Saturday, December 18, 2021

India As I Know: Socio-Economic Changes A Cooperative Society May Bring

 


इंटरनेशनल कोआपरेटिव अलायन्स (ICA) कॉपरेटिव (सहकारी) को "संयुक्त रूप से स्वामित्व वाले और लोकतांत्रिक रूप से नियंत्रित उद्यम के माध्यम से अपनी आम आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जरूरतों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए स्वेच्छा से एकजुट व्यक्तियों का एक स्वायत्त संघ." के रूप में परिभाषित करता है. पिछली बार हमने देखा था कि किस तरह से जैतपुर कछया समिति और आईएफएफडीसी ने पर्यावरण और वनीकरण पर काम किया है. अब देखते हैं कि एक समिति क्या क्या सामाजिक आर्थिक बदलाव ला सकती है.

जब भी मैं सामाजिक बदलाव की बात करता हूँ मुख्यत: कुछ पैमानों पर तौलता हूँ- महिल सशक्तिकरण, शिक्षा का प्रसार व विकास, वैचारिक परिवर्तन, सरकारी योजनाओं तक लोगों की पहुँच और स्वास्थ्य.

जैतपुर कछया में 1997 के बाद से क्या क्या बदलाव आये इसके लिए मेरे पास कुछ लोग थे जिनसे बातें करके पता किया जा सकता था.

मैं समिति सचिव अनिल मिश्रा जी से बदलाव के बारे में पूछता हूँ. वो कहते हैं, " सर, ज्यादा तो नहीं कहा जा सकता लेकिन हमारे गाँव की महिलाएं अब पति से पीटे जाने पर विरोध करने लगी हैं. समिति की मीटिंग में हिस्सा लेने के लिए आती भी हैं और बोलती भी हैं. पहले चुप रह जाती थीं, बड़ों का लिहाज करती थीं. सच को भी सच नहीं कहती थीं. अब सर ऐसा नहीं है."

मेरे लिए ये छोटा बदलाव भी बहुत बड़ा बदलाव था. जो लोग ग्रामीण परिवेश के हैं वो इस बदलाव का बड़ा महत्त्व समझ सकते हैं.

समिति में कुल 140 सदस्य हैं, जिनमें से 60 महिलाएं हैं. जिन्होंने हरी साड़ी पहन कर 5-5 के ग्रुप बनाकर वन सुरक्षा की है. आईएफएफडीसी ने इस क्षेत्र में सेल्फ हेल्प ग्रुप बनाये जिन्होंने अपने लघु उद्योग शुरू किये, जैसे आटा चक्की लगाई, दुकानें खोलीं, और उनमें से आधे से अधिक सफल भी रहे हैं.

मैं आगे और बदलावों की बात करता हूँ तो सोलंकी जी तपाक से बोल पड़ते हैं 'सर, समिति का एक असर तो इस तरीके से भी देख सकते हैं कि मेरा खुद का बेटा ही मेडिकल की पढाई कर रहा है. सर, लोगों ने बाहर से आने वाले साइंटिस्ट को देखा, अधिकारियों को देखा और अपने बच्चों को भी वैसा ही कुछ अच्छा बनाने का सोचा. आज हमारे गांव में पड़ोस के अन्य गांवों की अपेक्षा ज्यादा लोग ग्रेजुएट हैं और सरकारी नौकरी में हैं.' 

मैं धीमे-धीमे कुरेदना शुरू करता हूँ तो वे बताते हैं कि सामूहिक निर्णयन ने बहुत कुछ छोटे छोटे परिवर्तन लाये हैं- महज जैसे बेटी कि शादी के लिए कुछ धनराशि सामूहिक रूप से इकठ्ठा कर के जरूरतमंद को दी जाती है. एक साथ उठने बैठने से सामाजिक- जातिगत अंतर भी कम हुआ है.

'सर, इसके अलावा इस क्षेत्र में जहाँ आधे लोग लकड़ी कि चोरी से जुड़े धंधों से जुड़े हुए हैं. हमारे यहाँ के लोगों को समझ आया है कि वनों को बचाना सिर्फ वन विभाग का काम नहीं है, सामूहिक जिम्मेदारी है. आपको शायद ही हमारे यहाँ से कोई लकड़ी चोर व्यक्ति मिलेगा.'

मैं सब सुन रहा हूँ. 'और आर्थिक पक्ष?' मैं पूछता हूँ.

'सर हमारी समिति सच कहें तो हर सदस्य के परिवार के लिए साल भर का राशन तो नहीं जुटा पा रही है लेकिन साल में एक बार हम उन्हें गिफ्ट में कुछ जरूर देते हैं.' 3 चौकीदार हैं, जो अपने खेतों के साथ वन सुरक्षा भी करते हैं. शुरुआत में जब हम वृक्षारोपण कर रहे थे तो रोजगार उपलब्ध हुआ था. नर्सरी से कुछ लोगों को रोजगार मिल जाता है साथ ही गरीब लोगों को प्रूनिंग (टहनियों की आवश्यक काट छांट) के बाद की जलाओ लकड़ी फ्री में मिल जाती है.'

