Wednesday, January 31, 2018

बुद्ध होना


बुद्ध होना चाहता हूं, किन्तु तुम्हारे साथ.
तुम यशोधरा नहीं
न मैं सिद्धार्थ,
कि छोड़ तुम्हें उम्र भर करूंगा साधना.
तुम्हारे पोपले गाल,
झुर्रियों वाला चेहरा
और वही प्रकाशित दिल
मेरी साधना - तुम्हें इस उम्र तक प्यार करना है.
तुम्हें छूना योग है,
तुम्हें चूमना भक्ति है,
तुमसे लिपटना बोधिसत्व होना है.
मेरे बोधिवृक्ष!
तुम्हारी बाहें वे टहनियां हैं
जिनकी छांव में
मैं बोधिसत्व पाऊंगा.
तुम्हारी ऊष्मा
वह स्वर्गीय प्रकाश उपजाती है
जिसमें मुझे केवल्य मिलेगा.
अगर तुम्हारे बिना
मेरा बुद्ध होना नियति है
तो मैं इसका त्याग करता हूं.
क्योंकि तुम्हारे साथ होना ही
मेरा बुद्ध होना है.

Sunday, January 28, 2018

Kunwar Narayan

कल फिर एक हत्या हुई
अजीब परिस्थितियों में
मैं अस्पताल गया
लेकिन वह जगह अस्पताल नहीं थी
वहां मैं डाॅक्टर से मिला
लेकिन वह आदमी डाॅक्टर नहीं था
उसने नर्स से कुछ कहा
लेकिन वह स्त्री नर्स नहीं थी
फिर वे मुझे आॅपरेशन रूम में ले गये
लेकिन वह जगह आॅपरेशन रूम नहीं थी
वहां बेहोश करने वाला डाॅक्टर पहले से मौजूद था
लेकिन वह भी दरअसल कोई और था
फिर वहां एक अधमरा बच्चा लाया गया
जो बीमार नहीं भूखा था
डाॅक्टर ने मेज पर से आॅपरेशन का चाकू उठाया
मगर वह चाकू नहीं जंग लगा भयानक छुरा था
छुरे को बच्चे के पेट में भोंकते हुए
उसने कहा- अब यह बिल्कुल ठीक हो जाएगा!

Friday, January 26, 2018

मां से दूर रहने के बाद


मां से दूर रहने के बाद भी
आप खाना बनानेवाली से
कहते हैं मां के जैसी दाल बनाने को
और धोबी को मां की तरह ही
अच्छे कपडे धुलने को.
दोनों ही नहीं जानते मां को
और 'हां भैया' कह मुस्कुरा देते हैं.

मां से दूर रहने के बाद
आप बेइंतहां अकेलेपन-अजनबीपन में
मां की तरह ही
प्रेमिका को लगा लेते हैं जोर से गले
और बहा देते हैं कुछ आंसू
वो 'क्या हुआ?, क्या हुआ?' कहती रह जाती है.
माथे को चूमने वाला कोई नहीं होता
ना सिर पे हाथ फेरने वाला.
बस आप याद में मुस्कुरा देते हैं.
मां से दूर रहने के बाद
खुद से कहते हैं कि 'बेटा, पढ़ लो'
और खुद को ही कर देते हैं पढ़ाना शुरू.
कभी कभी प्रेमिकाएं हो जाती हैं आपकी मां
और प्रेमिका का माथा चूमते वक़्त
मां तरह ही आप
मन ही मन देने लगते हैं ढेरों आशीष.
मां से दूर रहने के बाद
दाल बनाते वक़्त,
जीन्स धोते वक़्त,
प्रेमिका का माथा चूमते वक़्त,
और खुद की उंगली खुद थाम
सड़क पार करते वक़्त,
आप खुद ही हो जाते हैं थोड़े थोड़े मां.
और समझौतों के साथ खुद ही
रखना शुरू कर देते हैं खुद का ख्याल.
मां से दूर रहने के बाद
आप उसकी बीमारी में
खुद को थोड़ा थोड़ा बीमार पाते हैं,
और प्रेमिका की मां का भी
अपनी मां सा ख्याल रखने लगते हैं.

