Sunday, December 3, 2023

ख़त

 



मैं पलंग पे लेटा हुआ था. वो आये 'कैसे हो मियां?' औपचारिक मुस्कुराये. मैंने अपना पांव हाथों से उठा के बैठने की कोशिश की. 'नहीं, नहीं लेटे रहो, और ये पकड़ो.' उन्होंने एक लिफाफा मेरी और बढ़ा दिया. 'गवर्मेंट ने सेवन लाख की जो घोषणा की थी, उसकी डिटेल्स है. कुछ दिन में पैसे तुम्हारे अकाउंट में पहुँच जायेंगे.' मैंने लिफाफा सायमा को थमा दिया. '...और हाँ, टीवी पर 'फारेस्ट गम्प' और 'शाव्शंक रिडेम्पशन' किस्म की फिल्म देखते रहना अच्छा लगेगा. उन्होंने जाते-जाते कहा. 'शुक्रिया...' मैंने धीरे से कहा और अपना घुटनों तक कटा पांव सरकाने की कोशिश की.

सायमा ने दरवाजा बंद किया. वो मेरे पास आई, मैंने उसे लिफाफा थमा दिया. 'इसका अब क्या करेगें?' उसने धीरे से कहा फिर मेरे से लिपट गई. 'सब ठीक हो जाएगा सायमा, बस एक पैर ही तो कटा है, जिंदा तो हूँ न.' मैंने उसे पांचवें दिन और पचासवीं बार एक ही वाक्य दुहराते हुए दिलासा दी. वो मेरे से चिपकी रही. मैंने उसके बालों को सहलाया. 'मुझे तुमसे कुछ कहना है सायमा.' 'हाँ कहो,' उसने सर उठाते हुए कहा. मैंने तकिये के नीचे से निकालकर उसके हाथ में एक लिफाफा थमा दिया.
'पढो.'
'उर्दू में है ये, किसने भेजा? अच्छा पढ़ के सुनाती हूँ.'

'अब्बू, यहाँ सब खैरियत से है. मैं अच्छे से पढ़ रही हूँ, हर रोज़ स्कूल भी जाती हूँ. इस बार रोज़े नहीं रखे थे, अम्मी ने कहा है और बड़ी हो जाओ तो रखना. नये कपडे लेने थे लेकिन अम्मी कहती है आपके भेजे पैसे ज्यादा दिन नहीं चलते और दादी का इलाज़ भी कराना पडता है. इस बार ज्यादा पैसे भेजना. मैंने कहा था न इस बार अच्छे से लिखना सीख जाउंगी, देखो सीख गई. अब सदीक़ स्कूल में एडमिशन दिला दो तो और अच्छे से पढूंगी. अम्मी कहती उसके पास साल भर की फीस भरने पांच हज़ार रूपये नहीं है. -आपकी नाजिया'

'रंजीत, किसने लिखा ये? तुम्हारे पास कैसे आया?' '
मुझे नहीं अनवर अली के लिए आया था'
'कौन अनवर अली?'
'पाकिस्तानी जिसे मैंने मारा था. उसकी जेब में था ये. मैं चेक कर रहा था तब मुझे मिला.'
'तो....?'
'मैं नाजिया के बाप का कातिल हूँ.'
'तुमने जानबूझ के तो नहीं किया न रंजीत, अगर तुम नहीं मारते तो वो तुम्हें मार देता. देखो पांव तो काटना ही पड़ा न.'
'लेकिन....'
 'लेकिन क्या? तुम्हारी गलती नहीं है, अगर तुम्हें कुछ हो जाता तो मैं और रिद्मा कैसे रहते? रिद्मा तो तीन साल की उम्र में ही अनाथ हो जाती न. पता नहीं तुम क्या सोच रहे हो.' सायमा थोडा गुस्से में बोली.
'अगर हम इन सात लाख में से पांच हज़ार अनवर के घर भेज दे तो? हमारी रिद्मा के जैसे उसकी नाजिया भी पढ़ लेगी.' मैंने धीरे से कहा.

सायमा ने थोड़ी देर ख़ामोशी से एक टक मेरी तरफ देखा. फिर 'मेजर रंजीत तुम्हारा दिल बहुत बड़ा है.' कह के  मेरे से  चिपक गई. 'मेरी और अनवर की कोई दुश्मनी नहीं थी....सियासत की थी. सैनिक हाथों में हथियार नहीं लेना चाहते सायमा, सियासतें उन्हें मजबूर करती हैं.' मैंने उसे चूमते हुए कहा.

अगले पंद्रह साल तक नाजिया को पैसे मिलते रहे और एक ख़त भी, जिसपे सिर्फ 'सॉरी बेटा' लिखा होता था.


[चित्र 2002 में प्रदर्शित 'वी वर सोल्जर' के अंतिम दृश्यों में से एक दृश्य का है. चित्र के साथ 'सब टाइटल्स' पे ज़रूर ध्यान दें.]

