अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में प्रेसिडेंशिअल बहस के तीनों दौर में हिलेरी क्लिंटन और डोनाल्ड ट्रम्प ने पुलिस की सामाजिक जवाबदेही और सुप्रीम कोर्ट के जजों की सामाजिक प्रतिबद्धता पर टिप्पणी की। भारत के चुनावों में कुछ हद तक कानून-व्यवस्था को लेकर तो मुद््दा बनता है, पर कानून लागू करने के प्रति जिम्मेदार कर्मियों के सामाजिक और संवैधानिक सरोकार का मुद््दा कभी नहीं रहता। अमेरिकी समाज में वहां की पुलिस पर नस्ली भेदभाव के आरोप लगातार चर्चा में रहे हैं। जहां गोरी श्रेष्ठता के पक्षधर अमेरिकियों के चहेते ट्रम्प ने इन्हें सिरे से नकार दिया, वहीं हिलेरी ने माना कि अमेरिकी समाज में व्याप्त नस्ली पूर्वग्रह पुलिस वालों के व्यवहार में भी प्रतिबिंबित होता है और इसे समुचित प्रशिक्षण से दूर किया जाना चाहिए। भारतीय पुलिस पर भी जब-तब जातीय, सांप्रदायिक और वर्गीय पूर्वग्रहों के आरोप न सिर्फ लगते रहे हैं बल्कि अनेक जांच व शोध-रिपोर्टों में ये आरोप सही भी पाए गए हैं। कम बदनाम नहीं रही है, पुलिस की अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर विरोधियों को प्रताड़ित करने और अपराध को प्रश्रय देने की छवि। राजनीतिक आकाओं के दिमाग में पुलिस की जवाबदेही की कमोबेश ऐसी ही तस्वीर मिलेगी। पुलिस ने भी इस स्थिति से संतुलन बिठा लिया है।
देश में चल रही समान नागरिक संहिता की तीखी बहस में कम लोगों के ध्यान में होगा कि एक सौ अस्सी वर्ष पूर्व मैकाले कमेटी ने 14 अक्टूबर 1837 को तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड आॅकलैंड के सामने भारतीय दंड संहिता का छपा मसविदा पेश किया था, जिससे भारत में कॉमन क्रिमिनल कोड लागू करने का आधार तैयार हुआ। भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन आने तक आपराधिक कानून भी धार्मिक कानूनों की प्रतिच्छाया ही होते थे। कंपनी ने अपने अधिकार क्षेत्र, बंगाल, बॉम्बे और मद्रास प्रेसीडेंसी के लिए क्रमश: अलग-अलग रेगुलेशन जारी किए थे, पर तो भी बॉम्बे प्रेसीडेंसी के लिखित कोड को छोड़ कर शेष स्थानों पर व्यवहार में इनका चलन पहले से चल रहे मुसलिम कानूनों से ही नत्थी रहा। अंग्रेजों को अंतत: भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम- कॉमन क्रिमिनल कोड के तीन स्तंभ, 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के तुरंत बाद के तीन-चार वर्षों में लागू करने पड़े। कॉमन क्रिमिनल कोड, ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की एकीकृत प्रशासनिक मशीनरी के सफलतम औजारों में एक सिद्ध हुआ।
मैकाले ने दंड संहिता का मसविदा प्रस्तुत करते समय आमुख रिपोर्ट में दो महत्त्वपूर्ण चेतावनियां दी थीं। एक- जब तक व्यक्ति के अधिकार और सरकारी-कर्मी की शक्तियां अनिश्चित बनी रहेंगी, यह हमेशा तय नहीं हो पाएगा कि उन अधिकारों का हनन हुआ है या उन शक्तियों का दुरुपयोग। दो- विधायिका को कानून ऐसे बनाने चाहिए जो सटीक हों और आमजन के लिए ग्राह्य हों, यानी लिखित कानून से वही ध्वनित हो जो कानून बनाने वालों की मंशा है और जिन पर यह आयद होना है वे इसे आसानी से समझ सकें। मैकाले का तर्क था कि सटीक न होने से कानून बनाने का काम अदालतें हथिया लेती हैं और आसान न होने से