Friday, November 18, 2016

भारत में नया बाजार तलाशता ब्रिटेन | दीपक रस्तोगी

इसमें न तो कोई आश्चर्य है और न ही भारत के लिए आनंद मनाने जैसी बात कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री जब यूरोप के बाहर पहली बार किसी देश की यात्रा पर निकलीं तो उन्होंने भारत को चुना। ब्रेक्जिट के बाद से ही इस यात्रा का अनुमान लगाया जाने लगा था। भारत का तेजी से बढ़ता हुआ बाजार उन सभी यूरोपीय देशों को लुभा रहा है, जो आज की तारीख में आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं। यूरोपीय संघ से निकलने की तैयारी में जुटे ब्रिटेन का पहला चयन जाहिर तौर पर भारत को होना था।  अभी ब्रिटेन के सामने चुनौती अपनी अर्थव्यवस्था का ढांचा तैयार करने की है। ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन की स्थिति आर्थिक महाशक्ति वाली नहीं रह गई है। ब्रिटिश कंपनियां पूंजी की तलाश में जुट गई हैं। वहां के लोगों को रोजगार दिलाने के लिए सरकार को नए रास्ते तलाशने पड़ रहे हैं। ऐसे में ब्रिटेन को अभी तय करना होगा कि उसकी अर्थव्यवस्था पुराने अंदाज वाली रहेगी, औद्योगिक उत्पादन वाली अर्थव्यवस्था या फिर चीन की तरह वह उत्पादन और विपणन केंद्रित अर्थव्यवस्था बनना चाहेगा।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे के पहले भारत दौरे को लेकर राजनयिक शब्दावलियों का जामा पहनाया गया है। उनके आने के पहले कहा गया था कि भारत के साथ ब्रिटेन के ‘विशेष और पुराने संबंध’ रहे हैं। उन संबंधों को पुनर्जीवित करने की जरूरत है। अपनी यात्रा के पहले थेरेसा मे ने लंदन के अखबार ‘संडे टेलीग्राफ’ में लेख लिख कर बताया कि ‘बेहद जरूरी और सबसे करीबी’ देश भारत का उनका दौरा कितना जरूरी है और इस लेख के जरिए उन्होंने अपने देश के लोगों को बताने की कोशिश की कि वे भारत से बहुत कुछ ले आएंगी। तेजी से महत्त्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभर रहे भारत को ब्रिटेन ने पुराने संबंधों और मूल्यों की याद दिलाने में कोई कसर नहीं उठा रखी।
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अतीत के अनुभवों को देखते हुए ब्रिटेन की इस तरह की उम्मीदें गैर-वाजिब नहीं कही जाएंगी। ब्रिटिश उपनिवेश रहे देशों का संगठन कॉमनवेल्थ और इसके सदस्य देश हमेशा से ब्रिटेन के प्रति नरम रवैया रखते रहे हैं। इन देशों में अहम जगह बना चुके भारत ने ब्रिटिश कंपनियों के लिए अपने बाजार के दरवाजे खोले ही हैं। थेरेसा मे की यात्रा में तिरासी हजार करोड़ रुपए के कारोबार को लेकर जो समझौते हुए हैं, उनसे स्पष्ट है कि उनका भारत दौरा ब्रिटिश अर्थव्यवस्था में कुछ जान जरूर फूंकेगा। यूरोपीय बाजारों से ब्रिटेन को तगड़ा नुकसान हो रहा था। यूरोपीय समुदाय के साथ अपनी करेंसी के मूल्यांयन को लेकर ब्रिटेन असहज स्थिति में आ गया था। ऐसे में वहां के लोगों और कारोबारी जगत से ब्रिटिश सरकार पर नए बाजार की तलाश का बेहद दबाव था भी।