Tuesday, January 23, 2018

बाहर रहने के अठारह साल बाद


बाहर रहने के अठारह साल बाद
आप महसूस करते हैं
कि घर की दीवारों ने पहचानने से कर दिया है इंकार.
बाहर रहने के अठारह साल बाद
आप महसूस करते हैं
कि हर शहर में आपने बनाने की कोशिश की है
एक नया घर,
कुछ नए रिश्ते,
और फिर सारा समेट यादों में
आप पलायन कर गए वही दुहराने.
बाहर रहने के अठारह साल बाद
आप महसूस करते हैं
कि कई अलग अलग लड़कियों में
आपने देखी है अपनी मां
और कई अलग अलग कमरों में
बनाने की कोशिश की है अपना घर.
बाहर रहने के अठारह साल बाद
आप खुद से लड़ लेते हैं
और खुद को ही खुद ही नोंच लेते है
भाइयों की याद आने पर.
बाहर रहने के अठारह साल बाद
आपको पिता की डांट याद नहीं रहती
और खुद को आइने के सामने रख
डांट लेते है एक- दो दफा.
फिर प्रण लेते हैं कोई गलती न दोहराने का.
बाहर रहने के अठारह साल बाद
आप कई लड़कियों के संग
बनाने का सोचते हैं घर,
जो बिल्कुल बचपन के घर सा होता है.
लेकिन...
बाहर रहने के अठारह साल बाद,
आप प्रण लेते हैं
कि आपके बच्चे नहीं होंगे विस्थापित.
और एक गहरी सांस ले
घर की याद में
टपरे की चाय संग फूंकते हैं एक सिगरेट
कि जैसे यादें भी फुंक जाएंगी इस तरह.
इतने वर्ष बाद
आप खुद ही हो चुके होते हैं अपना घर,
मां और पिता अपने भी,
प्रेमिका के भी
और प्रेमिका भी हो चुकी होती है
थोड़ी थोड़ी मां.
लेकिन यादों में सालता रहता है घर
और वो दो जोड़ी आंखें
जो घर से जाते वक़्त रास्ता तकती रहती हैं,
पुन: लौट आने तक.

Monday, January 22, 2018

धूमिल की कवितायेँ

सार्वजनिक ज़िन्दगी

मैं होटल के तौलिया की तरह
सार्वजनिक हो गया हूँ
क्या ख़ूब, खाओ और पोंछो,
ज़रा सोचो,
यह भी क्या ज़िन्दगी है
जो हमेशा दूसरों के जूठ से गीली रहती है।
कटे हुए पंजे की तरह घूमते हैं अधनंगे बच्चे
गलियों में गोलियाँ खेलते हैं
मगर अव्वल यह कि
देश के नक़्शे की लकीरें इन पर निर्भर हैं
और दोयम यह कि
न सही मुझसे सही आदमी होने की उम्मीद
मगर आज़ादी ने मुझे यह तो सिखलाया है
कि इश्तहार कहाँ चिपकाना है
और पेशाब कहाँ करना है
और इसी तरह ख़ाली हाथ
वक़्त-बेवक़्त मतदान करते हुए
हारे हुओं को हींकते हुए
सफलों का सम्मान करते हुए
मुझे एक जनतान्त्रिक मौत मरना है।

---

कुछ सूचनाएं

सबसे अधिक हत्याएँ
समन्वयवादियों ने की।
दार्शनिकों ने
सबसे अधिक ज़ेवर खरीदा।
भीड़ ने कल बहुत पीटा
उस आदमी को 
जिस का मुख ईसा से मिलता था।