लोगों की मुश्किलें बढ़ती हैं। हालांकि मैकाले का प्रस्तावित ड्राफ्ट भी इन मानदंडों पर खरा नहीं उतर सकता था- उसे तो औपनिवेशिक प्रशासन की आवश्यकताओं पर खरा उतरना था। लेकिन आज तक भी स्थिति वही क्यों बनी हुई है? मोदी सरकार ने अनावश्यक कानूनों को खारिज करने और विशेषकर टैक्स कानूनों के सरलीकरण को मुद््दा जरूर बनाया है, (हालांकि इस दिशा में भी रफ्तार बेहद सुस्त है) जबकि आपराधिक कानूनों के इस्तेमाल में पुलिस और अदालती मनमानी से आम जनता का रोजाना वास्ता पड़ता है। लिहाजा, आपराधिक न्याय के क्षेत्र में भी ऐसी पहल की तुरंत आवश्यकता है।
अंग्रेजों के जमाने से ही कानून और न्याय के बीच की खाई व्यापक रही है। आम आदमी के लिए कानून वह नहीं होता जो किताबों में लिखा है या अदालती निर्णयों में बंद है। उनके लिए कानून वह है जो सड़कों पर और थानों में पुलिस द्वारा लागू किया जाता है। दुर्भाग्य से आज भी पुलिस की कार्यप्रणाली कानूनी मानदंडों और नागरिकों के प्रति उदासीन रह कर चलाई जा रही है। पुलिस की ट्रेनिंग आज भी उसे अंगरेजी शासन की तर्ज पर रेजिमेंटेशन के लिए तैयार करती है और पेशेवर जीवन उसे सत्ता-केंद्रों का पिछलग्गू बनने के लिए उकसाता है। लिहाजा, स्वतंत्र भारत में भी एक पुलिसकर्मी सामान्यत: संविधान और लोकतंत्र के प्रति सचेत न बन कर, सत्ता-अनुकूल आंकड़ों और शक्ति-केंद्रों के अनुकूल अनुशासन के प्रति उत्तरदायी होकर रह जाता है।
कानून को ‘सटीक’ बनाने में निहित है कि कानूनी प्रावधानों का कानून के घोषित लक्ष्य से मिलाप हो। यदि ऐसा होता तो दहेज, घरेलू हिंसा, भ्रूण हत्या जैसे कानूनों की व्यापक असफलता या राजद्रोह और धार्मिक वैमनस्य के कानूनों का मनमाना दुरुपयोग देखने को न मिलता। पोक्सो एक्ट (यानी प्रिवेंशन आॅफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ओफेंसेस एक्ट) में प्रिवेंशन यानी रोकथाम का एक भी प्रावधान नहीं है। यह कानून हरकत में ही तब आता है जब अपराध घट जाए, तो रोकथाम का उद््देश्य कैसे पूरा करेगा? आतंकवाद और सांप्रदायिक हिंसा जैसे जीवन-मरण के मसलों पर भी हमारा तंत्र एक सर्व-स्वीकृत कोड नहीं बना सका है। मैकाले ने एक आदर्श यह भी बघारा था कि जब तक कानूनी प्रक्रियाएं अबूझ और भटकाव वाली रहेंगी, कोई दंड संहिता स्पष्ट और सुनिश्चित हो ही नहीं सकती। यह मानदंड आज भी उसी तरह प्रश्नचिह्न बना हुआ है जैसे अंगरेजी राज में था। इसीलिए सामान्य मारपीट के मुकदमे कत्ल में तथा पीछा करने (स्टाकिंग) के मामले एसिड हमले में परिवर्तित हो जाते हैं और कानून-पुलिस-अदालत सब देखते रह जाते हैं।
दरअसल, लंबे समय से यह स्वीकार करने वालों की कमी नहीं कि पुलिस की जवाबदेही को राजनीतिक आकाओं, उच्च अधिकारियों और अदालतों के दायरे में सीमित करने से पुलिस सुधार नहीं लाया जा सकता। मीडिया और मानवाधिकार संगठनों के इस सुधार चक्र का हिस्सा बनने से भी नहीं। नागरिक और संविधान की उपेक्षा के वातावरण में सत्ताधारियों द्वारा अपनी राजनीति चमकाने में पुलिस का दुरुपयोग कोई छिपी बात नहीं रह गई है। दिल्ली पुलिस द्वारा ‘आप’ के चौदह विधायकों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे दर्ज हुए हैं और सभी मामलों में उनकी गिरफ्तारियां भी की गई हैं। इनमें से नौ में अदालतों ने दिल्ली पुलिस की मनमानी कार्रवाई पर विपरीत टिप्पणियां की हैं।