समिति के आय के स्त्रोतों में जलाऊ लकड़ी का बिकना, आईएफएफडीसी द्वारा नर्सरी के पौधों को खरीदना, जंगल में उगे फलों- आंवला और सीताफल का बिकना शामिल है. जिससे तरकरीबन वार्षिक 3-3.5 लाख कि कमाई समिति की हो रही है. एक 265 हेक्टेयर भूमि स्वामित्व वाली किसी भी समिति के लिए ज्यादा नहीं है किन्तु पर्यावरण पर काम करने वाली और वन-निधि संरक्षित करने वाली संस्था के लिए काफी है.

मैं आय के साधन बढ़ाने के उपाय जानने के लिए हरीश गेना जी से बात करता हूँ. वो अपने फ्यूचर प्लान के बारे में बताते हैं- 

1. सर, हमने टीएफआरआई (TFRI:Tropical Forest Research Institute) से लाख कल्टीवेशन के लिए एमओयू साइन किया है. 

2. एफआरआई देहरादून से एमओयू साइन है. हमें उच्च गुणवत्ता के पौधों का निर्माण नर्सरी से करना है.

3. समिति और आस पास कि समिति के पास सीताफल बहुत उगता है. इसलिए हम सीताफल से पल्प की प्रोसेसिंग मशीन लगाने वाले हैं.

4. स्थानीय देशज उत्पाद बिक्री के लिए ट्राइफेड से एमओयू साइन किया है जिसका विस्तार हम इस समिति तक भी कर रहे हैं.

5. वर्मीकम्पोस्ट पर भी हम काम करेंगे

6. पहले भी हमने सफ़ेद मूसली, अश्वगंधा जैसी औषधियां लगाई थीं, एक वर्ष यकायक से मार्केट बैठ गया तो यह फायदे का सौदा नहीं रहा किन्तु औषधि उत्पादन भी हम इस समिति में पुनः शुरू करेंगे.

वो आगे बताते हैं कि उत्तराखंड में आईएफएफडीसी ने तेजपत्ता से कई समितियों कि आय अच्छी की है, आसाम में समिति को टूरिज्म एक्टिविटी से जोड़ा है और सर्टिफाइड सीड्स के लिए भी प्राइवेट कंपनियों से एमओयू साइन किये हैं. समितियों की आय कैसे बढ़ाई जाए, इसके लिए आईएफएफडीसी के पास कोई एक्सपर्ट ग्रुप नहीं है. एक डेडिकेटेड ग्रुप बनाने का आगे प्लान जरूर है.

97वे में संविधान संसोधन द्वारा क्यों कोआपरेटिव शब्द अनुच्छेद 19(1)(स) में जोड़ा गया था. (जुलाई 2021 में उच्चतम न्यायलय के आदेशानुसार निरश्त किया गया) तब मुझे इसका महत्त्व समझ नहीं आया था. सहकारी समिति के सामाजिक आर्थिक उद्देश्यों को देख कर और एक समिति को बड़े पास से देखकर समझ आया.

किसी भी सहकारी समिति के सफल होने में 

1. लचीले एवं आवश्यकता, सुविधा अनुरूप सहकारी नियम

2. जिम्मेदारी व् जवाबदेही

3. पूँजी निर्माण में समर्थता 

का बड़ा योगदान होता है.

किन्तु सहकारी समितियों को नीति निर्माताओं और जनता दोनों के बीच आर्थिक संस्थानों के रूप में मान्यता कम ही दी जाती है और उनका आर्थिक- आत्मनिर्भरता में महत्त्व भी कम ही समझा जाता है. इसलिए अक्सर वे आर्थिक बदलाव में अधिक सफल नहीं हुई हैं.

जुलाई 2021 में सरकार ने सहकारिता मंत्रालय नाम से अलग मंत्रालय का निर्माण किया है. यह अलग मंत्रालय एक सराहनीय प्रयास है. देखते हैं हम सहकारिता के बाकि उद्देश्यों में आगे चलकर कितना सफल हो पाते हैं.

 जैतपुर कछया में सामाजिक बदलाव के दूसरे पैमानों के अलावा दो बड़े मानक: सरकारी योजनाओं तक लोगों कि पहुँच और स्वास्थ्य पर भी अच्छा काम हुआ है लेकिन समिति के अलावा इसमें अन्य सरकारी संस्थाओं ग्राम पंचायत और आंगनवाड़ी की भी महती भूमिका रही है.

जैतपुर कछया अपने उद्देश्यों में काफी हद तक सफल रही है और आगे बढ़ रही है. 

---

क्या आपको देश की सबसे सफल कॉपरेटिव का नाम पता है?

नहीं पता?

उत्तर है-- गुजरात मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन लिमिटेड (GCMMF)

क्या? नाम नहीं सुना? अमूल सुना है??

देश का सबसे बड़ा डेयरी प्रोडक्ट ब्रांड अमूल इसी का एक ब्रांड है. 1946 में जन्मे, आजाद देश से एक साल पुराने, 13 ज़िलों, 13000 गांवों में फैले इस कॉपरेटिव सोसाइटी के तकरीबन 36 लाख लोग सदस्य हैं.

अमूल को जिसने अमूल बनाया वो थे 30 साल इसके चेयरमैन रहे, मिल्कमैन ऑफ इंडिया श्री वर्गीज कुरियन जी. उनके बारे में और देश की सबसे सफलतम कॉपरेटिव ने लोगों में क्या सामाजिक आर्थिक बदलाव लाए इसके बारे में फिर कभी.