वह कोई और महीना था।
जब प्रत्येक टहनी पर फूल खिलता था,
किंतु इस बार तो 
मौसम बिना बरसे ही चला गया
न कहीं घटा घिरी
न बूँद गिरी
फिर भी लोगों में टी.बी. के कीटाणु
कई प्रतिशत बढ़ गए

कई बौखलाए हुए मेंढक
कुएँ की काई लगी दीवाल पर
चढ़ गए,
और सूरज को धिक्कारने लगे
--व्यर्थ ही प्रकाश की बड़ाई में बकता है
सूरज कितना मजबूर है
कि हर चीज़ पर एक सा चमकता है।

हवा बुदबुदाती है
बात कई पर्तों से आती है—
एक बहुत बारीक पीला कीड़ा
आकाश छू रहा था,
और युवक मीठे जुलाब की गोलियाँ खा कर
शौचालयों के सामने 
पँक्तिबद्ध खड़े हैं।

आँखों में ज्योति के बच्चे मर गए हैं
लोग खोई हुई आवाज़ों में 
एक दूसरे की सेहत पूछते हैं
और बेहद डर गए हैं।

सब के सब 
रोशनी की आँच से
कुछ ऐसे बचते हैं
कि सूरज को पानी से 
रचते हैं।

बुद्ध की आँख से खून चू रहा था
नगर के मुख्य चौरस्ते पर
शोकप्रस्ताव पारित हुए,
हिजड़ो ने भाषण दिए
लिंग-बोध पर,
वेश्याओं ने कविताएँ पढ़ीं
आत्म-शोध पर
प्रेम में असफल छात्राएँ
अध्यापिकाएँ बन गई हैं
और रिटायर्ड बूढ़े
सर्वोदयी-
आदमी की सबसे अच्छी नस्ल
युद्धों में नष्ट हो गई,
देश का सबसे अच्छा स्वास्थ्य
विद्यालयों में 
संक्रामक रोगों से ग्रस्त है

(मैंने राष्ट्र के कर्णधारों को
सड़को पर
किश्तियों की खोज में
भटकते हुए देखा है)

संघर्ष की मुद्रा में घायल पुरुषार्थ
भीतर ही भीतर
एक निःशब्द विस्फोट से त्रस्त है

पिकनिक से लौटी हुई लड़कियाँ
प्रेम-गीतों से गरारे करती हैं
सबसे अच्छे मस्तिष्क,
आरामकुर्सी पर 
चित्त पड़े हैं।

---
लोहे का स्वाद 

शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह 
लोहे की आवाज़ है या 
मिट्टी में गिरे हुए ख़ून 
का रंग। 

लोहे का स्वाद 
लोहार से मत पूछो 
घोड़े से पूछो 
जिसके मुंह में लगाम है।

---

किस्सा जनतंत्र

करछुल...
बटलोही से बतियाती है और चिमटा
तवे से मचलता है
चूल्हा कुछ नहीं बोलता
चुपचाप जलता है और जलता रहता है

औरत...
गवें गवें उठती है...गगरी में
हाथ डालती है
फिर एक पोटली खोलती है।
उसे कठवत में झाड़ती है
लेकिन कठवत का पेट भरता ही नहीं
पतरमुही (पैथन तक नहीं छोड़ती)
सरर फरर बोलती है और बोलती रहती है

बच्चे आँगन में...
आंगड़बांगड़ खेलते हैं
घोड़ा-हाथी खेलते हैं
चोर-साव खेलते हैं
राजा-रानी खेलते हैं और खेलते रहते हैं
चौके में खोई हुई औरत के हाथ
कुछ नहीं देखते
वे केवल रोटी बेलते हैं और बेलते रहते हैं

एक छोटा-सा जोड़-भाग
गश खाती हुई आग के साथ
चलता है और चलता रहता है
बड़कू को एक
छोटकू को आधा
परबती... बालकिशुन आधे में आधा
कुछ रोटी छै
और तभी मुँह दुब्बर
दरबे में आता है... 'खाना तैयार है?'
उसके आगे थाली आती है
कुल रोटी तीन
खाने से पहले मुँह दुब्बर
पेटभर
पानी पीता है और लजाता है
कुल रोटी तीन
पहले उसे थाली खाती है
फिर वह रोटी खाता है