रेशनलिस्ट संपादकदिलीप मंडल के विरुद्ध लखनऊ में और हरियाणा के एकमात्र केंद्रीय विश्वविद्यालय के अध्यापकों के विरुद्ध रेवाड़ी में हिंदुओं की धार्मिक भावनाएं भड़काने के मुकदमे हाल में दर्ज हुए हैं, जिनका कोई सिर-पैर नहीं बनता। दोनों मामलों में कोई आम धार्मिक हिंदू शिकायतकर्ता के रूप में सामने नहीं आया, मुकदमा दर्ज करने का दबाव एक संगठित समूह ने बनाया। जेएनयू ‘देशद्रोह’ प्रकरण में दिल्ली पुलिस ने कश्मीरी अलगाववादियों के पक्ष में नारे लगाने के आरोप में नामजद छात्रों को बिना जांच पूरी हुए गिरफ्तार करने में पूरी ताकत झोंक दी, लेकिन टेप को छेड़छाड़ कर प्रसारित करने और आम भावनाएं भड़काने वाले मीडियाकर्मियों को छुआ तक नहीं। अनुभव कहता है कि शासक कोई हो, इस तरह के मामले चलते ही रहते हैं। पुलिस की दैनिक कार्यशैली में यह व्यापक राजनीति-जनित दुरुपयोग इस कदर रच-बस गया है मानो वही पुलिस का मुख्य तौर-तरीका हो।
पुलिस का अपनी जवाबदेही को लेकर रवैया एक रूटीन उदाहरण से समझा जा सकता है। हाल में राजधानी से लगे फरीदाबाद के मुजेसर में एक फैक्ट्री के गेट से निकलते ट्रक ने सड़क किनारे के ढाबे में बैठे लोगों को टक्कर मार दी, जिससे दो लोगों की मौत हो गई। सामान्यत: ऐसे मामले में पुलिस को तय करना होता है कि यह घटना विशुद्ध दुर्घटना थी, या इसके पीछे ट्रक ड्राइवर की घोर लापरवाही थी। ड्राइवर के शराब के नशे में होने या बहुत तेज गाड़ी चलाने की दशा में मामला सदोष मानव वध का भी हो सकता था। लेकिन पुलिस द्वारा मामला अंतत: दर्ज किया गया साजिशन हत्या का, जिसमें ट्रक ड्राइवर के साथ हत्या की साजिश में फैक्ट्री मालिक को भी शामिल दिखाया गया।
‘साजिश’ और ‘हत्या’ पुलिस की छानबीन से निकले हुए तथ्य नहीं थे। हुआ यह कि मौतों से क्रोधित लोगों ने सड़क रोक दी और विपक्षी राजनीतिक दलों ने बहती गंगा में हाथ धोने के अंदाज में शोर मचाया। इससे पुलिस को उनके मुताबिक मामला बनाना ही श्रेयस्कर नजर आया। ट्रक ड्राइवर किसी को क्या दे सकता था, पर फैक्ट्री मालिक को शामिल करने में सभी को फायदा लगा होगा! पुलिस थानों में आए दिन ऐसे मुकदमे दर्ज होते हैं जिनका कानूनी सिर-पैर समझ से परे है। ऐसी गिरफ्तारियां होती हैं जो सरासर गैर-कानूनी हैं।
पुलिस सुधार पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आए दस वर्ष हो चुके हैं। कई राज्यों ने इसके अनुपालन में नए पुलिस अधिनियम भी बना लिए हैं। इसके बावजूद हम रोजाना पाते हैं कि कानून से बंधी पुलिस कितनी सहजता से एक गिरोह की तरह काम करने लगती है! उसकी ट्रेनिंग, अनुशासन और संवैधानिक शपथ उसका गलत बढ़ा हाथ पकड़ क्यों नहीं पाते? अनुसंधान, गिरफ्तारी, बल-प्रयोग और मानव अधिकार जैसे पक्षों पर सर्वोच्च न्यायालय के तमाम दिशा-निर्देश उसके मार्गदर्शक क्यों नहीं बन पाते हैं? सत्ताधारी कभी लोकतांत्रिक पुलिस की बात क्यों नहीं उठाते? अमेरिका की तरह पुलिसकर्मियों की संवैधानिक निर्मिति का मुद््दा हमारे चुनावों में कब उठेगा? सबसे बड़ी बात, जनता स्वयं कब आगे बढ़ कर लोकतांत्रिक पुलिस की मांग करेगी!
पुलिस की जवाबदेही
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