Monday, December 24, 2012

इश्क के दो रंग





पहला रंग इश्क का--- नीला-नीला......

वो सर्दी की इक शाम थी. वो ट्रेन से उतरता है,  टैक्सी लेकर सीधे बताये पते पर. 

' आ गये तुम?' वो देखकर उससे पूछती है.
'चैम्प, मैं तुझे एक घंटे से ढूंढ रहा हूँ.'
'अरे शादी बाले घर में आया है, लड़की इतनी जल्दी थोड़ी न दिखेगी.'
'पगली तुझे इतनी ठंड में शादी करने की क्या ज़रूरत थी, देख कुल्फी जम रही है.'
'हा हा हा, साल्ले शादी का मुहूर्त ठण्ड देखकर नहीं निकलता... वाय द वे थैंक्स, दो दिन पहले आने के लिए.'
'हाँ, अब थैंक्स भी बोल ले, दोस्ती तेरे पापा निभाएंगे. कंपनी छुट्टी कहाँ दे रही थी, जैसे-तैसे लेकर आया हूँ.'
'हाँ, तेरी सीनियर थी मैं, मुझे पढ़ा रहा है, 21 छुट्टी पढ़ी थी अकाउंट में, क्यूँ नहीं मिलती.'
'चल छोड़, जल्दी आने का एहसान तो मान नहीं रही है, ऊपर से अंकल ने आते ही काम पे लगा दिया.'
'हा हा हा, अब मेरी शादी में तुझे ही तो सब करना है.'

वो उसकी आँखों में देखता है....ज़रा गहराई से...छत पर उनके अलावा कोई नहीं है. 
'तू खुश तो है न चैम्प?'
'हाँ न रे, देख लड़का MNC में है, पैकेज मस्त है, और फिर पुणे में ही है. वीकेंड पे तू भी मेरे घर आ जाना, हम तीनों खूब मस्ती करेंगे.'
'मैंने ने हैदराबाद ट्रान्सफर के लिए अप्लाई किया है.' वो धीरे से बोलता है.
'क्यूँ?'
'तुम नहीं समझोगी दिशा.'
'मैं समझती हूँ विशु.'
'तो तुमने कभी बोला क्यूँ नहीं?'
'देख लड़के बोलते हैं लडकियां नहीं....और वैसे भी तेरी वो इश्क की केमिकल लोचे बाली थ्योरी, टेस्तेरोन-एस्ट्रोजन और पता नहीं जाने क्या-क्या...फिर तू हमेशा ही तो अपनी एक्स के बारे में बोलता रहता था...मैं क्या बोलती. तू बोल सकता था, वैसे भी लड़के ही हमेशा बोलते हैं.'
'चैम्प, नालायक, कोई रूल है क्या, की लड़के ही हमेशा बोलेंगे...और वैसे भी तू कौन सा कम थी, तू भी अपनी थ्योरी देती थी, कि लड़के को लड़की से ज्यादा कमाना चाहिए, अच्छा पैकेज, अच्छी  फॅमिली, गुड लाइफ स्टाइल और जाने क्या क्या....और फिर मैं तेरे से दो साल छोटा भी तो हूँ, ऊपर से ऑफिस में भी तू मेरी सीनियर. तू वैसे भी बहुत मटेरियालिस्टिक है.'
'हाँ और तू सबसे बड़ा चैम्प, साल्ले गाड़ी तो चला नहीं पता, मम्मा'स बॉय...और ऊपर से तेरी एक्स की कहानियां सुनते सुनते पक गयी थी. एक बार भी तू उससे बाहर निकला होता तो सोचती भी.'
'अरे तो मुझे सच में उससे प्यार था, और वैसे भी तुझे कम्फर्ट बनाने के लिए उसकी कहानी सुनाया करता था, नहीं तो तुझे लगता मैं भी औरों की तरह लाइन मारने लगा हूँ.'
'रहने दे, अब क्या मिल गया तुझे, साले मेरी शादी है 48 घंटे में...और कोई फिल्म तो चल नहीं रही है की मैं मंडप से भाग जाउंगी.'
'हाँ तो मैं बोल भी नहीं रहा हूँ.' 
वो उसे हग करती है....वो निःशब्द है.....शायद थोडा खुश भी, अपने दिल की बात कह ली.
'तू बाइक भी नहीं चला पाता.'
'और तू वोमिट करने तक पीती है.'
हा हा हा.........दोनों जोर से हँसते हैं. वो बेहद ठंडी शाम में भी गर्मी महसूस करता है....
कुछ लव स्टोरीज अधूरी ही ज्यादा अच्छी लगती हैं. 