Sunday, November 26, 2023

Sunday Notes: इतिहास

 


एक शहर है जो हर दिन बदलता है। कुछ चेहरे उसमें जुड़ते हैं, कुछ भी बिछड़ते हैं। लेकिन फिर भी वो स्थिर है। उसकी गलियां वही हैं, घरों की जगह वही है। करीब 3000 वर्षों बाद जब उसे खोज़ा जाएगा, हड़प्पा की तरह तो हम कहेंगे उम्दा शहर था, नगरीय व्यवस्था थी। आज वहां पर फुटपाथ पर ठंड में मरा वह बूढ़ा इसके खिलाफ गवाही है! इतिहास रुलर्स हैं, पॉलिसीज़ हैं, इंफ्रास्ट्रक्चर है... पर जो नहीं है वह बूढ़ा जो ठंड में फुटपाथ पर मर गया। जिसका कहीं नाम नहीं है। किसी सरकारी कागज में दर्ज भी हो तो खो जाएगा। 'अज्ञात व्यक्ति' का पुलिस दाह संस्कार कराएगी। 

इतिहास में दर्ज तो पुलिस भी नहीं है।सारे ' सरकारी' कर्मचारी ही। वे लोग बस हैं जिनके लिए ये काम करते हैं- सत्ताधीश। 

मोहम्मद बिन तुगलक की कितनी ही पॉलिसीज़ गलत थीं। कोई तो अधिकारी रहा होगा जिसने उसका विरोध किया होगा। किसी ने तो विरोध में इस्तीफा दिया होगा। किसी ने तो उसका आदेश मानने से इंकार किया होगा। उसका भी तो नाम इतिहास में होना था।

इतिहास की कहानियों में इमरजेंसी में इंदिरा गांधी के नाम के साथ उनका आदेश न मानने वाले अधिकारियों के नाम की दर्ज होने थे। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के साथ विनायक सेनों, संजीव भट्टों के नाम भी दर्ज होने थे। 

जीवनगाथाओं, बायोग्राफीज़ में बेहतरीन कामों के अलावा गलतियों का भी जिक्र होना चाहिए। दर्ज़ होना चाहिए कि उनकी इस गलती की वजह से आज देश को क्या भुगतना पड़ रहा। दर्ज़ होना चाहिए कि महान विभूति होते हुए भी उन्होंने ऐसी तमाम गलतियां की जो भविष्य में याद रखी जाएंगी और चेतायेंगी कि ऐसी गलतियां हमें आगे नहीं करनी है। लेकिन अफसोस इतिहास में दर्ज़ होते हैं सत्ताधीश, पॉलिसीज़, इंफ्रास्ट्रक्चर और गुम होते हैं वे लोग जिनके लिए ये सब बनाए जाते हैं या थोपे जाते हैं। विद्रोह... विद्रोह बस कभी-कभी दर्ज़ होता है। बहुत कम ही... किसी नेल्सन मंडेला का, किसी बहादुर शाह जफर का या किसी बिरसा मुंडा का और 200 वर्ष के अंतराल में सत्ताधीश रह जाते हैं, विद्रोह गायब हो जाते हैं... इतिहास से।

#SundayNotes

Saturday, November 25, 2023

क़त्ल

 यकीन मानिये, ये कहानी नहीं थी. ये आत्महत्या के वक़्त लिखा गया नोट था. लेकिन पुलिस को ये कहानी जैसा लगा था और इसलिए इसे सुसाइड नोट नहीं माना था और फाड़ के फेंक दिया था! पढ़िए और बताइए आपको क्या लगता है :--





मैं लिखता था, लेकिन चूँकि देश के हर लिखने वाले की नियति यह होती है कि वो सिर्फ लिखकर के पेट नहीं भर सकता तो मैं काम भी करता था. आप इसे उल्टा भी कह सकते हैं, कि मैं काम करता था लेकिन लिखता भी था. वो इसलिए क्यूंकि अब मैं काम हर दिन करता था और लिखता कभी-कभार था. फ़िलहाल मुद्दा ये नहीं है कि मैं लिखता था तो अब सिर्फ कहने को यही बचता है कि मैं काम करता था.

मैं जहां काम करता था वहां एक से लोग थे, एक से कपडे पहिन के हर दिन लगभग एक सा काम करते थे.  ये मुझे बंधुआ मजदूरी का नया सुधरा रूप लगता था. मेरी कंपनी बड़ी थी, जिसके सारे ग्राहक विदेशी थे. 'ग्राहक' सुनकर आप अपना खाली दिमाग नहीं चलाईएगा क्यूंकि मैं किसी लाल-बत्ती-क्षेत्र (आप अपनी भाषा में रेड लाइट एरिया भी बोल सकते हैं.)  में काम नहीं करता था. हाँ 'विदेशी' सुनकर ज़रूर आप कुछ कह सकते हैं. चलिए आप नहीं कहते तो मैं ही कहे देता हूँ, आपको इस तरह का काम नये तरीके कि गुलामी लग सकता है और दफ्तर किसी विदेशी हुकूमत की जेल.

