Tuesday, September 12, 2017

हिंदी

Muktibodh 2


यह लेख इसलिए भी लिखा जा रहा है क्यूंकि मैं इन दिनों हिंदी का छात्र हूँ और इसलिए भी की हिंदी पे लिखना अब जरूरी सा हो गया है. उस दौर में जब 'राइट विंग' हिंदी के शुद्धिकरण की बात कर रही है, नए लेखकों की नई वाली जमात पैदा हो रही है और हिंदी को पढ़ना, हिंदी माध्यम में पढ़ना बस मजबूरी के सिवा कुछ भी नहीं बचा है. 


सच तो ये है, भाषा के हाल बेहाल उसके बोलने वालों से नहीं होते; होते हैं तो उसको लिखने वालों से और उन सरकारों से जो इसे 'गवर्न' करती हैं, नियम कायदे और ये शब्द गढ़ती हैं. मैं पाब्लो नेरुदा को पढ़ने स्पेनिश सीखने तैयार हो सकता हूँ, इब्ने इंशा को पढ़ने शायद उर्दू पढ़ना सीख लूँ या टैगोर को पढ़ने बंगाली. लेकिन हिंदी को पढ़ने कौन हिंदी सीखने तैयार होगा? सच तो ये है प्रेमचंद के बाद कोई ऐसा लेखक शायद ही हुआ हो जिसे पढ़ने लोग हिंदी सीखना चाहें... और 'जीवित' प्रेमचंद तो खुद भी ऐसे लेखक नहीं थे, मरने के बाद बने. (क्यूंकि हम मृत्युपूजक, दरिद्रपूजक समाज हैं.)

नेट पे छानिये, सरकारी हिंदी के शब्दकोष की एक पीडीऍफ़ मिलेगी. कुल 660 पेजों वाली. अब मुझे बताओ इतने सारे शब्द कब और कैसे गढ़ लिए गए... और गढ़े भी गए तो प्रचारित क्यों नहीं किये गए, या हो पाए? 

सच तो ये की सरकारी हिंदी आम आदमी से उतनी ही दूर है जितना की हमारे प्रधानमंत्री एक आम इंसान से होते हैं. फलत: अंग्रेजी के शब्द हिंदी से आसान लगने लगते हैं और लोग उन्हीं को पढ़ते और प्रचारित करते हैं. 

एक प्रश्न लेखकों से किया जा सकता है (हालाँकि मैं खुद लिखने की कोशिश करता हूँ) . प्रश्न आसान सा है, कि भाइयो गुटों से कब बाहर आओगे और गलियां देना, खाना कब बंद करोगे?  और ये दरिद्र-नारायण पूजन को भी ख़त्म होना जरूरी नहीं है? 

कुमार विश्वास को गाली देते कई लोग उनसे उन्नीस ही लिखते हैं. जावेद साहेब, गुलज़ार साहब के फिल्मी गीत कभी साहित्य में शामिल ही नहीं किये गए और वहां बॉब डायलन नोबेल पा चुके हैं. 

समस्या सिर्फ प्रगतिशील लेखक संघ की नहीं है, न उसके मुक्तिबोध का जन्मदिन मनाने का बहिष्कार करने की. असली समस्या तो ये है कि मुक्तिबोध का हिंदी बोलने वाली 95% जनता ने नाम ही नहीं सुना है और नई पीढ़ी में से तो 99% ने न सुना होगा. मैंने खुद 'अँधेरे में' उनकी सबसे प्रसिद्द कविता 24 की उम्र में प्रथम दफ़े पढ़ी थी. मुझे लगता है विश्व की अन्य जगहों पर भी 'प्रोग्रेसिव रायटर्स एसोसिएशन्स' धूल खाते हुए ही पड़ी होंगी. मुझे भी नहीं पता था कुछ दिन पहले तक की ये भारत में ज़िंदा बची है.

फ़िलहाल 500 पुस्तकें बिकने के बाद 'बेस्ट सेलर' होने वाले हिंदी लेखकों और 660 पन्नों का सरकारी हिंदी का शब्दकोष निकालने वाली सरकार को 'हिंदी' के बारे में सोचने की ज़रूरत है.... नहीं तो कुछ वर्षों में हम हिंदी में ही 'हिंदी' ढूंढ़ रहे होंगे.