Sunday, December 18, 2016

उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती

उन लोगों को कवितायेँ समझ नहीं आती
जिन्होंने जीने से पहले
जीने की तैयारियां की.
जिन्होंने पांव रखने से पहले
नापे अपने पांव
नापी ज़मीन पे पड़ी धूल.
जिन्होंने बच्चे किये पैदा
और होते ही तय कर दिए उनके भविष्य.
जिन्होंने पहली बार ही चूमी अपनी प्रेमिका
और देख लिए ज़िन्दगी भर के सपने.
उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती.

उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती
जिनकी रातों में चैन की नींद है
जिनके घर के गुसलखाने में
पानी दिनभर आता है
जिनको बचपन से सभ्यता के
भारीभरकम पाठ पढाये गए.
जिनकी बीवियां घर में घुसे घुसे
रोटियां बना ही मनोरंजित हो जाती हैं.
उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती.

उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती
जो करियर के नाम बन गए पंसारी
जिन्हें जीवन ने बना दिया व्यापारी
जो ऑफिस जा रहे हैं, आ रहे हैं
खुश हैं कि खा रहे हैं.
उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती

उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती
जिनकी कॉफीटेबल पे ही
हो जाती हैं सरकारी योजनाएं अच्छी-बुरी.
जिनके घर में चलती हैं बासी ख़बरें
या जोर-शोर बहसों वाले टीवी चैनल
जिनको नहीं शालीनता की आदत.
उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती.

जिन्हें फिल्मों का मतलब है
एक लड़का-एक लड़की, दो घूंसे और विलन।
किताबें जिन्होंने रद्दी में बेचीं
अख़बार के नाम 'डेल्ही टाइम्स' ही पढ़ा
उरेजों-उभारों से बाहर नहीं निकली स्त्री जिनके अंत:करण से.
उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती.

जिनकी बेटियां
पिता से नहीं मिला पाईं अपने प्रेमी
जिनके बेटे
छुपा गए सारे सच.
जिन्होनें बेटों को
कभी नहीं सिखाये इश्क़ के गुर
और जिनके पिता मरे वृद्धाश्रम में.
उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती.

जिन्हें नशा नहीं हुआ कभी
इश्क़-मुश्क़, आशिक़ी-मौसिक़ी का.
जिनके टूटे नहीं दिल,
घर थे जिनके बिल.
जो कभी न अनिद्रा के शिकार हुए.
उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती

जो सामाजिक संरचना में व्यवस्थित हैं
और छटपटाहट अंदर नहीं हुई जिनके
उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती,
जिनके अनुसार पटरी पर है ज़िन्दगी उनकी
उन्हें कवितायेँ समझ नहीं आती.