मेरे आस पास जितने भी काम करते थे उन्हें सिर्फ काम से मतलब था, उन्हें बाहर की दुनिया नहीं पता थी. मैंने अपनी 'लीड' (जिसे फिर से आप अपनी भाषा इस्तेमाल करके 'बॉस' कह सकते हैं.) से कहा कि 'सचिन ने खेलना छोड़ दिया है.' उसने मुझे देखा, इस तरह से देखा जैसे मैंने किसी दूसरी दुनिया की कोई बात की हो. फिर कड़क के दक्षिण भारतीय हिंदी में पूछा कि ' एम् आर डी की सोर्स फाइल्स कॉपी हुआ की नहीं?' (एम् आर डी वाली बात में आपको आपकी भाषा में नहीं समझा सकता क्यूंकि समझाते-समझाते ही ये कहानी ख़त्म हो जाएगी फिर भी आप पूछेंगे कि ये एम् आर डी  होता क्या है. फ़िलहाल इतना समझ लीजये कि कोई पकाऊ सा काम है, जिसे करना ज़हर पीने के बाद मरने का इंतज़ार करने जैसा है.) फ़िलहाल मुझे हंसी आ गयी. इसलिए नहीं कि उसे कुछ नहीं पता था, इसलिए की आप ये समझते हैं कि क्रिकेट देश का सबसे पसंद किया जाने वाला खेल है और सचिन भगवान् की तरह है. गनीमत ये थी कि मैंने काम कल ही देर रात दस बजे तक दफ्तर में बैठ के ख़त्म किया था तो 'लीड' को अपने प्रश्न का उत्तर सकारात्मक मिला और मैं और भी कुछ सुनने से बच गया. फिर मैंने अपने पास बैठे दिनेश से पूछा, उसने भी मुझे अजीब तरीके से देखा जैसे मैंने उसकी बहिन की ख़ूबसूरती की चर्चा कर दी हो. हाँ, मैं ये सिर्फ इसलिए बता रहा हूँ, कि आपको ये न लगे कि मेरी 'लीड' औरत थी तो शायद उसे क्रिकेट के बारे में पता नहीं होगा.

'लीड' बनना कोई छोटी बात नहीं होती, क्यूंकि उसके लिए आपको सुबह आठ से शाम, माफ़ कीजिये रात दस बजे तक छ:- सात साल तक काम करना पड़ता है. हाँ लेकिन उसके बाद आपको ज्यादा काम करने की ज़रूरत नहीं होती, क्यूंकि आप आराम से अपना काम दूसरों पे थोप सकते हो. आप आराम से दूसरों पे हुक्म चला सकते हो या दूसरों के काम के बीच अपनी भद्दी सी फटी बिवाई वाली टांग अड़ाकर उसे परेशान कर सकते हो. कभी-कभी तो किसी के द्वारा किये काम का श्रेय भी ले सकते हो. हाँ आपने पिछले छ:- सात साल सिर्फ काम करते गुज़ारे हैं तो अब आप उसका गुस्सा भी लोगों पे निकाल सकते हो. ऐसे ही एक बार मैंने अपने पुराने 'लीड' से पूछा था, कि वो मुझे कुछ चीज़ समझाएगा क्या? लेकिन उसने मेरी तरफ कुछ-कुछ खा जाने वाली नज़रों से देखा और कहा कि मैं खुद सीख लूँ, क्यूंकि उसने भी भी खुद ही सीखा था, और मेरा बाप उसे सिखाने नहीं आया था. मैंने उसकी बात को अपने सर मैं बैठा लिया और खुद ही सीखा. लेकिन सीखने के बाद में बहुत हंसा, क्यूंकि मुझे पता चल गया था कि जो मेरे लीड को आता है वो अधूरा ज्ञान है. लेकिन मैंने उसकी गलतियां उसे नहीं बताईं क्यूंकि मैं शायद उसके अहं में छेद कर बात आगे नहीं बढाना चाहता था.

मेरे पुराने और नये लीड के बीच सम्बन्ध थे, ये बाद मुझे बाद में पता चली. इस बार आप सही हैं, उन दोनों के बीच अनैतिक सम्बन्ध ही थे. दोनों ही भद्दे लगते थे, लेकिन उनके बीच सम्बन्ध थे. अक्सर हम मान लेते हैं कि एक खूबसूरत लड़का और एक खूबसूरत लड़की ही प्यार कर सकते हैं. हमारी फिल्मों में भी यही दिखाया जाता है. लेकिन आदतन प्यार अंधा होता है तो एक भद्दी औरत के एक भद्दे आदमी से सम्बन्ध थे. खैर, मुझे उनके अनैतिक संबंधों से कुछ लेना-देना नहीं था. बात ये थी कि वो ऑफिस के वक़्त बाहर घूमने जाते थे और अपनी लीड का काम हमें करना पड़ता था. जो बंटकर मेरे हिस्से में पच्चीस प्रतिशत आता था. पच्चीस प्रतिशत मतलब दो घंटे ज्यादा, दो घंटे ज्यादा मतलब दस बजे तक काम करना. इतना काम करना मुझे कतई पसंद नहीं था और मेरी हिम्मत जवाब दे देती थी. मैं बेहताशा थक जाता था.

मैं परेशान था. काम के बोझ तले दबा महसूस कर रहा था. एक दिन मैं बीमार पड़ गया. मैंने अपनी लीड को बताया. लेकिन आपको जैसे पता ही है जहां मैं काम करता था वहां सबको मशीन समझा जाता था और आपका बीमार होना किसी कंप्यूटर प्रोग्राम में वायरस आने जैसा था. शायद इसीलिए उसने मुझपे चिल्लाया कि 'मैं कैसे बीमार पड़ सकता हूँ?' उसकी इस हरकत पे मैं हंसना चाहता था क्यूंकि बीमार 'कैसे पड़ा' ये तो बीमार पड़ने वाले को भी नहीं पता होता! लेकिन शायद मैं बीमार था तो मैंने रो दिया. उसदिन मैं बरसों बाद रोया था. मुझे माँ की बहुत याद आ रही थी मैंने अपनी माँ को फ़ोन किया, लेकिन मैं माँ के सामने रोना नहीं चाहता था, क्यूंकि इससे माँ परेशान हो जाती. 'कैसे हो बेटा?' माँ ने पूछा. मैंने 'अच्छा हूँ' जवाब दिया फिर उगते सूरज, पूरे चाँद और तारों की बातें की. घर के क्यारी में खिले फूलों में बारे में पूछा और सावन की बारिश का हाल बताया. जब उसे यकीन हो गया कि मैं खुश हूँ तो मैंने फ़ोन रख दिया.

