Friday, November 18, 2016

राजनीतिः नक्सल समस्या की जड़ें | संजीव पांडेय

एक बार फिर नक्सली हमले में पुलिस के कई जवान शहीद हो गए। औरंगाबाद-गया जिलों की सीमा पर सोनदाहा के जंगल में नक्सलियों ने आइइडी से विस्फोट कर दस जवानों की जान ले ली। पुलिस की जवाबी कार्रवाई में चार नक्सली भी मारे गए। हालांकि सरकार ने दावा किया कि हर जगह मात खा रहे नक्सलियों ने बौखलाहट में यह हमला किया। लेकिन जानकार बता रहे हैं कि नक्सलियों के जाल में पुलिस फंस गई थी। पुलिस में आपसी सहयोग की कमी थी और इस कारण नुकसान ज्यादा हो गया। हमले के बाद राजनीति भी तेज हो गई और बिहार सरकार को निशाने पर लिया गया। हालांकि समस्या की जड़ क्या है, इस पर कोई बात करने को राजी नहीं है। सच्चाई तो यही है कि गांवों में जमींदारों और भूमिपतियों के खिलाफ शुरू किए गए नक्सल आंदोलन की दशा और दिशा दोनों बदल गई है और इसमें अहम भूमिका कॉरपोरेट और राजनीतिक दलों की है। क्योंकि कई साल पहले ही गांवों में जमींदारों ने या नक्सलियों के सामने घुटने टेक दिए या गांव छोड़ कर भाग गए।
खबर आई है कि आईईडी विस्फोट नक्सलियों के बाल दस्ते ने किया है। नक्सलियों द्वारा बाल दस्ता तैयार किए जाने की खबरें काफी पहले से आ रही थीं। नक्सलियों द्वारा बाल दस्ते के गठन के कई कारण हैं। पहले तो, छोटे बच्चों पर पुलिस अमूमन शक नहीं करती। वहीं इलाके में भारी गरीबी के कारण कई जगहों पर नक्सली बच्चों के माता-पिता को बरगलाने में कामयाब हो जाते हैं। यही नहीं, नक्सली जोर-जबरदस्ती कर हर परिवार से बच्चों को बाल दस्ते में शामिल करने की कोशिश करते हैं। उनकी इन जोर-जबर्दस्ती से परेशान हो बिहार-झारखंड के नक्सल प्रभावित इलाकों के बहुत-से परिवार अपने बच्चों को छोटे शहरों में मजदूरी करने के लिए भेज चुके हैं। जीटी रोड पर बनारस के बाद ही बिहार और झारखंड तक बने लाइन होटलों में छोटे-छोटे बच्चे काम करते नजर आए। इनमें से ज्यादातर जीटी रोड के दोनों तरफ प्रभावित नक्सल इलाके के गांवों के बच्चे हैं जो नक्सलियों के डर से गांव छोड़ चुके हैं। इन बच्चों को मासिक मेहनताना महज पांच सौ से एक हजार रुपए मिलता है। यही नहीं, कई गरीब परिवार तो शहरों में अपने बच्चों को इस शर्त पर किसी परिवार के पास छोड़ने को राजी हैं कि दो वक्त का खाना भर दे दें। क्योंकि उन्हें अपने बच्चे की जान की फिक्र लगी है।
इसमें कोई शक नहीं कि नक्सली इस समय कैडर की कमी से जूझ रहे हैं। इसके कई कारण हैं। लेकिन यह भी सच्चाई है कि नक्सल प्रभावित इलाके में लोगों का शोषण आज भी जारी है। इस शोषण के लिए तमाम लोग जिम्मेवार हैं। इसी मजबूरी का फायदा उठा नक्सली बाल दस्ते तैयार कर रहे हैं। उनके भय से युवा अपना इलाका छोड़ महानगर की तरफ भाग रहे हैं। क्योंकि स्थानीय स्तर पर इन्हें रोजगार नहीं है। युवाओं को बड़े शहरों में आकर मजदूरी करना मजबूरी है। लेकिन बाल दस्ते के साथ-साथ नक्सलियों के महिला दस्ते ने भी नक्सल प्रभावित इलाके में एक नई समस्या पैदा की है। नक्सलियों के डर से बड़े पैमाने पर गांव-देहात के लोग अपने घरों की महिलाओं को शहरों की तरफ भेजने लगे हैं।
