Thursday, April 23, 2015

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रात वह धुंआ है जो तुम्हारे ज़िस्म से उतर पहाड़ों से होकर आकाश में नहीं खोने वाली, ठीक उस लड़की की तरह जिसके सपने में तुमने घर बसाया था और तुम्हारे ख्वाबों में उसने नया शहर. वो शहर मरा नहीं है, बस ऊंघता रहता है, जैसे मुग़लों के वक़्त से उसमें कोई रह ही न रहा हो. कैलेंडर तारीखें बदलता रहता है, याद हर दिन बूढी होती है, सोचता हूँ मरेगी एक रात. लेकिन इन तैरती यादों को किताबों से नहीं मारा जा सकता. सब बेमानी होता है इन रातों में आँखे पथरा जाती हैं और लड़के ने पहली दफे जाना की लड़की का ना होना किताबों से नही भरा जा सकता. फ्रेंज़ काफ्का से भी नहीं!
सोचता हूँ पूछ लूँ... तुम्हारे सपनों में बसे मेरे घर का क्या हाल है?


मर्दों ने कहा

मर्दों ने कहा
औरतों को आते हैं मासिक धर्म,
इसलिए हैं वे अपवित्र.
इसलिए उनके लिए बंद कर दो
तमाम पूजाघर, तमाम मठ-मंदिर.
घरों से दूर रखो इन्हें,
झोपड़ों में
और न छूने दो बर्तन, खाना.
मर्दों ने कहा
औरतें हैं अपवित्र,
इसलिए नहीं पाएंगी मोक्ष,
और न ही सुख से जी पाएंगी समाज में.
एक दिन मर्दों ने कहा
भगवान ने पवित्रता का ठीकरा मर्दों के हाथ
में रखा था.
इसलिए मार दी जाएँगी तमाम औरतें!
मर्दों ने कहा और किया
और मानव धरती से विलुप्त हो गया!