और अब...
पौने दस बजे हैं...
कमरे में हर चीज़
एक रटी हुई रोज़मर्रा धुन
दुहराने लगती है
वक्त घड़ी से निकल कर
अंगुली पर आ जाता है और जूता
पैरों में, एक दंत टूटी कंघी
बालों में गाने लगती है

दो आँखें दरवाज़ा खोलती हैं
दो बच्चे टा टा कहते हैं
एक फटेहाल क्लफ कालर...
टाँगों में अकड़ भरता है
और खटर पटर एक ढड्ढा साइकिल
लगभग भागते हुए चेहरे के साथ
दफ्तर जाने लगती है
सहसा चौरस्ते पर जली लाल बत्ती जब
एक दर्द हौले से हिरदै को हूल गया
'ऐसी क्या हड़बड़ी कि जल्दी में पत्नी को चूमना...
देखो, फिर भूल गया।

गोरख पांडेय की कवितायेँ

वे डरते हैं
किस चीज़ से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद ?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और ग़रीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे ।

--
ये आँखें हैं तुम्हारी 
तकलीफ़ का उमड़ता हुआ समुन्दर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिये.

---
समय का पहिया चले रे साथी 
समय का पहिया चले 
फ़ौलादी घोंड़ों की गति से आग बरफ़ में जले रे साथी
समय का पहिया चले
रात और दिन पल पल छिन 
आगे बढ़ता जाय
तोड़ पुराना नये सिरे से 
सब कुछ गढ़ता जाय
पर्वत पर्वत धारा फूटे लोहा मोम सा गले रे साथी
समय का पहिया चले
उठा आदमी जब जंगल से 
अपना सीना ताने
रफ़्तारों को मुट्ठी में कर 
पहिया लगा घुमाने
मेहनत के हाथों से 
आज़ादी की सड़के ढले रे साथी
समय का पहिया चले 

---
हत्या की ख़बर फैली हुई है
अख़बार पर,
पंजाब में हत्या
हत्या बिहार में
लंका में हत्या
लीबिया में हत्या
बीसवीं सदी हत्या से होकर जा रही है
अपने अंत की ओर
इक्कीसवीं सदी
की सुबह
क्या होगा अख़बार पर ?
ख़ून के धब्बे
या कबूतर
क्या होगा
उन अगले सौ सालों की
शुरुआत पर
लिखा ?



Saturday, January 20, 2018

अनूठे आत्मबल और खेलभावना का उदाहरण



ऊपर फोटो में आप जिस व्यक्ति को देख रहे हैं उसका नाम है वेंडरली कोर्डेरियो दे लीमा (Vanderlei Cordeiro de Lima)