मैं 'शम्भू के रेस्तरां में खाना खाता था. वो अच्छा खाना खिलाता था. वो 35  रूपये में एक थाली खिलाता था. खाना अच्छा था क्यूंकि 35 रूपये में था. हाँ, उस अच्छे खाने की दाल पतली होती थी और सब्जी में एकाध बार कीड़े भी निकले थे. वो बारस सौ किलोमीटर से यहाँ रेस्तरां खोलने आया था और यहाँ की भाषा भी सीखी थी, इसलिए ज्यादा पैसे कमाना अपना हक समझता था. इसीलिए सब्जी में हमेशा सड़े टमाटर ही डालता था. मुझे पहले से ही शक था इसका खाना खा के मैं बीमार पडूंगा लेकिन मेरे पास और कोई चारा नहीं था. ऑफिस से आते-आते मुझे दस बज जाते थे और उसके बाद न तो खाना बनाने कि इच्छा होती थी न ही हिम्मत.

मैं चीज़ें भूलने लगा था. मुझे पहले लगा शायद ये मेरा भ्रम है लेकिन फिर गूगल पे ज्यादा तनाव से होने वाली इस बीमारी के बारे में पढ़ा तो मुझे इस भूलने की बीमारी के बारे में पता चला. एक दिन में ऑफिस के लिए निकला लेकिन भूलने के कारण में बाज़ार पहुँच गया. वहां मैंने कच्चे आलू खरीद कर खाए. यकीन मानिये मैंने कच्चे आलू ही खाए थे. हाँ कच्ची प्याज नहीं खाई थी. प्याज ने एक बार देश की सरकार गिराई थी शायद इसलिए मैं उससे डरता था. जब मुझे होश आया तो भागता ऑफिस पहुँचा, लेकिन देर से पहुंचा और फिर डांट खाई.

एक बार मैंने 'शम्भू के रेस्तरां' में खाना खाया. जैसा कि  आपको पता है, बिल 35 रूपये आया. कोई नेता ये कह सकता है कि मैंने तीन लोगों का खाना एक साथ खाया है. क्यूंकि देश में भरपेट खाना अब भी 12  रूपये में मिलता है. खैर, मैंने पैसे देने जेब में हाथ डाला लेकिन शायद मैं पर्स भूल गया था.(लड़कियों को आपत्ति हो तो वो पर्स को वॉलेट भी पढ़ सकती हैं.) मैंने दस मिनट में पैसे लेकर आने का वादा किया, लेकिन बदले में उसने मेरा मोबाइल गिरवी रख लिया. दस मिनट बाद में पैसे लेकर आया तो उसमें माँ के 16 मिस्ड कॉल थे. उन्होंने बार-बार फ़ोन किये शायद उन्हें कोई अनहोनी की आशंका हुई होगी. (बाद में मैं मुझे पता चला कि माँ को अपने बच्चों कि नियति पहले से पता होती है!) वो फ़ोन पे रो दी. मैंने झूठ बोल कि मैं बाथरूम था. वो चुप हो गई. मैं दस मिनट चुपचाप सड़क पे बैठा रहा.

मैं कभी-कभी नित्या को फ़ोन करना चाहता था. नित्या मेरा पुराना प्यार थी. हमने एक ही कॉलेज से पढाई की थी. साथ-साथ चार साल गुज़ारे थे. हम एक दुसरे के बहुत पास था. शायद इसलिए क्यूंकि हमने एक ही कॉलेज में नहीं एक ही रूम में भी पढ़ा था, और पढने के अलावा और भी कुछ किया था. हर बार उस 'कुछ' के बाद कपडे पहिनने से पहले हम एक ही ख्वाब देखा करते थे, जिसमें हमारे तीन-चार छोटे-छोटे बच्चे हुआ करते थे. अब आप उत्सुकतावश उन बच्चों का जेंडर मत पूछियेगा, क्यूंकि हमने ख्वाबों में बच्चों की चड्डी उतार जेंडर नहीं देखे थे. पहले हम बहुत बातें किया करते थे, लेकिन फिर में व्यस्त हो गया और वो नाराज़ हो गई. इसे मैं उसकी गलती नहीं कह सकता, क्यूंकि मेरे पास ही वक़्त नहीं था. लेकिन ये मेरी भी गलती नहीं थी. किसी ने समझदार आदमी ने था कि लम्बी दूरी का प्यार (आपकी भाषा में लॉन्ग-डिस्टेंस-रिलेशनशिप)  नहीं चलता , ये उसी आदमी की समझदारी का परिणाम था. खैर, धीरे-धीरे नित्या में मेरा फ़ोन उठाना बंद कर दिया और मेरे प्यार का अंत हो गया, और हमारे बच्चे कभी ख्वाबों से बाहर ही नहीं निकले!

मैं निराश था और निराशावश मैंने लौट के घर जाने का सोचा. घर पे मैं फिर से लिखना शुरू कर सकता था. लेकिन फिर मैंने ये ख़याल त्याग दिया. हुआ ये था कि एक बार मैंने 'बाढ़-राहत-कोष' में पाँच हज़ार रूपये जमा किये थे. जब मैंने ये बात अपने बाप को बताई तो उन्होंने कहा कि 'बीस हज़ार कमाने वाले पांच हज़ार दान नहीं करते.' उसके बाद उन्होंने बहुत सी बातें की जो मुझे कुछ-कुछ गाली जैसी लगी थी और मैं उन्हें यहाँ दुहराना नहीं चाहता. मैं सिर्फ लिखने से बहुत सारे पैसे नहीं कमा सकता था और उनसे पैसे मांगने से डर रहा था.

