो जाती है। मकान की निर्माण-लागत में इजाफा हो जाता है और लाभार्थी तय मानक का घर नहीं बनवा पाता है। यह भी सच है कि घरविहीन लोगों की सबसे बड़ी तादाद भी गरीब राज्यों में है। बेहतर होता कि केंद्र और राज्य सरकारें पहले इस योजना की प्रस्तावित रकम को किसी कोष में इकट्ठा कर लेतीं और वहां से सीधे लाभार्थियों के बैंक खाते में हस्तांतरित किया जाता।
तीसरी अहम बात। आवास संबंधी पुरानी योजनाओं की असफलता का एक बड़ा कारण था कि लाभार्थियों की पहचान पारदर्शी और निष्पक्ष तरीके से नहीं की गई थी। जरूरतमंदों के नाम छूट गए, वहीं दबंग लोग योजना का नाजायज फायदा उठाने में कामयाब रहे। सरकार का कहना है कि इस बार 2011 की आर्थिक-सामाजिक जनगणना के आंकड़ों से लाभार्थियों की पहचान की जाएगी। लेकिन इस काम को अंजाम देने वाला सरकारी अमला वही है और उसकी कार्यशैली भी वैसी ही है। ऐसे में दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि इस दफा लाभार्थियों की पहचान निष्पक्ष तरीके से ही होगी और वास्तविक हकदार अपने हक से वंचित नहीं होंगे।
चौथी बात है, घर की समस्या के प्रति समग्र सोच का अभाव। नई योजना (और पुरानी योजनाएं भी) केवल एक चीज पर जोर देती है और वह है चयनित लाभार्थियों के लिए घरों का निर्माण। सरकारी विभागों को लक्ष्य सौंप दिया जाता है और अधिकारी येन-केन-प्रकारेण उसे पूरा करने में जुट जाते हैं। अगर हमें वाकई हर भारतीय के सिर पर छत मुहैया करवानी है तो इस समस्या के सभी पहलुओं पर विचार करते हुए योजना बनानी होगी। मसलन, ग्रामीण और शहरी इलाकों में घरविहीन लोगों में बड़ी तादाद उन लोगों की है जिनके पास घर बनाने के लिए जमीन ही नहीं है। यह योजना घर बनाने के लिए आर्थिक मदद उपलब्ध कराती है, जमीन का इसमें कोई प्रावधान नहीं है। जाहिर है, भूमिहीन लोग इसका फायदा नहीं उठा पाएंगे।
ऐसे में सबको घर मुहैया कराने का सपना कैसे पूरा होगा? देश में बड़ी तादाद में ऐसे लोग भी हैं जो सरकारी तौर पर घरविहीन की श्रेणी में नहीं आते हैं, पर उन्हें घर की जरूरत है। उदाहरण के तौर पर, बीपीएल रेखा के थोड़ा ऊपर झूल रहे निम्न मध्यवर्गीय श्रेणी के लोग या पुराने एक कमरे के दड़बेनुमा घर में बड़े परिवार/संयुक्त परिवार के साथ घिसट रहे लोग। ऐसे लोगों को अगर सरकार सीधे मदद नहीं भी देना चाहे तो राष्ट्रीय आवास बैंक या नाबार्ड की सहायता से इनको रियायती दरों पर आवास ऋण उपलब्ध कराने की कोशिश होनी चाहिए। तब ये लोग भी अपनी न्यूनतम जरूरतों के पूरा करने लायक सुरक्षित घर बना सकेंगे और सम्मानजनक जीवनयापन कर सकेंगे।
शहरी गरीबों के लिए घर और रोजी-रोटी का सवाल आपस में नाभिनाल की तरह गुंथा हुआ है। कम आमदनी के कारण ये लोग यातायात का खर्च उठा पाने में सक्षम नहीं होते हैं, लिहाजा अक्सर कार्यस्थल के पास ही टिन-टप्पर में गुजारा करते हैं। इन लोगों के लिए घर की समस्या सुलझाते समय इस बात का खयाल रखा जाना चाहिए कि कार्यस्थलों के पास घर बनाए जाएं या घरों के पास आजीविका के अवसर उपलब्ध कराए जाएं। पढ़ने-तैयारी करने वाले विद्यार्थियों, नौकरीपेशा और अकेले रहने वाले लोगों के हितों को ध्यान में रख कर पारदर्शी किराया योजना बनाई जाए, जिसका विनियमन सरकारी एजेंसियां सुनिश्चित करें। यह जगजाहिर है कि रीयल एस्टेट के कारोबार में बड़े पैमाने पर काला धन लगा है, जिसके चलते घरों के दामों में गैरजरूरी उछाल रहता है। ऊंची कीमतों के कारण कम आमदनी वाले लोग घर नहीं खरीद पाते हैं, हालांकि जाहिर तौर पर ऐसे लोग घरविहीन नहीं हैं। ऐसे लोग किफायती दामों पर घर खरीद सकें, इसके लिए रीयल एस्टेट में काले धन के प्रवाह पर भी अंकुश लगाना होगा। अगर सरकार हर भारतीय को घर मुहैया कराने के अपने वादे को लेकर गंभीर है तो केवल घर-निर्माण पर जोर देने के बजाय एक व्यापक आवास नीति बनाए जाए जिसमें आवास ऋण, किराया, किफायती घर डिजाइन जैसे तमाम पहलू शामिल हों। एक समग्र दृष्टि अपनाकर ही इस सपने को पूरा किया जा सकता है।
http://www.jansatta.com/politics/how-will-fulfil-everyones-dream-house/192536/