किस्सा यह है कि वह 2004 के समर ऑलंपिक की मैराथन दौड़ में सबसे आगे था. जिस गति से वह दौड़ रहा था, उसे स्वर्ण पदक मिलने में कोई भी संशय नहीं था. ऐसा मौका जीवन में बस एक बार ही मिलता है. यह जीत उसके लिए और उसके परिवार और देश के लिए बहुत बड़ी जीत होती.
वह फिनिशिंग लाइन पर पहुंचनेवाला ही था कि दर्शकों में से एक व्यक्ति ने उसके सामने आकर उसका रास्ता रोक दिया. उस व्यक्ति ने हजारों लोगों के सामने इरादतन उसपर हमला जैसा किया और वेंडरली के दौड़ने की गति में अवरोध हो गया.
वह छोटी सी कुछ सेकंड के भीतर घटी घटना वेंडरली का ध्यान भंग करने के लिए पर्याप्त थी. वेंडरली की मेंटल और फ़िज़िकल रिदम टूट गई. लंबी दूरी के धावकों के लिए अपनी लय को बनाए रखना बहुत ज़रूरी होता है.
इस दौरान उसके पीछे दौड़ रहे दो धावक उससे आगे निकल गए. वेंडरली ने दौड़ना जारी रखते हुए तीसरे स्थान पर रेस फिनिश की और कांस्य पदक प्राप्त किया.
इस घटना में अनूठी बात यह थी कि फिनिशिग लाइन पार करते वक्त वेंडरली के चेहरे पर मुस्कुराहट थी जबकि कुछ पल पहले ही उसके साथ भाग्य ने कितना भद्दा मजाक किया था. इस धावक का ऑलंपिक स्वर्ण पदक पलक झपकते ही उसके हाथ से फिसल गया था.
सोचकर देखिए कि आपने अपनी पूरी प्रोफेशनल ज़िंदगी एक सपने को पूरा करने के लिए कठोर-से-कठोर परिश्रम करते हुए बिता दी हो लेकिन वह सपना मंजिल के इतनी करीब जाकर इस तरह से टूट जाए. उस दिन वेंडरली को स्वर्ण पदक मिलने पर उसका नाम इतिहास की किताबों में दर्ज हो जाता, उसे मिलनेवाली खुशी और संतुष्टि का तो खैर हिसाब ही नहीं.
मंजिल के इतना करीब पहुंचने के बाद भी इस तरह से वंचित कर दिया जाना नियकि का बहुत ही  क्रूर और बेहूदा मजाक है. हम यही सोचते रह जाते हैं कि क्या होने जा था और क्या हो गया.
हो सकता है कि इस घटना के होने पर वेंडरली अपनी दौड़ रोक देता. वह उस व्यक्ति पर बुरी तरह से क्रोधित होते हुए उसे मार-पीट भी सकता था. वह ऑलंपिक के अधिकारियों के सामने अपने साथ घटी घटना का हवाला देकर शिकायत भी कर सकता था.
लेकिन वह संभला, दौड़ा, और उसने रेस को फिनिश किया.
इतना सब हो जाने पर भी वेंडरली के होठों पर क्रोध या अपमान के शब्द नहीं थे. उसकी दौड़ को रोक देने के दोषी व्यक्ति को उसने यूं ही जाने दिया.
उसे पीछे छोड़नेवाले धावक को स्वर्ण पदक जीतने पर ग्लानि हुए और उसने अपना मेडल वेंडरली को देने का ऑफ़र किया. इसपर वेंडरली ने कहा, “मैं अपने मेडल से खुश हूं. यह कांसे का है लेकिन मेरे लिए सोने के समान है.”
अनूठी सदाशयता, आत्म-सम्मान और खेलभावना दिखाने के लिए वेंडरली की चहुंओर सराहना की गई. उसे कई पुरस्कार मिले. उसने ही 2016 के रियो ऑलंपिक की मशाल प्रज्वलित की.
ऑलंपिक की मैराथन दौड़ में दौड़ना और उसमें अव्वल आने के लिए अटूट अनुशासन और आत्मबल चाहिए जो वेंडरली में कम न था. जो बात उसे सबसे अलग बनाती है वह यह है कि उसके अनुशासन और आत्मबल ने उसे इतना ताकतवर बनाया कि वह अपने साथ घटी दुर्भाग्यपूर्ण घटना को दरकिनार करके भी अव्वल आया. उसे अपने जीवन से कोई शिकायत नहीं है.
उस घटना के घटने के 14 साल बाद लोग यह भूल गए हैं कि उस दिन गोल्ड और सिल्वर मेडल जीतनेवाले कौन थे. लोगों आज भी उस दिन के ब्रॉंज मेडल विजेता को याद करते हैं.
ऐसा व्यक्ति वाकई महान कहलाने का अधिकारी होता है.
Source: https://hindizen.com/2018/01/19/immense-willpower-and-discipline/

Have You Met You

खुद से मिले हो कभी?
Appreciate किया है खुद को कभी?
जाना है?
आईने से बाहर अपनी शक्ल पहचानते हो?
खुद को जानते हो?

