Friday, November 18, 2016

राजनीतिः जोखिम में बच्चों की जिंदगी | अरविंद कुमार सिंह

बच्चे राष्ट्र की थाती हैं। भविष्य हैं। पर दुर्भाग्य है कि आज उनका जीवन संकट में है। वे विभिन्न प्रकार के गंभीर रोगों का सामना कर रहे हैं और उचित इलाज के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। चंद रोज पहले यूनिसेफ की सालाना रिपोर्ट ‘स्टेट आॅफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रेन’ से खुलासा हुआ है कि अगर समय रहते दुनिया के देश बच्चों के स्वास्थ्य और स्वच्छता को लेकर जागरूक नहीं हुए तो आने वाले वर्षों में उनकी मृत्यु दर में भारी इजाफा होगा। भारत दुनिया के उन देशों में शुमार हो जाएगा जो बच्चों की मौत के मामले में शीर्ष पर हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2015 में भारत में कुल बारह लाख बच्चों की मौत हुई और अगर भारत संजीदगी नहीं दिखाता है तो वर्ष 2030 तक दुनिया भर में अपने पांचवें जन्मदिन से पहले दम तोड़ने वाले सबसे अधिक बच्चों की तादाद भारत में होगी।
गौरतलब है कि पिछले साल दुनिया भर में पांच साल से कम उम्र के तकरीबन 59 लाख बच्चों की मौत स्वच्छता और सेहत के प्रति उदासीनता के कारण हुई जिनमें सर्वाधिक संख्या भारतीय बच्चों की रही। रिपोर्ट में अनुमान व्यक्त किया गया है कि आगामी पंद्रह वर्षों में तकरीबन 16 करोड़ 70 लाख लोग गरीबी के चक्रव्यूह में होंगे, जिनमें छह करोड़ नब्बे लाख ऐसे बच्चे होंगे जिनकी सेहत पर ध्यान नहीं दिया गया तो वे काल के गाल में समा जाएंगे। रिपोर्ट में आशंका व्यक्त की गई है कि मरने वाले बच्चों में ज्यादातर गरीब परिवारों के होंगे और इन मौतों का प्रमुख कारण गरीबी व कुपोषण होगा। भारत के लिए चिंता की बात यह है कि ढेर सारे आर्थिक व सामाजिक कार्यक्रमों के बाद भी कुपोषण को मिटाया नहीं जा सका है। यह सही है कि इस मामले में देश में पिछले दो दशक में कुछ प्रगति हुई है जिससे पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर में कमी आई है। लेकिन चिंता की बात यह है कि विकसित देशों के मुकाबले भारत में अब भी शिशु मृत्यु दर में अपेक्षित कमी दर्ज नहीं हुई है।
आंकड़ों के मुताबिक फिलहाल भारत में प्रति एक हजार शिशुओं पर शिशु मृत्यु दर 48 है जबकि विकसित देशों में यह दर 5 है। विशेषज्ञों की मानें तो भारत में बच्चों की उच्च मृत्यु दर का मूल कारण समय-पूर्व जन्म व प्रसव संबंधी जटिलताओं के अलावा बच्चों में पनपने वाली बीमारियों के प्रति उपेक्षात्मक रवैया है। यह तथ्य है कि निमोनिया, डायरिया व सेप्सिस जैसी घातक बीमारियों से बच्चों की मौत हो रही है लेकिन इससे निपटने के लिए ठोस रणनीति का अभाव है। ‘स्टेट आॅफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रेन’ रिपोर्ट में कहा गया है कि पूर्वी और दक्षिणी अफ्रीका तथा दक्षिण व पश्चिम एशियाई क्षेत्रों में पांच साल से कम आयु के शिशुओं की मौत का मुख्य कारण निमोनिया तथा पेचिश जैसी बीमारियां हैं और इनमें सर्वाधिक बच्चे गरीब तबके के थे।