इसमें सबसे ज्यादा चांदी मानव तस्करों की हुई है जो बड़े महानगरों में आदिवासी और अन्य महिलाओं को बेचने तक का काम करते हैं। क्योंकि नक्सली गांवों में जाकर लोगों को महिलाओं को भी नक्सलियों के गुरिल्ला दस्ते में भेजने का दबाव बनाते है। मजबूरी में मां-बाप अपनी बेटी को शहर की तरफ भेजना ही सुरक्षित समझते हैं। झारखंड के कई गांवों में महिलाओं के साथ इस तरह की घटना की बातें सामने आई हैं।
नक्सल आंदोलन ठहराव के दौर में है। लेकिन इसे खत्म करने के लिए सरकारों को काफी काम करना होगा। ठहराव के दौर में कैडर की कमी से जूझ रहे नक्सली कोई बड़ी वारदात करने की फिराक में रहते हैं ताकि सरकार और लोगों पर उनका खौफ बना रहा। औरंगाबाद की घटना इसी का नतीजा है। पिछले कुछ सालों में बिहार और झारखंड में सीपीआइ (माओवादी) के कई प्रमुख लोग पकड़े गए। इसमें से कुछ तो औरंगाबाद जिला जेल में ही बंद हैं। वैसे में बिहार और झारखंड में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए नक्सली वारदात करने की योजना बनाते रहते हैं। लेकिन दूसरी ओर, सरकार और पुलिस बल में भी आपसी तालमेल की कमी है। औरंगाबाद में दस जवानों की शहादत से पता चला कि पुलिस में भी आपसी तालमेल का अभाव है।
औरंगाबाद पुलिस गया और औरंगाबाद जिलों की सीमा पर कार्रवाई के लिए पहुंच गई, लेकिन गया पुलिस से उसके तालमेल का अभाव था। गया पुलिस को सूचना तब मिली जब विस्फोट हो गया और कई जवान मारे गए। दरअसल, पुलिस अधिकारियों के बीच वाहवाही लेने की होड़ के अक्सर शिकार जवान होते है। बताया जाता है कि जिस नक्सल कमांडर संदीप की खोज में औरंगाबाद पुलिस सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन के साथ कार्रवाई के लिए सोनदाहा जंगल में पहुंची उसे संदीप ने खुद अपने जाल में फंसाया था। नक्सलियों ने ही औरंगाबाद पुलिस को सूचना दी कि संदीप फिलहाल इसी इलाके में है। नक्सलियों को पता था कि पुलिस कार्रवाई के लिए आएगी इसलिए पूरे इलाके में विस्फोटक बिछा दिए थे।
दरअसल, सरकारी तंत्र और पुलिस बलों में नक्सलियों की घुसपैठ एक बड़ी समस्या है। छत्तीसगढ़ में कुछ साल पहले नक्सली हमले में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के सत्तर से ज्यादा जवान मारे गए थे। गृह मंत्रालय ने इस घटना की जांच की थी। जांच में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। जांच में पता चला कि नक्सलियों को जंगल में घूम रहे सीआरपीएफ के जवानों की एक-एक गतिविधि की खबर थी। क्योंकि नक्सलियों के पास सीआरपीएफ से गायब किए गए वायरलेस सेट मौजूद थे। एक गांव में जब सीआरपीएफ के जवान खाना खाने के लिए रुके तो नक्सलियों ने उनके खाने में बेहोशी की दवा मिलवा दी। खाने के बाद सीआरपीएफ के जवानों की नींद आ गई और नक्सलियों ने हमला कर दिया। हमले में सीआरपीएफ का सिर्फ एक जवान बच सका था।
