जब भी लिखता हूँ कुछ, लोगों को लगता है 'थोडा'. जैसे उन्हें चाहिए बड़े-बड़े लफ्ज़, लम्बी-लम्बी बातें. लेकिन सरोकार तो तब है, जब सारे के सारे एहसास समेटे गये हों कुछ लफ़्ज़ों में. कहते हैं 'वो तीन अल्फाज़' तो सारी कायनात के कहे तमाम लफ़्ज़ों से ज्यादा खूबसूरत लगते हैं. फ़िलहाल मेरी वही कोशिशें जारी हैं....कम लफ़्ज़ों में ज्यादा कहने की.
हिज्र की तराई में पले रिश्ते,
न जाने कब गुम हो जाते हैं.
....और हम ताकते रहते हैं,
वापसी के रास्ते को.
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उस परीवश का जिक्र
जिस्म में करता है पैदा बर्क़.
....और तन्हाई बस
कट जाती है अतीत में!
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ये बरसात
ज़रा उदास लगती है.
जैसे धरती के गम में
बेमौसम ही चली आई हो
एक-दो बोसे लेने.
तुम कभी आओगे बेमौसम?
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तेरी आँखों में मेरे ख्वाब.
उफ़! आज फिर
तेरी इश्मत मुन्तशिर हुई होगी!
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हिज्र- वियोग
परीवश- परी जैसी
बर्क़ - बिजली
इश्मत-सतीत्व
मुन्तशिर- छिन्न-भिन्न
बोसे लेने- चूमने