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार दक्षिण एशिया में, शिशु मृत्यु दर ही नहीं बल्कि नवजातों की मृत्यु दर के मामले में भी, दुनिया के अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा स्थिति गंभीर है, और शिशु मृत्यु दर के मामले एक क्षेत्र-विशेष में केंद्रित होते जा रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक साल 2015 में जहां अस्सी फीसद ऐसे मामले दक्षिण एशिया और उप-सहारा अफ्रीकी क्षेत्र में हुए वहीं इनमें से आधे डेमोक्रेटिक रिपब्लिकन आॅफ कांगो, इथोपिया, भारत, नाइजीरिया और पाकिस्तान में देखने को मिले। रिपोर्ट में ताजा आंकड़ों के हवाले से कहा गया है कि गरीबी के कारण दुनिया में इस समय 15 करोड़ बाल मजदूर हैं और करीब 5 करोड़ 60 लाख बच्चे 2014 में स्कूल छोड़ गए हैं। अशिक्षा और गरीबी के कारण हर साल अठारह वर्ष से कम आयु की डेढ़ करोड़ बच्चियों का जबरन विवाह किया जा रहा है। यही नहीं, शारीरिक रूप से अक्षम लाखों बच्चे अपनी इस स्थिति के कारण हाशिए पर धकेले जा रहे हैं या फिर शिक्षा से वंचित हो रहे हैं।
अशिक्षा व गरीबी के कारण बच्चों तथा उनके परिवारीजनों में जागरूकता की कमी है और वे आसानी से किस्म-किस्म की गंभीर बीमारियों के शिकार बन रहे हैं। सच तो यह है कि बच्चों के जन्म लेने के बाद उनके बचने और एक बेहतर जीवन जीने की संभावनाएं बहुत हद तक उनके परिवार की सामाजिक व आर्थिक स्थिति तथा जन्म के हालात पर निर्भर करती है। तथ्य यह भी है कि आज की तारीख में कुपोषण और बीमारी की वजह से दुनिया में सबसे ज्यादा कमजोर और अविकसित बच्चे भारत में हैं। उनकी संख्या तकरीबन 4.8 करोड़ है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट से उद््घाटित हो चुका है कि अफ्रीका की तुलना में भारत में दोगुने बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। सरकार के आंकड़ों पर गौर करें तो देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में जन्म लेने वाले कुपोषित बच्चों की संख्या पचास फीसद से अधिक है। दरअसल, कुपोषण का मुख्य कारण गरीबी तो है ही, साफ-सफाई की खराब हालत, शौचालयों की गंदगी व स्वच्छ पानी की कमी भी इसके लिए जिम्मेवार है। पिछले दिनों अंतरराष्ट्रीय विकास दानदाता संस्था ‘वॉटर एड’ की रिपोर्ट के मुताबिक पांच साल से कम उम्र के हर पांच में से दो बच्चे अविकसित हैं जिससे उनका शारीरिक, संज्ञात्मक और भावनात्मक विकास प्रभावित हो रहा है। उल्लेखनीय है कि 1.03 करोड़ अविकसित बच्चों के साथ नाइजीरिया और 98 लाख ऐसे बच्चों के साथ पाकिस्तान दूसरे व तीसरे स्थान पर हैं। दुनिया के सबसे नए देशों में से एक दक्षिण पूर्वी एशिया का पूर्वी तिमोर इस सूची में पहले स्थान पर है। यहां की आबादी के अनुपात में अविकसित बच्चों का प्रतिशत सबसे ज्यादा, 58 फीसद है।