            ----*****----


दूसरा रंग इश्क का--हरा-हरा........

'तुम अजीब हो यार, तुम्हें ये सब करने की क्या ज़रूरत है....वो जैसे भाग गया है, तुम भी भाग जाओ. मुझे किसी के एहसान की कोई ज़रूरत नहीं है.'
'मैं तुमपे कोई एहसान नहीं कर रहा हूँ, बस मुझे जो सही लग रहा है वही कर रहा हूँ.'
'तुम्हें पता है न,मैं अवोर्शन चाहती हूँ, फिर तुम क्यूँ मुझे और इस बच्चे को अपनाना चाहते हो? यार मैं मरना चाहती हूँ.'
'हाँ, वो तो तूने कोशिश कर ही ली, अब पड़ी हो न बेड पे और बाहर तेरे पापा मम्मी परेशान खड़े हैं. बेवकूफ हो तुम...क्या मिल गया ये सब करके?'
'मैं उससे प्यार करती थी, अब किसके लिए जियूं?'
'बचपन से अबतक किसके लिए जी रही थी? कमीनी है तू, सच में, तुझे वही दिखा, आज तक मैं नहीं दिखा? अपने माँ-बाप नहीं दिखे ?' वो गुस्से से बोलता है.
'मैं उससे प्यार किया था, आशु.'
'और मैंने तुमसे दिव्या...आज तक तुम्हे समझ नहीं आया? अपने लिए न सही इस बार मेरे लिए जी लो.'
वो उसके सर पे धीरे धीरे हाथ फेर रहा है...दिव्या की आँखों में आंसू हैं.
मौसम में नमीं बढ़ गयी है, और सूरज ज़रा तेज़ चमकने लगा है.

'हम इस बच्चे का नाम दिव्यात्री रखेंगे.' वो धीरे से बोलता है.

Friday, December 21, 2012

.....खुदा कहीं गुम सा हो गया है!



                             
                                          "यार क्या पढ़ रहे हो?" वो पीछे से पूछती है...."इंडियन इकॉनमी"...."ह्म्म्म मुझे भी पढाओ."...मैं चुपचाप उसे पढ़ाने लगता हूँ. ये किताबों  से मम्मी ने बचपन में दोस्ती क्या कराई...अब लत सी हो गयी है. ऑफिस में खाली टाइम में कुछ न कुछ पढ़ता रहता हूँ. कभी इकॉनमी से वास्ता होता है तो कभी 'पाउलो काल्हो' से तो कभी 'हथकड़' बाले किशोर भाईसाब 'चौराहे पर सीढियां' लेकर पीछे पड़  जाते हैं. खैर, मैं शुरू हो जाता हूँ...."मैं पूछना चाहती हूँ...यार जब WTO ने तक रिव्यू दिया की हम 10 की 'ग्रोथ' कभी 'रीच' नही कर पाएंगे तो हमने ऐसा ऐम ही क्यों रखा? अवर PM इज़ एन इकोनॉमिस्ट ना?"....मैं कुछ नहीं बोलता हूँ........साल्ला फेंकने में क्या जाता है....सरकार कुछ भी फेंक दे...कौन सा सल्ला साफ़ पानी 65 साल में घर तक पहुंचा है जो सब कुछ उनके बोलने से ठीक होना है....वैसे भी आपका CV आपके समझदार होने की निशानी नहीं है.....कैम्ब्रिज, हॉवर्ड ने देश को बहुत से मुर्ख दिए हैं..... खैर उसे बहुत सी चीज़े समझ नहीं आती, कि क्यूँ  68% लोग 2 डॉलर से कम कमा रहे हैं फिर भी हमारी इकॉनमी इतनी तेजी से कैसे बढ़ रही है....40% बेरोजगारी है फिर भी हम कुछ कर क्यूँ नहीं रहे हैं.....और भी जाने क्या-क्या. वैसे समझ तो मुझे भी नहीं आया....और आप नार्मल हैं तो आप को भी नहीं आयेगा...कि देश किसके भरोसे चल रहा है.