जितना सोचा दुनिया को
उसका थोडा भी खुद को सोचा?
किस-किस की आँखों से खुद को देखा
खुद की आँखों से खुद को देखा?

कितनी आग है
कौन सा दरिया है 
हवाएं, साए, परछाईयाँ 
जमीं, धूल, रुबाईयाँ
थक कर रूह बोली 
ठहरो! खुद से तो मिल लूँ.

हेव यू मेट यू?

Monday, January 15, 2018

गुलज़ार

गुलज़ार मुझे सर्दियों के सुबह पार्क में नंगे पैर शोव्ल ओढ़े टहलने में सबसे ज्यादा याद आते हैं. कुछ खोना और उसकी कसक किसी ठंढे पल में महसूस  करना... उन्ही की कुछ नज्में...




१.
ठीक से याद नहीं...


ठीक से याद नहीं, 
फ़्रांस में "बोर्दो" के पास कहीं 
थोड़ी-सी देर रुके थे.
छोटे से कसबे में, एक छोटा-सा लकड़ी का गिरजा,
आमने "आल्टर'' के, बेंच था...
एक ही शायद 
भेद उठाये हुए एक "ईसा" की चोबी मूरत !
लोगों की शम'ओं से /पाँव कुछ झुलसे हुए,
पिघली हुई मोम में कुछ डूबे हुए,
जिस्म पर मेखें लगी थीं
एक कंधे पे थी, जोड़ जहाँ खुलने लगा था
एक निकली हुई पहलु से, जिसे भेद की टांग में ठोंक दिया था
एक कोहनी के ज़रा नीचे जहाँ टूट गयी थी लकड़ी..
गिर के शायद... या सफाई करते.

२.
कभी आना पहाड़ों पर

कभी आना पहाड़ों पर...
धुली बर्फों में नम्दे डालकर आसन बिछाये हैं 
पहाड़ों की ढलानों पर बहुत से जंगलों के खेमे खींचे हैं 
तनाबें बाँध रखी हैं कई देवदार के मजबूत पेड़ों से
पलाश और गुलमोहर के, हाथों से काढ़े हुए तकिये लगाये हैं 
तुम्हारे रास्तो पर छाँव छिडकी है
में बादल धुनता रहता हूँ,
की गहरी वादियाँ खाली नहीं होतीं
यह चिलमन बारिशों की भी उठा दूंगा, जब आओगे.
मुझे तुमने ज़मीं दी थी 
तुम्हारे रहने के काबिल यहाँ एक घर बना दूँ मैं
कभी फुर्सत मिले जब बाकी कामों से, तो आ जाना 
किसी "वीक एंड"  पर आ जाओ 

३.
दोनों एक सड़क के आर-पार चल रहे हैं हम

दोनों एक सड़क के आर-पार चल रहे हैं हम
उस तरफ से उसने कुछ कहा जो मुझ तक आते-आते
रास्ते से शोर-ओ-गुल में खो गया..
मैंने कुछ इशारे से कहा मगर,
चलते-चलते दोनों की नज़र ना मिल सकी
उसे मुगालता है मैं उसी की जुस्तजू में हूँ 
मुझे यह शक है, वो कहीं
वो ना हो, जो मुझ से छुपता फिरता है !
सर्दी थी और कोहरा था,
सर्दी थी और कोहरा था और सुबह
की बस आधी आँख खुली थी, आधी नींद में थी !
शिमला से जब नीचे आते/एक पहाड़ी के कोने में 
बसते जितनी बस्ती थी इक /बटवे जितना मंदिर था
साथ लगी मस्जिद, वो भी लाकिट जितनी
नींद भरी दो बाहों जैसे मस्जिद के मीनार गले में मंदिर के,
दो मासूम खुदा सोये थे

source: http://bairang.blogspot.in/2010/10/blog-post.html