नक्सली आंदोलन एक नए मोड़ पर है। नक्सल प्रभावित राज्यों में पुलिस कार्रवाई तेज हुई और इससे नक्सलियों को काफी नुकसान पहुंचा है। नक्सली कमांडरों के आर्थिक हित कई जगहों पर सरकारी योजनाओं से जुड़ चुके हैं। वे विकास परियोजनाओं पर लेवी भी लगाते हैं और विकास परियोजनाएं हासिल करने वाली कंपनियों में अप्रत्यक्ष रूप से अपना निवेश भी करते हैं। उधर सरकार इन सारी चीजों की जानकारी के बाद भी चुप बैठी रहती है। विचित्र है कि राज्य सरकारें नक्सल प्रभावित इलाकों में आम लोगों की समस्याएं दूर करने के लिए संजीदा नहीं दिखतीं। लोगों को मूलभूत सुविधाएं मुहैया नहीं करवाई गई हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और पीने कापानी तक लोगों को उपलब्ध नहीं है। बिहार-झारखंड के कई जिलों में पीने के पानी की भारी समस्या है। यही नहीं, इन इलाकों में पीने के पानी में आर्सेनिक की मात्रा काफी ज्यादा है। इससे लोगों में कई बीमारियां हो रही हैं। सोनदाहा जंगल में पुलिस की जवाबी कार्रवाई में मारे गए एक नक्सली जितेंद्र मांझी का गांव धूपनगर गया के ही आमस प्रखंड में है। उसके गांव के पानी में इतना ज्यादा आर्सेनिक था कि लोग बड़े पैमाने पर बीमार हो गए थे।
हालांकि राज्यों की मशीनरी जहां ठप है वहीं केंद्रीय पुलिस बलों द्वारा स्थानीय लोगों की समस्या दूर करने की कोशिश हो रही है। केंद्रीय पुलिस बल गांवों में स्वास्थ्य शिविरों का आयोजन करवा रहा है। लोगों को जरूरत के सामान भी केंद्रीय पुलिस बल बांट रहा है। नक्सल प्रभावित इलाकों में काम कर रहे पत्रकारों का कहना है कि कुछ सरकारी अधिकारी चाहते हैं कि यह समस्या बरकरार रहे। इलाके के विकास के नाम पर आने वाले पैसे से इनकी चांदी होती है। अशांत क्षेत्र के नाम पर विकास के लिए खूब पैसा आता है। लेकिन पैसा लोगों के बीच विकास के लिए नहीं पहुंचता। इसका पहले ही बंदरबांट हो जाता है। इस बंदरबांट में नक्सली कमांडरों की भूमिका भी होती है। इस मामले में सरकारी अधिकारियों से उनकी मिलीभगत होती है। नक्सली कमांडरों को भी उनका हिस्सा पहुंच जाता है। हर विकास परियोजना में उन्हें बीस से तीस प्रतिशत तक की राशि मिलने की बात कही जा रही है।
बिहार और झारखंड में नक्सली आंदोलन एक और समस्या से जूझ रहा है। यहां मध्य स्तर पर नक्सली संगठन जाति के आधार पर बंटे है। नक्सली आंदोलन में कमांडरों की जाति महत्त्वपूर्ण है। जाति के आधार पर कमांडर बंटे हुए है। जातिगत आधार पर बंटे होने के कारण कुछ कमांडर समय-समय पर पुलिस की मदद भी कर देते है। सीपीआइ (माओवादी) में मध्यम स्तर के ज्यादातर नक्सली कमांडर यादव, पासवान या झारखंड की जनजातियों से संबंधित हैं। यादव और पासवान जाति का छतीस का आंकड़ा है। नक्सली संगठनों में भी इस टकराव की छाया दिखती है। झारखंड और बिहार में कई नक्सली कमांडर संगठन में जातिगत तनाव के कारण पुलिस कार्रवाई में मारे गए। क्योंकि पुलिस को अंदर से ही सूचना मिली। बीते कुछ सालों से बिहार और झारखंड में पासवान और जनजातियों से आए कमांडरों से ज्यादा ताकतवार यादव कमांडर हैं। इसे कई बार दूसरी जाति के कमांडर बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं।

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