[आर्टिकल के तथ्य एक सैंपल डाटा और लोगों के साथ किये गए विमर्श पर आधारित हैं.

फोटो: समिति द्वारा संचालित नर्सरी ]

2017 में पहली बार #indiaasiknow टाइटल से लिखा था. बाकी सब यहां पढ़ा जा सकता है-

http://sadaknama.blogspot.com/search/label/India%20As%20I%20Know?m=0

Tuesday, December 14, 2021

India As I Know: Couple with a Forest Dream. The SAI Sanctuary Story

 


साई सैंक्चुअरी (SAI (Save Animals Initiative) Sanctuary) ब्रह्मगिरि पहाड़ियों की तलहटी (foothills) में स्थित एक वन्यजीव अभ्यारण्य है. ब्रह्मगिरि हिल्स कोडागु जिले, कर्नाटक में स्थित हैं. ये वही पहाड़ियां हैं जहाँ से कावेरी नदी निकलती है. वही नदी जिसका पानी प्राप्त करने के लिए तमिलनाडु और कर्नाटक की सरकारें और किसान युद्धरत रहते हैं, ये वही ब्रह्मगिरि हिल्स हैं जहाँ पर प्रसिद्ध ब्रह्मगिरी वन्यजीव अभ्यारण्य स्थित है. लेकिन फिर भी मैं यहाँ मात्र 300 एकड़ में फैले साई सैंक्चुअरी की बात क्यों कर रहा हूँ? इसमें ऐसा क्या है?

साई सैंक्चुअरी देश का पहला और एक मात्र प्राइवेट वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी है. एक युगल पामेला और अनिल मल्होत्रा 1991 में हिमालय से लौट कर यहां आते हैं और शुरू में 12 एकड जमीन खरीद कर इसकी अवधारणा रखते हैं. अनिल पिता की बीमारी के कारण अमेरिका से लौट कर वापिस आये थे. जब पिता की मृत्यु उपरांत अस्थिविसर्जन हेतु पामेला और अनिल हरिद्वार गए तो हिमालय देख कर यहीं का होने का निश्चय लिया लेकिन वक्त के साथ उन्हें समझ आया कि अगर जंगलों को नहीं बचाया तो न तो बारिश होगी, न पानी बचेगा और न ही हम ये जैवविविधता ,(Bio Diversity) देख पाएंगे. इसलिए उन्होंने एक वर्षावन (Rain Forest) बनाने का निर्णय लिया.

1991 में वे दक्षिण आ गए और ब्रह्मगिरि हिल्स के पास 12 एकड जमीन खरीदी. इनके लिए ज़मीन खरीदना इतना आसान नहीं था. भारत में कानूनन पेंच और इनका बाहरी होने के कारण इन्हें ज़मीन आसानी से नहीं मिल रही थी, साथ ही जानने वालों ने इन्हें बेवकूफ कहा. कारण? कौन व्यक्ति अपनी सारी जमा पूँजी लगाकर जमीन ख़रीददता है और वो भी एक जंगल बनाने! इससे किसका फायदा है? आर्थिक लाभ (Economic Benefits) क्या होंगे?

लेकिन पामेला का ये जूनून था और अनिल को पामेला से प्यार, इसलिए एक ऐसा जंगल बना जिसे हम आज साई सैंक्चुअरी के नाम से जानते हैं.

ब्रह्मगिरि वन्यजीव अभयारण्य के साथ स्थित यह प्राइवेट अभ्यारण्य 1.2Km की एक एक्स्ट्रा बफर ज़ोन का निर्माण करता है. यहां से एक नाला भी बहता है.

बहुत सारी तितलियों, सभी तरह के पक्षियों, तेंदुओं, चीतल, हाथियों, बार्किंग डियर का ये घर है.

'यहां आकर जंगली जानवर बच्चों को जन्म देते हैं क्यूंकि वो यहाँ ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं.जेड पामेला एक इंटरव्यू में बताती हैं.

रेनफॉरेस्ट दुनिया में पानी, बादल निर्माण, जल स्त्रोतों और ऑक्सीजन देने के लिए जाने जाते हैं. जहाँ कावेरी नदी के लिए हम लड़ रहे हैं, वहीँ हमने कभी कावेरी नदी सिस्टम, उसके आसपास के जंगल को बचाकर नदी जल स्तर सुधारने का कभी सोचा ही नहीं है उल्टा पश्चिमी घाट को ख़त्म ही करते जा रहे हैं. इसलिए साई सैंक्चुअरी हाई होप्स (बड़ी उम्मीद) बनकर सामने आता है.

'हमने शुरू में ही निर्णय लिया था कि हमारे बच्चे नहीं होंगे, मतलब मानव संतान (Human Offsprings). लेकिन हमारे इतने सारे बच्चे होंगे कि एक भरे पूरे जंगल का निर्माण करेंगे ये नहीं सोचा था.' अनिल ने एक इंटरव्यू में बताया था. 'जो ख़ुशी हमें यहाँ मिली दुनिया में शायद कहीं और किसी काम में नहीं मिलती.' पामेला ने उसी इंटरव्यू में कहा.

