एक शहर है जो हर दिन बदलता है। कुछ चेहरे उसमें जुड़ते हैं, कुछ भी बिछड़ते हैं। लेकिन फिर भी वो स्थिर है। उसकी गलियां वही हैं, घरों की जगह वही है। करीब 3000 वर्षों बाद जब उसे खोज़ा जाएगा, हड़प्पा की तरह तो हम कहेंगे उम्दा शहर था, नगरीय व्यवस्था थी। आज वहां पर फुटपाथ पर ठंड में मरा वह बूढ़ा इसके खिलाफ गवाही है! इतिहास रुलर्स हैं, पॉलिसीज़ हैं, इंफ्रास्ट्रक्चर है... पर जो नहीं है वह बूढ़ा जो ठंड में फुटपाथ पर मर गया। जिसका कहीं नाम नहीं है। किसी सरकारी कागज में दर्ज भी हो तो खो जाएगा। 'अज्ञात व्यक्ति' का पुलिस दाह संस्कार कराएगी।
इतिहास में दर्ज तो पुलिस भी नहीं है।सारे ' सरकारी' कर्मचारी ही। वे लोग बस हैं जिनके लिए ये काम करते हैं- सत्ताधीश।
मोहम्मद बिन तुगलक की कितनी ही पॉलिसीज़ गलत थीं। कोई तो अधिकारी रहा होगा जिसने उसका विरोध किया होगा। किसी ने तो विरोध में इस्तीफा दिया होगा। किसी ने तो उसका आदेश मानने से इंकार किया होगा। उसका भी तो नाम इतिहास में होना था।
इतिहास की कहानियों में इमरजेंसी में इंदिरा गांधी के नाम के साथ उनका आदेश न मानने वाले अधिकारियों के नाम की दर्ज होने थे। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के साथ विनायक सेनों, संजीव भट्टों के नाम भी दर्ज होने थे।
जीवनगाथाओं, बायोग्राफीज़ में बेहतरीन कामों के अलावा गलतियों का भी जिक्र होना चाहिए। दर्ज़ होना चाहिए कि उनकी इस गलती की वजह से आज देश को क्या भुगतना पड़ रहा। दर्ज़ होना चाहिए कि महान विभूति होते हुए भी उन्होंने ऐसी तमाम गलतियां की जो भविष्य में याद रखी जाएंगी और चेतायेंगी कि ऐसी गलतियां हमें आगे नहीं करनी है। लेकिन अफसोस इतिहास में दर्ज़ होते हैं सत्ताधीश, पॉलिसीज़, इंफ्रास्ट्रक्चर और गुम होते हैं वे लोग जिनके लिए ये सब बनाए जाते हैं या थोपे जाते हैं। विद्रोह... विद्रोह बस कभी-कभी दर्ज़ होता है। बहुत कम ही... किसी नेल्सन मंडेला का, किसी बहादुर शाह जफर का या किसी बिरसा मुंडा का और 200 वर्ष के अंतराल में सत्ताधीश रह जाते हैं, विद्रोह गायब हो जाते हैं... इतिहास से।
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