आखिर मैंने आत्महत्या करने की सोची. हाँ, इस चकाचौंध भरी दुनिया से, जहाँ एकबार मैं खुद ही आना चाहता था, काम करना चाहता था, से आखिर निराश होकर मैंने आत्महत्या करने की सोची. आत्महत्या बड़ा अजीब ख़याल होता है. खुद को मारना बड़ा अजीब ख़याल होता है. यह आपको पापी बना देता है, कमजोर प्रदर्शित करता है. इसलिए मैंने आत्महत्या का ख़याल त्याग दिया. लेकिन इसे हादसे का रूप देने का सोचा. मैंने दौड़ते हुए, दौड़ती कार के सामने आने का सोचा, लेकिन इस तरीके से बेगुनाह कार वाले को जेल जाना पड़ सकता था. लेकिन फिर मुझे लगा हम सब अपनी ज़िन्दगी में दो-चार दिन जेल में बिताने लायक गुनाह तो करते ही हैं, तो एक रात मैं तेजी से दौड़ती कार के सामने तेजी से आ गया. मैं दो मीटर दूर उछला और मर गया. लोगों ने कार को घेर लिया. कार में से एक औरत निकली. वह औरत मेरी लीड थी. मैं मरते-मरते भी अपनी मौत और उसकी किस्मत पे मुस्कुरा दिया.

अगले दिन अखबार में खबर छपी, 'फलाना सूचना प्रोद्योगिकी कंपनी में काम करने वाला चौबीस वर्षीय 'ढिमका' सॉफ्टवेर इंजिनियर सड़क हादसे में मारा गया.....' पुलिस ने इसे हादसा कहा था. मैंने आत्महत्या का नाम दिया है. लेकिन पढने के बाद आप समझ सकते हैं कि ये एक क़त्ल था. अत्यधिक काम और तनाव द्वारा किया गया क़त्ल!

(देश में हर साल औसतन 9500 लोग अत्यधिक काम से तनाव में आ आत्महत्या करते हैं. लेकिन बस खनकते पैसे गिनने वाली सरकार बहादुर चुप है और हम-आप के पास तो ये सोचने का वक़्त ही नहीं है!)

[ चित्र 2011 में प्रदर्शित मेरी फेवरेट फिल्म 'शेम', अभिनेता 'माइकल फ़ासबेंडर' का है. अगर आप वालिग है तो ही इसे देखिये, क्यूंकि ये एक NC-17  सर्टिफिकेट प्राप्त फिल्म है. ]

Thursday, November 23, 2023

#SundayNotes



 मोहब्बत किसी एक किनारे पर रखकर आप जिंदगी नहीं चला सकते। जिंदगी चलाने इश्क, एतबार, उम्मीद, वादे और थोड़ा स्लो-मोशन में ठहरकर जिंदगी देखना लगता है।

पास्ट... पीछे मुड़-मुड़ देख आप कभी बाइक ढंग से चला पाए हैं? भाईसाहब एक्सीडेंट का खतरा हमेशा बना रहता है। जिंदगी भी पीछे मुड़-मुड़ देख नहीं चल सकती। आगे नई राह, नई जिंदगी और नया एडवेंचर आपका हमेशा इंतजार कर रहा होता है... हमेशा।
आपको बस मुस्कुरा कर आगे बढ़ने की जरूरत होती है बिना पीछे मुड़कर देखे।
तो आगे बढ़िये, पिछला पीछे छोड़कर के मुस्कुराइए... और नए सफर में, नई स्पीड के साथ जिंदगी की बाइक घुमा दीजिए। नई राह पर, नई उम्मीद में, नए विश्वास के साथ... किसी नए एडवेंचर की तरफ...

शौर्य गाथा 89.



 भाईसाहब बोलते हैं "पापा, आओ... इधर आओ..." पापा कहीं व्यस्त हैं। इग्नोर कर देते हैं।

भाईसाहब फिर चिल्लाते हैं "पापा, पापा विदेत... विदित पापा..." पापा फिर सुनते नहीं हैं।
अब भाईसाहब अपनी आवाज का माड्यूलेशन बदलते हैं, थोड़ा सा प्यार आवाज में डालते हैं और बोलना शुरू करते हैं "विवू ... विवु... विदेत... सुनो न... विवु विदेत..." पापा की ये सुनकर हंसी छूट जाती है। पापा उन्हें गोद में उठा लेते हैं। ये 'विवू' भाईसाहब ने कभी मम्मा को बोलते सुना है इसलिए जुबां पर आ गया है।
अभी दो-तीन महीने से ज्यादा समझने लगे हैं। बहुत सारा ऑब्जर्व करते हैं... बहुत सारा बोलने लगे हैं।
पापा अगर घर पर कुछ बोलें भाईसाहब वाइस मॉड्यूलेशन तक कॉपी कर रिपीट करते हैं। मसलन ऑफिस से आकर बोलें "निधि मैं थक गया..." तो भाईसाहब भी मम्मा की ओर पलटकर तुरंत पापा को रिपीट करके बोलेंगे "निधि, मैं थक गया हूं.. थक गया हूं..." हम सब उनकी ऐसी हरकतें देख हंस पड़ते हैं।
मुझे लगता है बच्चों की इस उम्र (ढाई से तीन वर्ष) में हमें बहुत कुछ सोच समझकर बोलने और कहने की जरूरत होती है। ये सब कुछ तुरंत सीख लेते हैं। मैं कोशिश कर रहा हूं की सोच समझकर इनके सामने बोलूं। अगर इसी उम्र में आपका बच्चा है तो आप भी कीजिए...
फोटो: भाईसाहब और चाचू

शौर्य गाथा 88.