भगवत गीता के निस्स्वार्थ सेवा कर्म का पामेला और अनिल मल्होत्रा एक अपूर्व उदहारण हैं. जिन्होंने अपनी जीवनभर कि पूँजी सिर्फ आनेवाली पीढ़ियों का भविष्य बचाने के लिए कुर्बान कर दी. वे उदहारण हैं कि यदि बड़े कॉर्पोरेट हाउस ऐसे ही जंगल आवश्यकता अनुरूप खड़ा करें तो महाराष्ट्र एवं देश के अन्य हिस्सों की पानी की समस्या को काम किया जा सकता है.

ये कहानी इसलिए भी सुना रहा हूँ क्यूंकि पिछले महीने, 22 नवंबर 2021 को अनिल मल्होत्रा का 80 की उम्र में निधन हो गया है. लेकिन जो वे पीछे छोड़ के गए हैं वो वर्षों याद रखा जायेगा और आने वाली पीढ़ियों के लिए उदहारण बना रहेगा.

---

ऐसी कहानियां हमें जिंदा रखती हैं. जहां लोग जंगलों को उजाड़ रहे हैं, सरकारी पैसे और वन विभाग की अथाह मेहनत से बने प्लांटेशन पर कब्ज़ा कर रहे हैं वहीं अनिल और पामेला गेल मल्होत्रा जैसे उदाहरण हमारे बीच हैं.

[फोटो: खुद के विकसित किए जंगल में अनिल और पामेला]



Wednesday, December 8, 2021

India as I Know: Solanki, IFFDC and 19331 Unsung Environmental Heroes

 


 

वन विकास और विस्तार (Forest Development and expansion) के लिए काम करने वालों में सबसे पहले हमारे दिमाग में ये नाम आते हैं- शायद फारेस्ट मैन ऑफ इंडिया जादव पेयेंग का या स्वयं 122 हेक्टेयर बैरन लैंड (अनुर्वर भूमि) खरीद कर जंगल खड़ा करने वाले दंपत्ति पामेला और अनिल मल्होत्रा. (अगर इनके नाम आपने नहीं सुने हैं तो कमेंट में लिखिए, मैं अगली पोस्ट में इनके बारे में लिखूंगा.)  लेकिन मैं इनके अलावा एक नई कहानी कहने जा रहा हूं.


मैं जहां पोस्टेड हूं पहले दिन ही एक व्यक्ति मिलने आते हैं मिलनसार, हंसमुख, स्पष्टवादी. उनकी समस्या सुनता हूं और स्टाफ से उनके बारे में पूछता हूं.


'सर ये दीनानाथ सिंह सोलंकी जी हैं. एक समिति के अध्यक्ष हैं. समिति ने 265 हेक्टेयर  का जंगल खड़ा कर दिया है. तमाम उदहारण मेरे पास में इस क्षेत्र में जंगल उजाड़ने वालों के हैं, लकड़ी चोरों के हैं. इसलिए में क्यूरियस हो जाता हूँ. मैं सोलंकीजी  के बारे में पता करता हूं, उनसे मुलाकात करता हूं तो एक नई दुनिया ही सामने आती है.


 बात 1998 की है. सागर के देवरी-गौरझामर क्षेत्र में वेस्टलैंड मैनेजमेंट (बंजर/ऊसर भूमि प्रबंधन) के लिए कुछ ज़मीनों को आईएफएफडीसी की पहल पर समितियों को आवंटित किया गया. उद्देश्य था- वन विकास और विस्तार. इस प्रोजेक्ट को फाइनेंस भी आईएफएफडीसी के माध्यम से ही किया गया.


 जैतपुर कछिया उन्हीं में से एक समिति थी जिसके अध्यक्ष है दीनानाथ सोलंकी जी. इस समिति ने 23 साल के प्रयास से 265 हेक्टेयर का एक बड़ा जंगल खड़ा कर दिया है जिसमें न सिर्फ विभिन्न प्रकार के पेड़ बल्कि नीलगाय, चिंकारा जैसे विभिन्न  जंगली जानवर और ढेर सारे पक्षियों के आसियाने भी हैं. मतलब एक भरा पूरा जंगल.


हर समिति/ संस्था के सफल नहीं हो सकती जबतक एक कुशल नेतृत्व, अच्छा निर्देशन और समूह के ईमानदारी से किये गए अथक प्रयास न हों. 

मैं उनसे समिति की सफलता के राज पूछता हूँ.


वह और समिति के सचिव अनिल मिश्रा जी बताते हैं- 

1. साफ नियत. 

2. सबके साथ लेकर के किया गया प्रयास. 

3. समिति सदस्य एवं गांव के हर व्यक्ति की सहभागिता. 

4. 95% सामूहिक सहभागिता से लिए गए  निर्णय और

5. अध्यक्ष का मैनेजमेंट उनकी सफलता का सहभागी है 

साथ में हमारा रोपण बहुत अच्छा रहा, स्पेशलिस्ट ने जो भी हमें जानकारी दी उसका हमने सदुपयोग किया. कौन सी जमीन में कौन सा पौधा रोपण करना है स्पेशलिस्ट के बताने के अलावा हमें अनुभव के साथ आया. साथ में हमारे गांव के लोगों में समर्पण की भावना भी है.


मैं उनसे फिर पूछता हूं कि देवरी तहसील (जिला सागर म.प्र.) में ही सरखेड़ा समिति है या जिला टीकमगढ़ (म.प्र.) की मोहनगढ़ समिति है वे इतनी सफल नहीं हैं. उसके पीछे का कारण क्या है?