                     वो 'ऑफिस कम्यूनिकेटर' पे चैट करता है....."यार तीन दिन से सो नहीं पा रहा हूँ.... दिमाग में वही देल्ही-रेप केस चल रहा ही....उस बंदी की क्या गलती थी....हमारी उम्र की ही है यार!''.....खुदा कहीं गुम सा हो गया है....ना तो हँसता है ना तो रोता है....'हैती' के लोगों के भूख से मरने से देल्ही में रेप तक उसे कुछ फ़र्क नहीं पड़ता....जैसे साल्ला एक प्रोगाम हैंग हो के बैठ गया हो......"यार विव, तंग आ गया हूँ मैं, एक पॉएम लिखी है इस पे....सुनेगा? यार यहाँ बैठे बैठे तो मैं बस यही कर सकता हूँ."......मुझे 'रंग दे बसंती' के 'डायलाग' याद आते हैं.....'कॉलेज के इस तरफ तुम ज़िन्दगी नचाते हो, उस तरफ ज़िन्दगी तुम्हें......' कभी कभी हम कितना बेवस महसूस करते हैं...."एक इन्सान जानवर बन सकता है लेकिन 6 -6 लोग एक साथ जानवर कैसे बन जाते हैं...समझ नहीं आता." हमारी चैट पढ़ रही वो पीछे से बोलती है. मेरे पास जवाब नहीं है.

--***--


लगता है
जिस्म से रूह निकाल
भर दूं कुछ 'प्रोग्राम'.
कुछ इश्क,
कुछ आदमियत,
कुछ नियत.

ख़ुदा के 'प्रोग्राम' में
'वायरस' है कोई.
उम्र के साथ रूह
बेईमान बहुत हो जाती है!

                                   ~V!Vs


                   

Sunday, December 16, 2012

Poetry of a Software Engineer :-)


 औंधी पड़ी हसरतों को
समेटता हूँ
तो लगता है
एक 'प्रोग्राम' इन्हें पूरा करने भी
बना पाता.

पूछता हूँ,
ख़ुदा को कहीं
हसरतें बनाने बाले 'सॉफ्टवेर इंजीनियर' की
ज़रुरत तो नहीं!


--***--

लगता है
जिस्म से रूह निकाल
भर दूं कुछ 'प्रोग्राम'.
कुछ इश्क,
कुछ आदमियत,
कुछ नियत.

ख़ुदा के 'प्रोग्राम' में
'वायरस' है कोई.
उम्र के साथ रूह
बेईमान बहुत हो जाती है!


Saturday, December 15, 2012

इस बार लिफ़ाफ़े में..........



हर शब जब कोई करीब नहीं रहता तो कुछ सबब रहते हैं पास....कुछ ख्याल और इक मिरी परछाई....खोजते खोजते उससे ही बतिया लेता हूँ....कितने लोग शैतान से लड़े और याद बन गये....कभी खुद से भी लड़े होते तो शायद शैतान से न लड़ना पड़ता. अपने से बतियाना बड़ा मुश्किल है....अपने से लड़ना उससे भी ज्यादा.

--***--


ज़िन्दगी 'इकॉनोमी' है तो

कुल सत्तर लोग कमाए हैं
मैंने कब्र तक चलने बाले.

देखो, कुछ कम तो नहीं!


--***--


देखो हर दरख़्त के 
पीछे 
एक नज़्म टिका के
रखी है मैंने.
रास्ता भूल जाओ तो
थाम के आ जाना.

--***--


इस बार लिफ़ाफ़े में

रूह ही रख भेजी है.
अब मत कहना
मैं 'लेटर' नहीं लिखता.

पढ़ लो, जितना पढ़ पाओ.


--***--


रात बड़ी काली सी है,

मेरा चाँद मुआं जाने कहाँ छुपा है.

तू आ जा,

बड़े दिन हुए यहाँ चांदनी नही खिली.

--***--


अलमारी पे चिपका रखी थी

तेरी 'फोटू',
आज लौटा तो फर्श पे मिली पड़ी.

कुछ हुआ क्या?

तेरे अरमां भी जमीदोंज हुए क्या?

--***--


ये नज़्म, ये शायरी, तेरा क्या?

लहू बहा मेरा, तेरा क्या?

अपने से मत पूछना ये सब.

तेरी नम आँखें अच्छी नहीं लगती.

--***--


अक्सर ये हो जाता है,

तू साथ नहीं होती तो
मेरा वजूद,
मुझसे अपनी पहचान पूछ जाता है.

--***--


शैतानियत बनाई थी ख़ुदा ने,

अब उलझा है
शैतान नर्क में धकेलने.

कुछ तो अपने कामों में

'परफेक्शन' ला खुदा!