दिन निकल गया है और सारे घर में भाईसाहब के खिलौने बिखरे पड़े हैं, कुछ बर्तन हैं यहां-वहां, भाईसाहब के बिखेरे... दस बार खाने को बनवाया है, दस बार जिद की तब तीन बार खाया है। दिन भर में मैं भी झल्लाकर गुस्सा हुआ हूं, एक दो बार थोड़ा सा डांटा भी। लेकिन भाईसाहब पास आएं और गाल पे प्यार कर लें, कोई गुस्सा रह सकता है भला!

भाईसाहब ने दिनभर टीवी देखी है। आप क्रिकेट नहीं देख सकते, उनकी टीवी बंद नहीं कर सकते। मम्मा माना करे तो रो दें। उपाय बस एक है- नेट बंद कर दो। लास्ट रिसॉर्ट में वही करना पड़ता है।
ढेर सारी बातें करने लगे हैं। पापा मेरे साथ कार चलाओ, और बस किसी खिलौने के रिंग को लेकर खुद स्टीयरिंग घुमाने की एक्टिंग करने लगते हैं और पापा को भी जबरन करवाते हैं, न करो तो आंसू तो हैं हीं! जू...जू.. ऊ.. ऊ.. करके पापा और बेटे की गाड़ी चल गई है। एक में भाईसाहब नाना को ले आए हैं, एक में पापा दादू को! 250Km पंद्रह मिनट में कार से!
"पापा नानू, दादू को खाना खिला दें?" मैं हां बोलता हूं। भाईसाहब का इमेजिनेशन है... झूठमूट का खाना झूठमुट सामने बैठे दादू, नानू को अपने हाथों से खिलाया जाता है।
"शौर्य आपके नानू का नाम क्या है?"
"सुलेश नानू" भाईसाहब बड़े क्यूटली बोलते हैं।
"दादू का?"
,"वि.. द.. ल... दादू"
सबके नाम धीमे धीमे पता हो गए हैं। सबकुछ समझने लगे हैं। लगने लगा है की बड़ी तेजी से बड़े हो रहे हैं ये...।
ग्रो स्लो माय चाइल्ड... ग्रो स्लो!

Papa's Notes. शौर्य गाथा 87.


भाईसाहब की नानी अनुसार भाईसाहब बाड़ में हैं। मतलब बढ़ने की उम्र है। मतलब लंबाई बढ़ेगी और दुबले होना शुरू होंगे। लेकिन पापा को भाईसाहब कुछ और ही बाड़ समझ में आ रही है। भाईसाहब अभी 2 साल 7 माह और 15 दिन के हुए हैं, किंतु पिछले 1 महीने से उनकी समझ यकायक से बढ़ गई है। साथ ही ढेर सारा बोलने लगे हैं। बहुत सारी बातें लगातार... थकते नहीं है। आप सुनते-सुनते थक जाएंगे। जितनी सारी बातें बढ़ गई हैं उतनी सारी समझदारी भी... बहुत तेजी से!
मसलन एक बार पापा के साथ कार में हैं।
पापा बोलते हैं "यार इसमें तो डीजल खत्म हो रहा है..."
भाईसाहब पट से जवाब देते हैं "पापा आप परेशान होना नहीं... मैं डलवा दूंगा दीदल."
इतनी प्यारी सी आवाज में इतनी समझदारी वाली बात!
भाई साहब ने एक दिन कुछ कर दिया है, शायद खिलौने बिखरा दिए हैं।
मम्मा: "आपने ऐसा क्यों किया?"
भाईसाहब: "मैंने इसलिए ऐसा तिया था त्यूंती थेलना था।"
ये 'इसलिए' बोलकर सही से जवाब देना पहली बार हुआ है।
ऐसे ही दो दिन पहले ही भाईसाहब क्रिकेट बैट लेकर आते हैं। "पापा थेलो-थेलो (खेलो) मैं तोहली हूं... मालूंगा।"
ये कोहली बैटिंग करता है, शॉट्स मारता है भाईसाहब ने अपने से ही पापा-मम्मा को बात करते हुए कैच किया है।
पापा-मम्मा अपनी कन्वर्सेशन में भी बहुत कॉन्शियस हो गए हैं। भाईसाहब की बाड़ में समझदारी की भी बाढ़ आ गई है!