वह बोलते हैं कि इसमें मुख्य बात यह है कि-

1. इन समितियों में 3 से  5 गांव के लोग सदस्य तो गांव के हिसाब से लोगों कि सोच बाँट जाती है, उद्देश्य बाँट जाते हैं. अब सोच के बंटवारा होता है तो असफल होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. समिति में एक ही सोच के व्यक्ति हों तो सफलता की संभावनाएं ज्यादा होती हैं.

2. कुछ जगह पर गलत एवं लालची लोगों को जुड़ाव भी समिति में हुआ है.

3. कुछ जगह पर ऐसा हुआ है कि शुरुआत में पौधों की देख रेख अच्छे से नहीं पाई. पौधों का विकास अच्छा नहीं हुआ तो लोगों का लगाव कम हो गया.

4. कुछ जगह पर मैनेजमेंट बहुत अच्छा नहीं रहा और

5. कहीं खाते के आय-व्यय में पारदर्शिता नहीं रही.


इसी बीच में सोलंकी जी से हंसते-हंसते पूछ लेता हूं कि 'कहां तक पढ़े हैं?' सोलंकीजी पहले थोड़ा सा असहज होते हैं फिर मुस्कुरा कर कहते हैं 'सर, पांचवी पास हूँ.'  भले ही वे पांचवी तक पढ़े हैं लेकिन उनके द्वारा किया गया काम, उनके द्वारा लिए गए निर्णय, उनकी लीडरशिप क्वालिटी किसी बड़े मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट से पढ़े हुए व्यक्ति से भी बेहतर है. इसलिए वह राष्ट् स्तर पर आईएफएफडीसी के निर्देशक मंडल के ग्यारह सदस्यों में से एक हैं.


मैं सोलंकी जी से नंबर लेकर हरीश गेना जी, चीफ प्रोजेक्ट मैनेजर से बात करता हूं और वही प्रश्न दोहराता हूं. वो बोलते हैं हमने 1993 के बाद समितियों को जब चुनाव किया  तो कम्युनिटी मैनेजमेंट, अध्यक्ष की रूचि और सेल्फलेसनेस को ध्यान में रखा.


फिर मैं उन पर नया सवाल दाग देता हूं कि "आपने जो जमीन और सोसाइटी के लिए लोगों को चयन किया, क्षेत्र का चयन किया तो क्या-क्या मापदंड रखे थे?"


वह कहते हैं "हमारा पहला उद्देश्य था कि जिस हम जमीन का सिलेक्शन करें वह जमीन डेढ़ सौ हेक्टेयर के करीब वेस्टलैंड (अनुपयोगी या बंजर ज़मीन) होना चाहिए .साथ में जो लोग जुड़े हैं उनकी प्रोफाइल लो (आर्थिक रूप से पिछड़ा तबका)  होना चाहिए. अधिकतर लोग मार्जिनल सेक्शन से, खेतिहर मजदूर या भूमिहीन किसान होने चाहिए. हमने ग्राम पंचायत से मीटिंग की पीआरए (Participatory rural appraisal)* एक्सरसाइज की और फिर कम्युनिटी के साथ मिलकर के सब कुछ प्लान किया. हमने वीमेन पार्टिसिपेशन (महिलाओं की सहभागिता) का विशेष ध्यान रखा. इसीलिए जब फारेस्ट प्रोटेक्शन ग्रुप (वन संरक्षण समूह) बनाये तो उसमें से 50-60% तक महिलाएं थीं.  


मैं डिप्टी प्रोजेक्ट मैनेजर आरके द्विवेदीजी से भी बात करता हूं. उनसे मेरा सबसे पहला प्रश्न यह होता है कि 'यह पहले से ही दिमाग में था कि हमें ग्रासरूट लेवल पर लीडरशिप डेवलपमेंट करनी है और सोलंकीजी जैसे ग्रासरूट लेवल से उठकर आये लीडर्स को नेशनल लेवल पर लाकर के डायरेक्टर बनाना है?'


 वह कहते हैं 'हां, हमारा शुरुआत से ही उद्देश्य था. लोगों में सेंस ऑफ ओनरशिप (स्वामित्व की भावना) विकसित करना, माइक्रोमैनेजमेंट, माइक्रोफाइनेंस गांव-गांव में सिखाना और वीमेन पार्टीशन बढ़ाना और जो लीडरशिप डेवलप हो उसको एक बड़ा प्लेटफार्म देना.'


 पंचायत अधिनियम के उद्देश्य मेरे सामने घूमने लगते हैं. उनके भी कुछ कुछ ऐसे उद्देश्य थे. वे कितने सफल हुए हैं?


आईएफएफडीसी शब्द हम बार बार प्रयोग कर रहे हैं तो अब हम इसे भी जान लेते हैं. इफको (IFFCO: Indian Farmers Fertiliser Cooperative ) ने 1993 में 'इंडियन फार्म फॉरेस्ट्री डेवलपमेंट कोऑपरेटिव लिमिटेड' (आईएफएफडीसी) नामक एक अलग बहु-राज्य सहकारी समिति को बढ़ावा दिया, जिसका उद्देश्य ग्रामीण गरीबों, आदिवासी समुदाय की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को बढ़ाने के लिए स्थायी प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के माध्यम से पर्यावरण के संरक्षण और जलवायु परिवर्तन को कम करना था और विशेष रूप से महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करना था.


 उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड में अब तक 29,421 हेक्टेयर बंजर भूमि को बहुउद्देशीय जैव विविधता वन के रूप में विकसित किया गया है. ये वन समुदाय की जरूरतों को पूरा कर रहे हैं और सालाना लगभग 1.41 लाख टन वायुमंडलीय कार्बन का संग्रह कर रहे हैं, जिससे जलवायु परिवर्तन को कम करने में मदद मिल रही है.  इन वनों का प्रबंधन 152 ग्राम स्तरीय प्राथमिक कृषि वानिकी सहकारी समितियों (पीएफएफसीएस) द्वारा किया जाता है, जिसमें 19,331 सदस्य हैं, जिनमें से लगभग 38 प्रतिशत भूमिहीन हैं, 51 प्रतिशत छोटे/सीमांत किसान हैं. महिलाओं की कुल सदस्यता का 32 प्रतिशत हिस्सा है.

 वर्तमान में, आईएफएफडीसी कृषि वानिकी, एकीकृत वाटरशेड विकास, जलवायु प्रूफिंग, ग्रामीण आजीविका विकास, महिला सशक्तिकरण, सीएसआर (Corporate Social Responsibility) आदि पर 22 परियोजनाओं को लागू कर रहा है. इससे 8 राज्यों के लगभग 9,554 गांवों में किसानों और ग्रामीण गरीबों की आय बढ़ाने में मदद मिली है. नाबार्ड और राज्य सरकारों की साझेदारी में विभिन्न राज्यों में वाटरशेड के तहत 17,330 हेक्टेयर विकसित करके लगभग 15,171 हेक्टेयर अतिरिक्त क्षेत्र को सिंचाई के तहत लाया गया.  महिला सशक्तिकरण के लिए, IFFDC कौशल और सूक्ष्म उद्यम विकास आदि के माध्यम से 18,465 सदस्यों (95 प्रतिशत महिला सदस्यों) वाले 1,825 स्वयं सहायता समूहों (SHG) का पोषण कर रहा है.


 इफको ने बीज उत्पादन कार्यक्रम (एसपीपी) आईएफएफडीसी को सौंपा है.  तदनुसार, आईएफएफडीसी ने हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब और राजस्थान राज्यों में स्थित अपनी 5 अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी बीज प्रसंस्करण इकाइयों (एसपीयू) के साथ किसानों के खेतों पर विभिन्न फसलों की उच्च उपज और आशाजनक किस्मों का एसपीपी शुरू किया है. वर्ष 2019-20 के दौरान कुल 3.73 लाख क्विंटल प्रमाणित धान, हाइब्रिड धान, मूंग, सोयाबीन, उड़द, तिल, हाइब्रिड बाजरा, हाइब्रिड मक्का, सूडान ज्वार घास खरीफ और गेहूं, जौ, चना, सरसों, जीरा, बरसीम के दौरान प्रमाणित  इफको किसान सेवा केंद्र (एफएससी), इफको-ई बाजार, आईएफएफडीसी किसान सेवा केंद्र (केएसके), आईएफएफडीसी कृषि वानिकी सेवा केंद्र (एएफएससी) और प्राथमिक कृषि वानिकी सहकारी समितियों (पीएफएफसीएस) के माध्यम से किसानों को उपलब्ध कराई गई.


आईएफएफडीसी राष्ट्रीय तिलहन और पाम आयल मिशन (एनएमओओपी) और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (एनएफएसएम), भारत सरकार की मिनीकिट योजना के तहत कृषि विभाग को बीज की आपूर्ति करता है.  वर्ष 2019-20 के दौरान 16 विभिन्न फसलों के कुल 385 किलोग्राम सब्जी बीज भी किसानों को उपलब्ध कराए गए हैं.


साथ ही अभी यह संस्था ToF (Trees Outside Forest ) प्रोजेक्ट्स पर काम कर रही है. एग्रोफोरेस्ट्री विकास में जोर शोर से काम कर रही है.


----


नवंबर की सर्द रात है. रात (या सुबह) के 3 बजने को हैं. मैं रात्रि गश्ती पर हूँ. एक टीम दूसरी तरफ गश्तिरत है. मेरा फ़ोन बजता है. 'सर, एक अपराधी पकड़ा है. पेड़ काट रहा था.' 


'कहाँ पर?' मैं पूछता हूँ. 

'सर, कछया के पास से.'

'उफ्फ्फ्फ़....'


यह देश की एक दूसरी तस्वीर है. जहँ पर आईएफएफडीसी और सोलंकीजी जैसे लोग जंगल ऊगा रहे हैं वहीँ कुछ असामाजिक तत्व जंगल को काटने पर तुले हुए हैं. 


वन विकास और वन सुरक्षा हम सबकी जिम्मेदारी है. जैव विविधता बनाये रखने, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने में आईएफएफडीसी की समितियों के मात्र 19331 सदस्य नहीं बल्कि हम सबके सामूहिक सहयोग की आवश्यकता होगी.