--***--


देश मुझे लगे अबला,

जिसपर
रातभर मनमानी किया,
सुबह नेता चिल्लाता उठा-
जम्हूरियत है, जम्हूरियत है, जम्हूरियत है!!

Friday, December 7, 2012

रूह को किनारे रख....




बड़ी बड़ी साफ़ चौड़ी सड़के, गार्डन्स, हर कोने पे डस्टबिन, टेनिस कोर्ट, क्रिकेट ग्राउंड ....यहाँ* आकर लगता है जैसे किसी नई सी दुनिया में अ गये हों, जो शायद 'भारत' नहीं 'इंडिया' है.....लेकिन एक उदासी खाकसार सी फिर भी चिपक जाती है......कभी कभी ही सही. लेकिन ये कभी-कभी भी महीने में दो-चार रोज़ ज़रूर होता है. शायद इस जानिब आकर भी उस जानिब की किस्सागोई याद रह ही जाती है.

--***--

हर शब
ख्याल जब
दिन का सफ़र कर,
कागज पे उतरने बैचैनी से
छटपटाते हैं.
नंगे बदन कोई
रोटी जुगाड़ता है कहीं.

रूह को किनारे रख,
इस हालत से इश्क
ज्यादा नहीं होगा.....
उस जानिब से जब
'रिफ्लेक्ट' कर आएगा सच
तुम भी देखना
इस उदासी को कितना धकेलते हैं हम.

तुमही तो कहते थे खुदा
'बड़ी खूबसूरत बना दी दुनिया मैंने.'
'रेड लाइट' पे भीख मांगते
मासूम देख लगता है
अभी कुछ बाकी रह गया.

हर शब
कागज़ पे उतरता हूँ ख्याल
तो लगता है-
मैं 'परफेक्ट' नहीं.
खुदा तू भी तो 'परफेक्ट' नहीं!!


चल इस आड़ी-टेड़ी दुनिया को
मिलकर ठीक  करते हैं.


                                     ~V!Vs
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Pic- Painting by  Francoise Nielly
Infosys Campus, Pune

Saturday, December 1, 2012

उन्नीदे तरकश से




नींद का हल्का सुरूर, 'द नोटबुक' मूवी और 'तेरा' नशा...बंद कमरे की ख़ामोशी रूमानियत लगती है. इश्क में पड़ा पड़ा जब ये दिल पिघलता है तो एहसास की बारिश करता है....जैसे वीरान सड़क पे पड़े सूखे पते मंजिलों पर उड़ रहे हों. हर पत्ता एक-एक याद है, जो खफा है सड़क से कि मंजिल तक क्यूँ नहीं जाती.
रात ढाई बजे ख़ामोशी से 'तेरा' आना वाजिब है...इन बिखरे पत्तों का भी, जिन्हें समेटने की अब शायद ज़रूरत नहीं.

ये कवितायेँ नहीं है...बस रूह से खरोंचे कुछ टुकड़े हैं. थोड़ी रूमानियत से भरे हैं, थोड़ी रूहानियत से.

--****--

अकेले कमरे में
बैठे बैठे भी याद नहीं आती.
जैसे कनस्तर को
ठक-ठकाने पर भी
कुछ नहीं निकलता हो.

कनस्तर खाली है.
रसोई में कुछ पकाने नहीं है.
तेरी याद भी नहीं!
तेरी भूख भी नहीं!


--***--

आज रिश्तों की
मरम्मत का मन नहीं है.
टूटे शीशे से अक्स बहुत दिखते हैं.
टूटे रिश्ते से अक्स बहुत दिखे,
तेरे भी,
मेरे भी.

इस दफा आत्म सम्मान बचा के रखूँगा.
इस दफा रिश्तों की
मरम्मत का मन नहीं है.

--***--


तू खफा होती रही
मैं रिश्ता रफू करता रहा.

अब वह चींदे बचे हैं,
रिश्ता नहीं.
हर चींदा गवाह है
हमारे उजड़ने का,
रिश्ता मरने का.

सोचता हूँ
रिश्ते उतार दूं.
मखौल उड़ाते हैं लोग
चिथड़े पहने देखकर.

--***--

खिड़कियाँ शोर करती हैं,
तेरी यादें अब अभी
वहीं से आती हैं.

सही से झांको कमरे में,
किसी को ओढ़े हूँ मैं.
यादों का अलाव की ज़रूरत नहीं है.