फोटो: Papa's Little Monk(ey)

Tuesday, November 7, 2023

Papa's Letters to Shaurya #seventhletter #God

 


प्रिय शौर्य,

मैं नींद को त्यागता हूं तो लिख पाता हूं. मैं स्वयं को त्यागता हूं तो मंदिर तक पहुंचता हूं, नहीं तो बाहर से ही कई बार लौटा हूं. मैं तुम्हारी मम्मा के साथ होता हूं तो कुछ और होता हूं... यही प्रेम है. एक अजनबी दुनिया में रह रहा हूं जो इतनी पुरानी है कि मेरा जीवन उसका नैनो सेकंड (उससे भी कई गुना कम) है और इतनी अनसर्टेन की कब खत्म हो जाए पता ही नहीं. किंतु इस छोटे से काल का भी अतीत है! एक भविष्य है! इसलिए जीवन बीमा कराया हुआ है. स्वयं के कुछ होने के मुगालते पाले हुए हैं. बैर बांधे हुए हैं, मित्रताएं निभाई जा रही हैं. इस उम्मीद में की एक दिन तुम पढ़ोगे और वो माइक्रो-चैंजेज़ जो मुझमें होने थे, समय पर नहीं हो पाए, तुममें आएंगे... ये पत्र लिखे जा रहे हैं. इस दुनिया की उम्र को देखें तो एक नैनो सेकंड की जिंदगी की कितनी ख्वाहिश हैं! यही जिंदगी है. 

राह दिखाने हम जिस मनुष्य को खोज करके लाए थे वो 'अप्पो दीपो भव' कह चला गया. उसने जो मार्ग दिखाया उसके मानने वालों ने उसी मार्ग में पत्थर रख दिए और अपनी कामेच्छाओं की पूर्ति हेतु चल दिए! 'मारा' जिसका कुछ न बिगाड़ सका उसके अपनों ने बिगाड़ा...! जिसका अहसास उन्हें पहले से था, इसलिए वह अपना मार्ग पुनीत (sacrosanct) बताएं बिना 'अप्पो दीपो भव' कह चले गए. बरसों बाद ऐसे ही जब जद्दू (J. Krishnamurti) को लोगों ने ईश्वर बनाना चाहा तो वह इन्हीं के सच्चे शिष्य (true disciple) बनकर उभरे और सीधा कहे "ना मैं अवतार, ना तुम. ना कोई सक्सेसर, ना कोशिश करना तुम. ढूंढो, मुझमें जो मिले सो ले लो, फिर खुद को खोज़ लो! मिल जाए तो अच्छा, न मिले तो तुम जानो."

ऐसे ही दाजी (Heartfulness Guide) कहते हैं " concentrate within... light is within you... meditate, be pure..." ...और दाजी के परम भक्तों को मैंने झमेले का झोला टांगे पाया है.

मैंने कई क्षमावानियाँ की. प्रण किए कि "सबसे क्षमा, सबको क्षमा" और कइयों को माफ नहीं कर पाया, कई जगह पर तो खुद को भी नहीं!

मैं आचार्य विद्यासागर जी के बिल्कुल पास तक गया वह मुस्कुराए मैं भाव्हाल्वित था. मुझे वह ईश्वर से लगते हैं किन्तु कितना कुछ है जो उनसे सीखे बिना मैं उनके व्यक्तित्व से ही विभोरित हो गया!

मुझे हमेशा से लगता है कि ईश्वर नहीं है या था तो किसी नवजात कि मृत्यु के साथ ही बहुत पहले मर चुका है. इसलिए उसे प्राप्त करना व्यर्थ है. किंतु रह-रह कर शाक्यमुनि ने जो कहा वही शाश्वत सत्य लगता है- 'अप्पो दीपो भव' और स्वयं को प्रकाशित कर स्वयं से, स्वयं को, स्वयं में खोजना ही तो सबसे मुश्किल है.

इस नैनो सेकंड जिंदगी के इतने सारे झमेले! एक दिन बड़े होकर तुम भी समझोगे...

तुम्हारे पापा.

Photo: My Little Monk(ey).

#शौर्य_गाथा #Shaurya_Gatha 86.

Friday, November 3, 2023

मैं अक्सर किसी पेड़ से लिपट जाना चाहता हूं...

 


'जब रुलाई फूटे किसी पेड़ से लिपट जाना...'

मैं अक्सर लिपट जाना चाहता हूं किसी पेड़ से. पूछना चाहता हूं खैरियत. बाप, दादा ,चाचा किधर हैं? पुरखे किस बीज से पनपे थे? एल्गी (Algae) से अब तक ऐसे विकसित नहीं हुए कि काट पाओ किसी को? देखो आदमी तो 2 लाख साल में ही डेवलप कर गया है...इतना कि शुरू से भोजन दिया जिसने, सांसे दे रहा है जो, उसी को मशीनों से आधे घंटे में काट डालता है.

'विलुप्ति (Extinction) के कगार पर तो नहीं हो तुम?' ' बचे हैं तुम्हारे प्रजाति के कुछ लोग?' पूछते पूछते साथ में रो देना चाहता हूं...

कुछ अपना भी है जो कहना है. कुछ रिश्ते हैं जिन्हें निभा नहीं पाया. कुछ जिंदगियां जिनसे अंतिम समय मिल नहीं पाया. एक वह मंदिर है जहां पर बचपन खेलने में बीता, वहां बमुश्किल जा पाता हूं. कुछ एहसास हैं जो नौकरी के साथ खत्म हो गए, कुछ हैं जो बढ़ गए. उनके बारे में बताना चाहता हूं.

 वक्त के साथ बेबी केयर, फ्यूचर प्लानिंग, फाइनेंशियल प्लानिंग, स्टेबिलिटी जैसे लफ्ज़ जुड़ गए हैं. उनको तुम्हें समझाना चाहता हूं. मैं अक्सर किसी पेड़ से लिपट जाना चाहता हूं...

कितने पक्षी बैठे? कितनो को दाना दिया? कितने बच्चे खेले हैं? कितने मुसाफिरों को छांव दी? किसी की आंखों में चोर तो नहीं दिखा? पूछना चाहता हूं.

