पिछले लेख में हमने हिंदी और हिंदी की दुर्दशा को ले के लेखकों, लेखक गुटों और सरकारी रवैये की बात की थी. लेकिन हिंदी की दशा के लिए सिर्फ यही लोग जिम्मेवार नहीं हैं. सच तो ये है कि अख़बारों, प्रकाशकों और हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के रवैये ने भी इसमें कम योगदान नहीं दिया है.
आप हिंदी के किसी भी मुख्य पत्र को उठा लीजिये. पहला तो आर्थिक, सामाजार्थिक, राजनैतिक और भू-सामरिक मुद्दों पे कोई ढंग का विश्लेषण नहीं मिलेगा और मिलेगा भी तो उस स्तर का नहीं जो मिंट, द हिन्दू, इंडियन एक्सप्रेस जैसे अंग्रेजी के अख़बारों में मिलता है. इसलिए मेरे जैसे द्विभाषी व्यक्ति स्वतः अंग्रेजी की और आकर्षित होते हैं.
दूसरा, उदाहरण के लिए दैनिक भास्कर जैसे अख़बार की कोई सी भी एक खबर उठा लीजिये. एक शीर्षक देखिये- ' बेस्ट रायटर नहीं बेस्ट सेलिंग रायटर हूँ लकली.' इसमें हिंदी को देखो, कितनी है?
असल में समाचारपत्र ही तो भाषा प्रसार का प्रमुख कारक होते हैं और देखा जाये तो उनसे ही भाषा में परिवर्तन आते हैं. लेकिन ऐसे परिवर्तन!! हिंदी में ऐसे परिवर्तनों से तो अच्छा है कि परिवर्तन ही न आएं.
[ हिंदी पत्रकारिता का एक अन्य नमूना दूसरी कतरन में. ]
प्रकाशकों ने लेखन को कभी फायदे का सौदा नहीं बनने दिया. मुनव्वर राणा ने एक बार कहा था कि हिंदी के सारे प्रकाशक बेईमान हैं. उनका कहा गलत भी मान लिया जाये तो भी अगर मुक्तिबोध की ही बात करें तो वो जीते जी कभी प्रकाशित लेखक नहीं हो पाए. पहली किताब मृत्यु के बाद आई. हमेशा दरिद्रता से घिरे रहे. वैसे पहली बार प्रकाशित होने के लिए लेखक को पैसे देने होते हैं, ये बात किसी से छिपी नहीं है. किताब से हुई आय का एक छोटा हिस्सा ही लेखक को मिलता है.
हिंदी की दशा का कारण उसे राष्ट्रीय भाषा बनाने की झक भी है. मुग़ल काल में फ़ारसी राज्य की भाषा थी. आज देखने को नहीं मिलती, क्यूंकि कोई भी भाषा थोप कर राष्ट्रीय भाषा का दर्ज़ा अभी प्राप्त नहीं करती. असल में न तो हम अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ के शब्द लेना चाहते हैं. हमपे 'शुद्धिकरण' हावी है. न देशज शब्दों को हिंदी के अंतर्गत दर्ज़ा देना चाहते हैं. फिर उसके भी बाद हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना चाहते हैं.
अगर हिंदी को अपने हाल पर छोड़ दें तो शायद वो ज्यादा पनपती, क्यूंकि उसका विरोध जिस तरह से अभी तमिलनाडु और कर्नाटक में हो रहा है वैसा नहीं होता. जबरन किया गया प्रसार विरोध ही ले के आता है.
भारत की कोई आधिकारिक राष्ट्रभाषा नहीं है और संविधान में उल्लिखित 'सरकार हिंदी का प्रचार-प्रसार करेगी' को भी हमें हटा देना चाहिए. ये न सिर्फ हिंदी बल्कि राष्ट्रीय एकता के लिए भी अच्छा ही होगा.
'हिंदी दिवस' की शुभकामनाएं. वैसे ये औपचारिकता भी हिंदी की दुर्दशा स्वतः व्यक्त करती है.
[ फोटो आशीष चौधरी जी और बीएस पाब्ला जी की फेसबुक टाइमलाइन से ]