Sunday, November 25, 2012

अमृता प्रीतम पर



तुम्हारी तरह शब्द नहीं बुन पाता,
कुछ ख्याल बे-ख्याल ही रह जाते हैं.
थक-हार
तुम्हें उठा लेता हूँ.
तुम्हारे शब्द
अपने से लगते हैं.

जब कभी पैरहन पे
शुन्य दीखता है,
आगोश में भरता हूँ
तुम्हारे ख़त,
तुम्हारा 'रसीदी टिकट'.

मेरा हरा रंग,
तुम्हारे बसंती ख्याल.
कितने आस-पास हैं हम!

Tuesday, October 16, 2012

ये नज़्म समर्पित है 'बीबीसी ब्लॉगर' मलाला यौसुफ्जई के लिए, जिसे पिछले हफ्ते तालिबान ने गोली मार दी. 'गर्ल् एजुकेशन' पर काम करने बाली इस 14 वर्षीय लड़की से खुदा शायद डर गया था. मलाला के साहस को सलाम!
ये नज़्म, शायद Comparison भी है, एक ख्याल जिसे हम खुदा कहते हैं और एक सच जिसे हम डॉक्टर कहते हैं, दोनों के बीच.
शायद लिखने का तरीका आम नज़्म से ज़रा हटके है, लेकिन मुकम्मल कोशिशें बहुत की हैं, कि आपको पसंद आये.


***
खुदा से ***


देखो, दो अल्फ़ ही तो
पढ़ना चाहे थे उसने.
शायद पढ़ के
तेरी ही इबादत करती
या खैरियत तेरे बन्दों की.
सुधरती भी, तेरी ही बनायी
केसरी कायनात.

हैवान बन
तान दी बंदूकें!
तू कभी नहीं सुधरेगा.

अच्छा है,
कुछ बन्दे तुझसे दगा कर,
जमीं पे परीज़ंदा बन गये हैं.
भई, हम तो उन्हें 'डॉक्टर' कहते हैं,
तू शैतान कह ले!
घंटों की मशक्कत से,
तुझसे छीन लाये ज़िन्दगी.

ये खुदा,
मलाल तो होगा तुझे
कि 'मलाला' बच गयी है.


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अल्फ़- First Alphabet of Urdu
केसरी कायनात-Beautiful World
परीज़ंदा- Like Angels

Read about Malala Yousuzai on NYT (http://www.nytimes.com/2012/10/16/world/asia/malala-yousafzai-taliban-shooting-victim.html

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Vivek  VK Jain    

Saturday, October 6, 2012

सरहदें (टोबा टेक सिंह पर )



















देखो ये सरहदें,
अरे! हवाएं गुजर गयीं इनसे.
.....और ये पंछी,
इन्हें भी नहीं रोक पायीं ये.
लेकिन हमारा 'प्लेन' कभी
लाहौर नहीं उतर पाया.

बोतल में बंद कर कभी
पैगाम-ए-मोहब्बत फेंका था समंदर में,
सुना है रहीम मियां को
मिला है करांची में.
लेकिन मेरी नावें
कभी लंगर न डाल पायीं वहां!

कुछ पानी के कतरे
करांची से चलकर
मेरी सरजमीं पर नमक बन गये हैं!
हमारी नर्मदा भी
अरब में गिरती है.
करांची ने भी उसका पानी कभी
चखा ही होगा.

ना तुमने कभी चाहीं,
ना हमने कभी चाहीं,
फिर सरहदें क्यूँ बना दी?

अरे! ये बाघा बोर्डर तो हटाओ
वहां मेरा 'टोबा' मरा पड़ा है.
लगता है,
पागलों में वाइज़ से ज्यादा अक्ल है!
सब पागल ही हो जाएँ,
तो शायद सरहदें ना रहें.

                                   ~V!Vs

टोबा= टोबा टेक सिंह, सआदत हसन मिन्टो की बंटवारे पर लिखी बड़ी प्रसिद्द कहानी है, जिसका किरदार टोबाटेक सिंह (बिशन सिंह) पागल रहता है, और बाघा बोर्डर पर मर जाता है (उधर ख़ारदार तारों के पीछे हिंदुस्तानथा, इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान ; दरमियान में ज़मीन के उस टुकड़े पर जिसका कोई नाम नहीं था, टोबाटेक सिंह पड़ा था.)
(read story here-
http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2005/05/050510_manto_tobateksingh.shtml (hindi)

http://www.sacw.net/partition/tobateksingh.html (english))

वाईज- उपदेशक
अरब- Arabian Sea

Sunday, September 9, 2012

प्रधानमंत्री से....




