अच्छा बताओ, यहीं खड़े रहकर पिछले कई दशकों में कितनी दुनिया बदलते देखी? कितने लोगों ने मेरे जैसे बात करने की कोशिश की? कितनों ने तुम्हें चुभन दी? कितनों ने सोचा होगा तुम्हें काटने का...? पूछना चाहता हूं. मैं अक्सर किसी पेड़ से निपट जाना चाहता हूं...

#wildstories #जंगल_की_कहानियां #ForestLife

Photo: Monitor Lizard by Sumit Shrivastava

Tuesday, October 31, 2023

जंगल की कहानियां : कोयंबटूर का वृक्ष पुरुष

 


पिछले कुछ वर्षों में जलवायु और जैव विविधता संकट के खतरनाक रूप से हमारे नियंत्रण से बाहर होने के स्पष्ट प्रमाण मिले हैं। संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार, 1980 के दशक के बाद से, प्रत्येक दशक पिछले दशक की तुलना में अधिक गर्म रहा है, पिछला दशक, 2011-2020, रिकॉर्ड पर सबसे गर्म रहा है। हर साल, पर्यावरणीय कारक लगभग 13 मिलियन लोगों की जान ले लेते हैं, और अत्यधिक पानी की कमी वाले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है।

पर्यावरण एक अनिश्चित स्थिति में है और हमारी दुनिया को बचाने के लिए हम सभी को आगे आना होगा। कुछ हरित योद्धा स्थिति के बारे में जागरूकता बढ़ा रहे हैं और यह सुनिश्चित करने का प्रयास कर रहे हैं कि हम सभी कुछ न कुछ प्रकृति बचा लें। उन्हीं में से एक कोयम्बटूर तमिलनाडु के मरीमुथु योगनाथन (Marimuthu Yoganathan) भी हैं.

12 साल की उम्र में, मारीमुथु योगनाथन ने खुद को नीलगिरी में लकड़ी माफिया से लड़ते हुए पाया। कोयंबटूर में तमिलनाडु राज्य परिवहन निगम (टीएनएसटीसी) की एक बस के 55 वर्षीय बस कंडक्टर ने बताते हैं "मेरे माता-पिता नीलगिरी में एक चाय बागान में काम करते थे, जहां लकड़ी माफिया पेड़ों की अवैध कटाई जैसी गतिविधियों में शामिल थे। एक दिन, मैंने उनको रोकने के लिए उनके रस्ते में जमीन पर लेटकर विरोध करने का फैसला किया। लेकिन मुझे गुंडों ने पीटा . जागरूकता पैदा करने के लिए मैं कलेक्टर को पत्र लिखा और कोटागिरी में सार्वजनिक दीवारों पर हस्तलिखित पोस्टर चिपकाए। कुछ रातें मैं जंगल में सोया, पेड़ काटने वाले लोगों को पकड़ने की कोशिश की। लेकिन जब मैंने देखा कि माफिया के सामने मेरा कोई मुकाबला नहीं है, मैंने अधिक पेड़ लगाकर उनका मुकाबला करने का फैसला किया।" योगनाथन पिछले 40 सालों से अपने यात्रियों को मुफ्त में पौधे बांट रहे हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि उन्हें "कोयंबटूर का वृक्ष पुरुष" कहा जाता है।

1987 से, उन्होंने तमिलनाडु में चार लाख से अधिक पौधे लगाए हैं, वह जागरूकता पैदा करने के लिए अपना खाली समय स्कूलों और कॉलेजों में भी बिताते हैं। एक प्रोजेक्टर जो उन्होंने पीएफ ऋण पर खरीदा था वह उनका निरंतर साथी है। "आपको इसे छात्रों के ध्यान के लिए दिलचस्प बनाना होगा। प्रोजेक्टर मुझे दिलचस्प तथ्य साझा करने में मदद करता है कि हमें पानी कैसे मिलता है, डोडो पक्षी किस कारण से विलुप्त हो गया, और देश भर में दुर्लभ पेड़ हैं।" भारथिअर विश्वविद्यालय के परिसर में, जल्द ही एक कुयिल थोप्पू (तमिल में पक्षी अभयारण्य) होगा, योगनाथन के प्रयासों के लिए धन्यवाद, जो अभयारण्य के निर्माण में व्यस्त हैं, जिसमें कोयंबटूर में देशी, दुर्लभ और फल देने वाले पेड़ों के 2,000 पौधे होंगे। 

लेकिन उनका अंतिम सपना यह सुनिश्चित करना है कि भारत के प्रत्येक गांव में प्रत्येक घर में आम, चीकू, नारियल, अमरूद और कटहल के पांच पौधे लगाए जाएं। "अगर हर घर के पिछवाड़े में ये पांच पेड़ होते, तो वे एक सहकारी समिति और व्यवसाय बना सकते हैं। कोई भूख नहीं होगी, और हमने फलों का जंगल बनाया होगा।"

योगनाथन का सुझाव है कि "एक पौधा लगाना और उसकी देखभाल करना स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा होना चाहिए। सरकार को वर्षा जल संचयन और पार्किंग स्थान आरक्षित करने की तरह, रियल एस्टेट डेवलपर्स के लिए निर्माण शुरू करने से पहले एक निश्चित संख्या में पौधे लगाना अनिवार्य बनाना चाहिए।"

जानकारी एवं फोटो: साभार इंटरनेट

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