[ *Participatory rural appraisal (PRA) is an approach used by non-governmental organizations (NGOs) and other agencies involved in international development. The approach aims to incorporate the knowledge and opinions of rural people in the planning and management of development projects and programmes.


आईएफएफडीसी के बारे में जानकारी साभार इफको कि वेबसाइट से.]

Sunday, December 5, 2021

India As I Know: The untold story of Udaypur MP

 



विदिशा जिले की गंजबासोदा तहसील के उदयपुर-घटेरा क्षेत्र का उत्खनन क्षेत्र तरकरीबन 200 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है जिसमें वैध-अवैध खदानें राजस्व एवं वन दोनों क्षेत्रों में हैं.

अख़बारों की मानें तो 6 करोड़ रूपए प्रति महीने का पत्थर इस क्षेत्र से निकलता है. अगर सच में ऐसा है तो यहाँ के लोगों की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी होनी चाहिए थी. लेकिन धरातल पर स्थिति इसके उलट है. आस-पास के करीब 35 गांवों का सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण किया गया तो स्थिति ये निकल के आई कि लगभग हर गांव में 50 -60 % व्यक्ति गरीबी रेखा से नीचे (BPL ) या गरीबी रेखा के ठीक ऊपर है (Just Above the Poverty Line ).

30-40 गाँवो के लगभग 7000 परिवार वैध-अवैध पत्थर उत्खनन में प्रत्यक्ष रूप से संलग्न हैं. जिनमें से अधिकतर बस मजदूर बन कर रह गए हैं और असल फायदा अवैध उत्खनन में लिप्त खनन माफिया/मालिक पा रहे हैं, जो गंज बासोदा, विदिशा या भोपाल में बैठे हुए हैं और वहां से ऑपरेट करते हैं.

अवैध खदानों को समय समय पर बंद करने कि कोशिशें की जाती रही हैं. ऐसी ही कोशिशें 1990, 1996, 2014 -15 में की गईं थीं. कुछ सप्ताह ये अवैध खदानें बंद भी रहीं, किन्तु 'गरीब को रोजगार मिलता रहे' बोलकर राजनैतिक दबाव बनाया जाता रहा है, जिससे ये अबतक चालू हैं.

लेकिन सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण करने पर क्षेत्र में भुखमरी, गरीबी और बीमारी कि ऐसी स्थिति सामने आती है कि ये रोजगार मिलने वाली बात भी पूर्णतः गलत साबित होती है. इसके निम्न कारण हैं, जो सर्वेक्षण में निकल के सामने आए हैं:-

1 . यहाँ उत्खनन संलग्न व्यक्तियों की जीवन प्रत्याशा (Life Expactancy ) मात्र 37 -38 वर्ष है. जबकि देश की: 69.42 वर्ष, और मध्य प्रदेश की: 67.9 वर्ष है.
कारण:- पत्थर उत्खनन में संलिप्तता की वजह से धूल के कारण होने वाली विभिन्न बीमारियां. जैसे सिलिकोसिस, कैंसर, स्किन डिसीसेस, गैस्ट्रो-इंटेस्टिनल बीमारियां, दमा, किडनी डिसीसेस, टीबी एवं अन्य स्थायी बीमारियां.
आपको क्षेत्र में 50 वर्ष से अधिक जीवित शायद ही कोई खदान मजदूर मिले.

2. क्षेत्र पीने के पानी की विकट समस्या से जूझ रहा है. आसपास के क्षेत्रों में पीने योग्य पानी कहीं नहीं है. यहाँ तक कि जब भिलायं वन चौकी में स्थित हैंडपंप के पानी का सैंपल दिया गया तो वह भी पीने योग्य नहीं था.

3. उत्खनन में हुए हादसों से लगभग एक दर्ज़न लोग मृत्यु या स्थायी अपंगता के प्रतिवर्ष शिकार होते हैं.

4. ऐसा नहीं है कि उत्खनन सिर्फ उत्खनन मजदूरों को ही प्रभावित कर रहा है. वैध-अवैध खदानें गांवों के इतने पास हैं कि ब्लास्टिंग मशीन के धमाकों से आसपास के गाँवो के घरों की दीवारें तक चटक जाती है.
नवजात एवं छोटे बच्चे इतनी तीव्र घातक ध्वनि सुनने को मजबूर हैं और कुछ लोग तो इसी वजह से पलायन भी कर चुके हैं.

5. यहाँ की गरीब ग्रामीण जनता सिर्फ उत्खनन से रोग की ही बस समस्या से प्रभावित नहीं है, बल्कि उत्खनन से निकली धूल इनके खेतों को भी प्रभावित कर रही है. धीमे धीमे खेतों में जमा होकर खेती को खा रही है.

6. यहां शिक्षा का स्तर भी बहुत ही ख़राब है. 200 वर्ग किलोमीटर में मात्र दो हायर सेकेंडरी स्कूल हैं- एक घटेरा में, दूसरा उदयपुर में. सारे स्कूलों में शिक्षकों कि अत्यधिक कमी है.
कुछ गाँवो में तो प्राथमिक या अधिकतम माध्यमिक तक स्कूल हैं.
कुछ गांवों में तो माध्यमिक तक शिक्षित व्यक्ति ही अधिकतम शिक्षित (Most Literate) व्यक्ति है.