मैं पूंछना चाहता हूँ कुछ,
कुल जमा तेईस कि उम्र में
ज्यादा समझ नहीं मुझे
लेकिन बचपन में
मैंने पडोसी के घर के
दो कांच फोड़े थे
तो माफ़ी मेरे पापा ने मांगी थी.

मुझे याद है...हाँ, याद है
जब मैंने पड़ोस के
छोटे से बिट्टू को
सड़क पे गिराया था तो
माँ ने खींच के मारा था मुझे.
गुस्से से बड़बड़ाई थी-
'शायद मेरी परवरिश में ही कहीं
खोट रह गई.'

मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ,
आप बस घर के नहीं
सारे वतन के मुखिया हैं,
फिर क्यूँ नहीं कभी
जिम्मेदारी से स्वीकारी
सदस्यों कि गल्तियाँ
या क्यूँ नहीं कहा कभी
'शायद खोट हममें है,
हमारे नेतृत्व में है.'

Tuesday, September 4, 2012

....लड़ेंगे फिर कभी

चलो मैं तुम्हारे अल्लाह को
एक चवन्नी में खरीद लेता हूँ.
तुम मेरे ईश्वर को,
चार आने में खरीद लो.

हर उपवास को रोज़े से बदल देता हूँ,
तुम चाँद को उठा
उस कोने में रख दो,
जिससे दिखता रहे हमेशा.
हर रोज़े में
देखना पड़ता है इसे.
और ये करवाचौथ......उफ़! बेचारी सुहागिनें.
रख दो, इसे उस कोने में रख दो!

देखो दिए तो छुओ,
तुम्हारे छूने से बुझते नहीं ये.
मेरे छूने से,
तुम्हारी कोई ईदी बासी भी नहीं हुई.
जमाराह उठा के पटक देते हैं,
रावन इस बार नहीं बनाते.
पापों को लताड़ना क्या
जब वो हममें-तुममें
सामान हज़ार बरस से बैठा है!

चलो इस बार
तुम अपनी दाढ़ी काट लो,
मैं अपनी चोटी काटता हूँ.
मैं जनेऊ फेंकता हूँ,
तुम टोपी फेंक दो.
आदमी को आदम सा दिखने तो दो ज़रा,
क्या-क्या नकाब पहनेंगे.....?

चलो मेरी आँखों की
नफरत मोहब्बत से रंग दो तुम.
मैं तेरी आँखों का तीखापन
प्यार से धकेलता हूँ.

इस बार गले मिलते हैं,
....लड़ेंगे फिर कभी.
       या कभी नहीं.

Tuesday, August 28, 2012

देखो.....प्रकृति हैं हम!


सुबह सी तुम
खिली-खिली......बिलकुल मासूम.
मोटे चश्मे से
नीली आँखे लिए
झांकती हो तो.....
लगता है,
दिन निकाल आया हो,
सूरज उग आया हो.

दोपहर सा मैं,

थोड़ा सा तीखा.....थोडा सा तेज.
झांक के देखता हूँ
रंग छितराती,
बूझ बुझाती,
पनीली आँखों में
कुछ बात लिए तुम.

शाम सी तुम

रात के इंतज़ार  में
यों किसी चोटी पर
अकेले ही
कर रहे हो इंतज़ार,
रात आने का!

रात सा मैं

आता हूँ,
तेरे साथ बैठने
उसी चोटी पर
अकेले.
अकेला मैं, अकेले तुम......साथ हम.

तुम्हारी आँखों में

झांक के देखता हूँ.
बीते पहर में
तुम्हारी आँखों में,
रात सा आलस है!
रात तो मैं हूँ......तुम तो 'मैं' हो गये!

इक भोर

फिर से तुम 'तुम' हो,
मैं  'मैं'
एक भोर, एक दोपहर,
एक शाम. एक रात.
देखो.....प्रकृति हैं हम!

गुजारिश है,

हमें कोई नाम ना देना.
दोस्ती सा पावन रिश्ता देखा नहीं हमने!

Saturday, August 18, 2012

तुम कभी आओ तो......


तुम कभी आओ तो
चिराग बन मत आना
मुझे तीरगी पसंद है अब.