ये नज़्म


उन सारी प्रेमिकाओं के नाम
जो आईं कोई करार ले,
गईं कोई दरार दे.
जो थीं तो
वादे थे, सपने थे, इरादे थे.
दिन थे, रात थी, नींद थी.
मोबाइल में सस्ते कॉल रेट के
प्लान हुआ करते थे,
घर में महक वाले
डेयोडेरेन्ट रहते थे.

अपनी कमाई से गिफ्ट देने
जिनके लिए ट्यूशन लिए मैंने.
दूसरे शहर रही जो
तो चाँद साथ तका करते थे
उस दौर में जिनके लिए हम
पैसों की किल्लत में रहा करते थे,
शहर शहर फिरा करते थे.

जो गईं तो इस तरह कुछ-
'वालिद नहीं माने कभी
हमारे सपने अलग अलग के बहाने कहीं,
साथ एक छत के नीचे रहे
फिर भी हमको वो जाने नहीं.'

दो तालियां,
तीन गलियां,
तमाम बहानों के नाम.
ये नज़्म उन सारी प्रेमिकाओं के नाम.

कर मशक्कत
हमने-तुमने सपने हज़ार बुने,
घर बनाया, सज़्ज़ा की
फिर इश्क़ में तन्हा तार चुने!

चिर यौवन न ठहरा है, न ठहरेगा
दिल जैसे धड़का है, न धड़केगा
तुम जाती थी, भले चली जाती
बस चिर-मुस्कान दिखलाती जाती
शादी में बुलाती जाती.

तेरे दूल्हे से मैं दो बातें कर लेता
गुस्सा, प्यार, ऑन-ऑफ मूड,
कब तू काइंड, कब तू रूड,
ये सब तो बतलाता जाता,
तेरा आने वाला कल
थोड़ा इजी बना जाता.

जो गईं छोड़ कर
नहीं बुलाईं ब्याह पर
घर- बाहर जिनके लिए हुए बदनाम
ये नज़्म,
उन सारी प्रेमिकाओं के नाम.

जो गईं तो गईं
कितनी रातें छोड़ गईं,
कितनी यादें छोड़ गईं

जिनके होंठों का स्वाद जुबां पर
अब भी कभी कभी आ जाता है
जिनकी सिसकी का अहसास
कभी कभी बहका जाता है.
जिनकी ऑंखें चूमे बगैर
रात न कभी बिताई थी
जिनकी शॉपिंग फ़िज़ूल की खर्चाई थी.

होंठों के नाम, आँखों के नाम
बदन पे चिपके बोसों के नाम.
ये नज़्म,
ये आखिरी नज़्म
उन सारी प्रेमिकाओं के नाम.