7 . इस भयंकर बीमारियों से ग्रषित क्षेत्र में अधिकतर लोगों को प्राथमिक उपचार तक मुहैया नहीं है. ग्रामीणों के लिए बड़ा अस्पताल- प्राथमिक स्वस्थ्य केंद्र (PHC ) क्षेत्र में बस उदयपुर में स्थित है. जो चिकित्सकों की कमी से जूझ रहा है.
इसलिए झोला-छाप डॉक्टरों और नीम-हकीमों ने गांवों में अपनी दुकानें जमा रखी हैं.

उक्त बिंदुओं को देखा जाये तो यहाँ ना तो आर्थिक विकास है, न व्यक्ति सम्मानजनक जीवन जी पा रहा है, न ही उसे मूलभूत सुविधाएँ प्राप्त हो रही हैं. इसलिए गरीब को रोजगार मिलने वाली बात बेईमानी साबित होती है. बल्कि इसकी आड़ में अवैध उत्खनन को बढ़ावा देकर उत्खनन-माफियाओं को संरक्षण जरूर मिला हुआ है और यहाँ कि भोली-भाली, अशिक्षित जनता पीढ़ियों से गरीब कि गरीब ही बनी हुई है.

इन हालातों को देखकर इस क्षेत्र का वैध-अवैध उत्खनन तत्काल प्रभाव से पूर्णतः बंद करने कि जरुरत है, जिससे यहाँ के व्यक्ति अपनी जीवन प्रत्याशा पूर्ण कर पाएं और खदानों के आसपास के ग्रामीणजन भी सुरक्षित महसूस करें.
हालाँकि, ऐसा कर पाना मुश्किल जरूर लगता है किन्तु इतना मुश्किल है नहीं. क्योंकि:-

1 . ग्राम उदयपुर में ही दसवीं सदी के प्रसिद्ध नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर के अलावा उतना ही पुराना जैन मंदिर, पिसनहारी मंदिर, मातमयी मंदिर, रावनतौल जैसे ऐतिहासिक, पुरातत्व महत्त्व के पर्यटन स्थल मौजूद हैं जो उदयपुर को पर्यटन नगरी के रूप में विकसित करने के लिए काफी हैं.
साथ ही ऐतिहासिक महत्त्व के पठारी गांव, एरण, साँची, ग्यारसपुर, विदिशा, उदयगिरि गुफाएं 60 किमी के दायरे में ही हैं. अतः उदयपुर न केवल पर्यटन स्थल बल्कि विदिशा जिले के पर्यटन सर्किट के केंद्र बिंदु के रूप में भी स्थापित हो सकता है.
देशी-विदेशी पर्यटकों के आगमन से यहां कई प्रत्यक्ष व परोक्ष वैकल्पिक रोजगारों का जन्म होगा.

2. घटेरा के आसपास का वनक्षेत्र पूर्व से ही औषधियों के लिए प्रसिद्द रहा है. सामाजिक कार्यकर्ता प्रेरणा के अनुसार यहाँ औषधिये फसलों का प्रसार कर इनकी खेती कराई जा सकती है. यह उभरता हुआ क्षेत्र लोगों को रोजगार और उचित फायदा दोनों मुहैया करा सकता है.

3. स्किल इंडिया मिशन के अंतर्गत यहाँ के अर्ध शिक्षित युवाओं में कौशल विकास कर इनकी ज़िन्दगी सुधारी जा सकती
है.

4. स्टोन क्राफ्टिंग का ज्ञान एवं कौशल विकास कर आसपास के लोगों को बेहतर रोजगार और सम्मानजनक जीवन मुहैया कराया जा सकता है.

फिर भी यदि पत्थर उत्खनन यहाँ पर पूर्णतः बंद न किया जा सके तो तो कम से कम-

1 . वैध खदानों का पुनर्सीमांकन हो और गाँवो के आसपास कि खदानों को पूर्णतः बंद कराया जाये.

2 . गाँवो में ग्राम-समितियां बनाकर, लीज़ का पुनर्वितरण कर खदानें समीपस्त ग्राम समितियों को दी जाएँ. निकले पत्थर कि नीलामी प्रशासन द्वारा की जाये. जिससे 'जो खोदे- वो पाए' कि तर्ज़ पर यहाँ के लोगों को उचित धन मिलता रहे.

3. वनक्षेत्र की अवैध खदानें वन समितियों को दे दी जाएँ. निकले पत्थर की नीलामी विभाग द्वारा की जाये.

4. खदान में कम करने वाले मजदूरों को उचित उपकरण प्रदान किये जाएँ. उनका समय समय पर स्वास्थ्य परीक्षण हो और खदानों की भी मजदूरों कि स्थिति देखने के लिए समय समय पर जांच की जाए. जिससे मजदूरों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव कम पड़े.

सिर्फ रोजगार नहीं बल्कि संविधान के 'राज्य की नीति के निर्देशक तत्व' के 42वें अनुच्छेद अनुसार 'काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं के उपबंध' के साथ रोजगार प्रदान करना बेहद जरूरी है.
इस क्षेत्र को पीने योग्य पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, काम की मानवोचित दशाओं का प्रबंध कराये बिना रोजगार देने के नाम पर अवैध उत्खनन को चालू रखना/ रखने का दबाव बनाना अतार्किक है, अनुचित है और यहाँ की जनता के जीवन के साथ खिलबाड़ है.