तुम कभी आओ

तो हवाएं बन मत आना
अब घर में झरोखे नहीं हैं.
बादल भी मत बनना, बारिश भी नहीं,
माना सहरा बहुत है यहाँ,
लेकिन प्यास वो नहीं रही.
उलझन मत बनना, आशा मत बनना,
बेईमानी का सबब है सब.
पहले भी आ चुके तो तुम येसे.

तुम कभी आओ तो

खुदा भी मत बनना.
खुदा के पास
देने रंज-ओ-गम बहुत है,
ख़ुशी कम!

तुम कभी आओ तो......

अच्छा आना ही मत!
अब टुकडो में रहने कि
आदत पड़ गई है.
 संवारना मत,
सम्हालना मत,
अकेलापन हटाना मत.
तुम कभी आना मत
.



---
तीरगी -अँधेरा 
सहरा -रेगिस्तान 

Monday, August 13, 2012

माँ

चाय में
जब भी चीनी ज्यादा होती है,
दाल बड़ी सादा होती है,
 चावल संग अचार खाता हूँ,
तकिया रख सोने जाता हूँ.
बिखरी किताबें समेटता हूँ
पुराने पेपर सहेजता हूँ.
;चम्पक', 'नंदन', 'सरिता' सी,
पहली लिखी कविता सी.
तवे पे अधजली रोटी में,
'कैरम' की गोटी में,
शीशे में जब भी
अपने अक्स से नज़रें मिलाता हूँ,
तुझे पीछे खड़ा पाता हूँ.

Thursday, August 9, 2012

The B-Team

Sometimes in a very low day you want something to energies you, to make you feel alive, for me reading is that tonic. I am sharing some blogs, some people i read. This is not an award, but just a list of few very sensitive people and some blogs, all of them are awesome.

1. Sensitive Chaos- Kanika reading you is like reading a honest teen. Gal, u r rocking, ur photograhy is amazing. 

2.Chaai, paani, etc-  Kuch kahoon, tumhe na chaai, paani sa jaldi jaldi achha likhne ki aadat hai!

3. Shape of my heart- Deepti, It all comes down to one thing. Expressions.



5. Dil Ki Baat -  Doctors are really very Sensitive, if you wanna know just read him. Once start, u will not stop reading him till the last post. 

6. Hathkad- Kishore Chowdhary, i read his stories earlier but on Hathkad i appreciate his poems.

7.Rhythm of Words- The power of imagination makes us infinite. That is why i am talking about this blog.

8. The silence of my Voice- Akanksha dont like chocolates but writing!

9. Echoes of my Heart- Read 'Is Paar, Us Paar', aap samajh jaynge ki yeh blog yhaan kyu hai. 

10. Rashmi Ravija- Simply Superb. :) :)

and finally two people i read most,  JAVED AKHTAR and  GULZAR. They are not names, They are brand ambassadors  of Love, Sorrow, Joy and Nazm, Gazal, Triveni.

Sunday, August 5, 2012

Triveni:दोस्ती!


बड़ी चालाकी से किसी को भी बना लेती है अपना,
नशा है, जुनूं है, ज़िन्दगी है,बे-मज़हब पर दुरुस्त है.

शराब सी ज्यादा, जरा शातिर कम है ये दोस्ती!

Saturday, August 4, 2012

9 Brilliant Print-Ads.....So Creative, just say WOW!!

Hi after sharing Best print ads of India I am sharing 9 really Brilliant Ads.....Hope You will like all.


1.Extra....for healthy teeth. A simple but brilliant ad conveying full message.






2. Nerolac Paint ....Quick Dry.  Don't u think, this is a very beautiful ad?



3.Sia Huai... for the sharpest Knives! Even with knives u can Draw, Design!!



4. U r gonna love this! Ad of a KARATE SCHOOL!!


5. Its not a parody of Johnie Walker.... Its an Ad of TRAFFIC POLICE.....Simple, Superb..
now onward do not mix DRINKING AND DRIVING......We CAReful :)


6. Want Thick Hairs?? Use PARACHUTE. A simple picture can convey a BIG MESSAGE. Here is the  example.....

7. FEVICOL a brand can get position with such Creative Ideas.... just say WOW!! for this picture.


8. Prasoon Joshi made the punchline 'Thanda Mtlab COCACOLA' but his creativity in this 12 years old ad made Him.

 

9. It happens with most of the posters.....but creative people can give meaning for garbage...
This ARIEL ad is superb example of Extra-Ordinary IDEAS. HATS OFF!!

Thursday, August 2, 2012

कभी कभी...