यहां ध्यान देना होगा कि जीवन के पहले दो साल में बच्चे के कुपोषित होने के कारण कम विकास और कमजोरी की समस्या उत्पन होती है, और यह पूरे जीवन को प्रभावित करती है। यहां चिंता की बात यह है कि उस उम्र के बाद इसे सुधारा नहीं जा सकता। इस रिपोर्ट में भारत के संदर्भ में कहा गया है कि बड़ी संख्या में लोगों के पास शौचालयों की पर्याप्त सुविधा नहीं है, इसलिए यहां खुले में शौच करने वाले लोगों की संख्या भी ज्यादा है। शोध से यह उद्घाटित हुआ है कि खुले में शौच और कमजोर बच्चों की बढ़ती संख्या में गहरा संबंध है। पर्यावरण में मौजूद मल हाथों और आसपास के इलाकों को प्रदूषित कर देता है और उससे रोग व संक्रमण तेजी से फैलते हैं। शोध में कहा गया है कि कुपोषण के पचास फीसद मामलों की वजह संक्रमण खासकर लंबे समय तक चलने वाला अतिसार है। यह साफ पानी की कमी और साबुन से हाथ न धोने जैसे कारणों से होता है।
एक आंकड़े के मुताबिक भारत में पांच साल से कम उम्र के तकरीबन 1 लाख 40 हजार बच्चे हर साल मूलभूत सुविधाओं की कमी के कारण होने वाले डायरिया संबंधी रोगों के चलते मौत के मुंह में चले जाते हैं। गौर करें तो भारत समेत दुनिया भर में करीब साढ़े छह करोड़ लोगों के पास साफ पेयजल की सुविधा नहीं है। इसी तरह तेईस लाख लोग सफाई की मूलभूत सुविधा से वंचित हैं। नतीजतन, गंभीर रोगों का संकट बढ़ता जा रहा है। विडंबना यह भी कि परिवार बच्चों के खानपान और सेहत को लेकर भी गंभीर नहीं हंै। जंक फूड और बैठे-बैठे गेम्स खेलने की आदत के कारण बच्चों में मोटापा बढ़ता जा रहा है जो कि कई बीमारियों का कारण है।
कुछ दिन पहले जारी किए गए एक शोध से खुलासा हुआ है कि 2025 तक पांच से सत्रह साल के 2.68 करोड़ बच्चों के मोटापे से प्रभावित होने का अनुमान है। बढ़ती जनसंख्या के संदर्भ में हुए शोध के मुताबिक 2010 में जहां मोटे बच्चों की संख्या 2.19 करोड़ थी, वह 2025 में बढ़ कर 2.68 करोड़ हो जाएगी। शोधपत्र के सह लेखक ‘वर्ल्ड ओबेसिटी फेडरेशन’ (लंदन) के टिम लेबेस्टीन की मानें तो यह अनुमान चिकित्सा क्षेत्र के मैनेजरों और पेशेवरों के लिए खतरे की घंटी होना चाहिए और उन्हें मोटापे के कारण बढ़ती बीमारियों की रोकथाम के प्रयास करने होंगे। अच्छी बात यह है कि बाल अधिकार के लिए काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ ने पांच बीमारियों के संयुक्त टीके के लिए चार भारतीय समेत छह कंपनियों से करार किया है, जिससे हर वर्ष सत्तावन लाख बच्चों की जान बचाई जा सकेगी।
यूनिसेफ के मुताबिक इस करार के फलस्वरूप यह टीका मौजूदा दाम से आधे दाम पर मिलेगा। यानी इसे प्रति खुराक एक डॉलर से भी कम की दर पर खरीदा जा सकेगा। विशेषज्ञों की मानें तो वर्ष 2017 से 2020 के दौरान तकरीबन अस्सी देशों में इस टीके की पैंतालीस करोड़ खुराक भेजी जा सकेगी, जिससे हर वर्ष पांच साल से कम उम्र के लाखों बच्चों की जिंदगी बचेगी। गौरतलब है कि यह टीका एक साथ डिफ्थेरियम, टिटनेस, पर्टूटिस, हेपेटाइटिस बी तथा टाइप-बी हीमोफिलस इंफ्लुएंजा (हिब) से बच्चों को बचाएगा। उल्लेखनीय है कि हिब एक जीवाणु है जिसके संक्रमण से मेनिनजाइटिस, निमोनिया तथा ओटिटिस जैसी घातक बीमारियां होती हैं। लेकिन इस टीके के जरिए इन बीमारियों से छुटकारा मिलेगा और बच्चों की मृत्यु दर कम होगी।

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