Sunday, June 3, 2018

स्थापित सत्य


मुझे ईश्वर नहीं चाहिए
तुम्हारी आस्थाएं और नियम भी नहीं
मैं आदिमानुष हूँ
जो अभी भी उन कंदराओं में जी रहा हैं
जिनमें बस उसके नियम चलते हैं
उन कायदों में बंधा है
जिनसे उसे सुख मिलता है
और उन आँखों से दुनिया देखता है
जो उसे जन्म से मिली थीं.
मुल्कों को नकार
धर्मों को नकार
जातियां नकार
मिले लिंग को नकार
युद्धों को नकार
दंगों को नकार
हत्याएं नकार
अभिमान और ज्ञान नकार
जो बचता है
वो थोथला नंगा इंसान है
जिसके कपड़ों से बू नहीं आती
हत्याओं को,
धरती हड़पने की,
प्रदूषण की,
जन-जंगल-जमीन हरने की
न किसी स्त्री के खून की.
वो मैं हूँ.
और अगर तुम भी वो बन सकते हो मेरे दोस्त
तो आओ
मेरे साथ चलो
नंग-धडंग
अपने समाज, परिवार और आस्थाओं से परे.
यदि नहीं कर सकते ऐसा
तो कितना भी लिख लो तुम 'आज़ादी'
कितना भी कह लो 'फेमिनिज्म'
कितना भी चिल्ला लो तुम 'प्रेम'
तुम्हारा कहा सब मृगमरीचिका है
तुम्हारा ज्ञान सब थोथा विज्ञान है
और रही बात तुम्हारी कविता की
वो सब बारहखड़ी के अलावा कुछ भी नहीं
जो कागज़ रंग रही है
और पेड़ गिरा रही है.
मेरे दोस्त
कोई भी इंसान आदिमानुष
हुए बगैर
कवि नहीं हो सकता
न ही मेरा मित्र.
ये भी एक प्रथम और अंतिम स्थापित सत्य है
जिसे जनजातियों की तरह विस्थापित नहीं किया जा सकता.