कभी कभी लगता है
मांग लूं वो दिन,
वो घंटे,
और कह दूं,
इनका इससे बेहतर इस्तेमाल भी हो सकता था.

कभी कभी लगता है

मांग लूं ज़िन्दगी,
चुरा के ले गये थे तुम.
और कह दूं ,
ये तो मेरी है, मेरा हक है इसपर!

कभी कभी लगता है

रूह से
खरोंच दूं तेरे निशां.
और कह दूं,
तुम्हें हक नहीं है
ता उम्र यहाँ बैठे रहने का.

कभी कभी लगता है,

तेरा लम्स, तेरी खुशबुयें
निकाल फेंकूं.
....लेकिन खुद को खुद से निकालना
इतना आसान तो नहीं!

फिर कभी कभी लगता है,

फिर खेलते हैं,
ये 'गेम'
जब तक कि मैं थकता नहीं,
तुझे अन्दर से दुखता नहीं.

Wednesday, August 1, 2012

Triveni: हिस्सा


दिन सारा आफताब खा गया,
तेरी रात चाँदनी ने चुरा ली.

मैं ज़िन्दगी का हिस्सा नहीं रहा अब!

Saturday, July 28, 2012

Zindagi: A Song



लिहाजों
लिवासों
लफासों
सवालों से
भरी ये ज़िन्दगी...

थमी सी
रुकी सी
चली सी
उड़ी सी
बढ़ी ये ज़िन्दगी...

तुममें भी
हममें भी
खुशियों में
गम में भी
थोड़े उजाले में
तम में भी
दौड़ी चली ये ज़िन्दगी...

ये ज़िन्दगी...
ये ज़िन्दगी.......

इकरारों में
इन्कारों में
इशरारों में
इशारों में
कुछ कहती
कुछ सुनती
ख्वाब नये बुनती
चल पड़ी ज़िन्दगी....

ये ज़िन्दगी...
ये ज़िन्दगी.......

बेनामी में
सुनामी में
सूखे में
अकाली में
दो दानों में
खाली थाली  में
डगमगायी, सम्हली ज़िन्दगी....

ये ज़िन्दगी....
ये ज़िन्दगी.........
ज़िन्दगी, ज़िन्दगी, ज़िन्दगी.......

खुशनसीब ज़िन्दगी,
हर दिल अज़ीज़ ज़िन्दगी...
ये ज़िन्दगी...
ज़िन्दगी, ज़िन्दगी............ज़िन्दगी.

Friday, July 27, 2012

ज़िन्दगी



 नज़्म सी सुन्दर
चाय कि प्याली सी.
ज़िन्दगी लगे प्यारी सी.

अभी चुप चुप सी

अभी सयानी सी
पंख ले उडी
कोई कहानी सी.
थोड़ी थोड़ी मासूम,
थोड़ी दीवानी सी.
ज़िन्दगी लगे प्यारी सी.

कभी सतरंगी हो बरसे,

कभी श्यामल ही हरसे,
दूर कही पोखर से
तारे चुन चुन निकाले.
सपने खुद ही बुन ले,
खुद ही उनको ढाले.
नाजुक है,
नजाकत से संवारी सी.
ज़िन्दगी लगे प्यारी सी.

खुद का आसमां बुना,

खुद की ज़मीन चुनी.
शीशे में खुद ढला,
रूनी खुद ही धुनी.
लफ्ज़-लफ्ज़ में फिदरत,
अल्फ़-अल्फ़ अदा.
पतंगों से उड़ती,
मजिल चूमे सदा.
कभी आस, कभी प्यास,
कभी बेकरारी सी.
ज़िन्दगी लगे प्यारी सी.

एक रात शबनमी

उस रात बहकी.
एक रात चुचाप
खुद ही सम्हली.
थामे सारे रिश्ते-नाते,
थामे कच्ची-पक्की बातें,
कच्चा सा फूल,
पक्के संस्कारों की क्यारी सी.
ज़िन्दगी लगे प्यारी सी.

कभी थोड़ी थोड़ी खफा,

कभी लगे दुआ.
कभी जुदा जुदा,
कभी खुद खुदा.
बचपन की कहानी सी,
मीठी शैतानी सी,
कोई नादानी सी,
बेफिक्र जवानी सी.
ज़िन्दगी लगे प्यारी सी.

भूलने की कवायत,

नया करने की तैयारी सी.
ज़िन्दगी लगे प्यारी सी.