थेरेसा मे के नेतृत्व में वहां से तैंतीस उद्योगपतियों का प्रतिनिधिमंडल भारत आया था, जिसने निर्माण, प्रौद्योगिकी, सूचना-प्रौद्योगिकी, रक्षा, खाद्य प्रसंस्करण, एफएमसीजी, फैशन, इस्पात, ऊर्जा आदि क्षेत्रों में संभावनाओं की तलाश की। यहां आने के पहले थेरेसा मे अपने देश में वादा करके आई थीं कि ‘मेरी यात्रा हमारे घर के लोगों के लिए सुरक्षित रोजगार के सृजन की तलाश’ में हो रही है। ब्रिटेन में भारतीयों के लिए वीजा के ताजा प्रावधानों को घरेलू मोर्चे पर दबाव का ही नतीजा माना जा रहा है। भारत में दोनों प्रधानमंत्रियों की बातचीत में यह मुद्दा उठना ही था। थेरेसा मे ने विकल्प के तौर पर व्यापार केंद्रित दो वीजा कार्यक्रमों- ‘रजिस्टर्ड ट्रेवलर स्कीम’ और ‘ग्रेट क्लब’ की घोषणा की। लेकिन भारत इन्हें अपर्याप्त मान रहा है और मोदी ने उनका ध्यान अपने छात्रों और कामकाजी पेशेवरों पर ब्रिटेन के सख्त वीजा प्रावधानों के पड़ने वाले प्रभावों की ओर आकृष्ट किया। आधिकारिक ब्रिटिश आंकड़ों के अनुसार भारतीय नागरिकों को जारी किए गए स्टडी वीजा की संख्या घट कर 11,864 रह गई, जो 2010 में 68,238 थी।
उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में वीजा व्यवस्था सरल हो जाएगी। भारतीय सूचना प्रोद्यौगिकी कंपनियों की ओर से इसके लिए दोनों देशों के राजनीतिक नेतृत्व पर दबाव है। अब ब्रिटिश सरकार को रास्ता निकालना है। तभी व्यापार को बढ़ावा देने की आपसी प्रतिश्रुति पर हकीकत में अमल हो पाएगा। दोनों नेताओं ने व्यापार को बढ़ावा देने और वीजा व्यवस्था को सरल बनाने के अलावा सुरक्षा और रक्षा सहयोग सहित विभिन्न द्विपक्षीय मुद्दों पर विचार विमर्श किया। दोनों नेताओं ने साझा हितों वाले क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी चर्चा की। उन्होंने दक्षिण एशिया को स्थिर, खुशहाल और आतंकवाद से मुक्त होने की आवश्यकता पर भी बल दिया तथा सभी देशों से इस लक्ष्य की दिशा में काम करने का आह्वान किया।  ब्रिटिश नेतृत्व को उम्मीद है कि भारत के बाजार में दखल से वहां की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था ताकत पाएगी। ब्रिटेन के सेक्रेटरी आॅफ स्टेट (अंतरराष्ट्रीय व्यापार) लियाम फॉक्स इस यात्रा को लेकर खासे सक्रिय रहे। खासकर दिल्ली में भारत के वाणिज्यिक संगठनों के साथ अपने प्रतिनिधिमंडल की बैठकें कराने में और फिर बंगलुरु जाकर सूचना प्रौद्योगिकी में नामी भारतीय कंपनियों के सीईओ और आला अधिकारियों के साथ बैठकें करने में।
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ थेरेसा मे की शिखर वार्ता के बाद संयुक्त घोषणा पत्र जारी किया गया। राजनयिक परिभाषा में इस कवायद का मतलब यही होता है कि जिन विषयों का जिक्र सामने आ रहा है, उन पर दोनों देश एक राय हैं। भारत में इन दिनों रक्षा खरीद सौदों पर सरकार का जोर है। सेना, वायुसेना और नौसेना की जरूरतें अरसे से लंबित हैं। ऐसे में नए सैन्य साजो-सामान के लिए उन्नत तकनीक और प्रभावी आयुधों की तलाश में भारत है। भारत ने रक्षा जैसे अहम क्षेत्र के लिए भी ब्रिटिश कंपनियों के दरवाजे खोलने का भरोसा दिया है। रक्षा उपकरणों के लिए निर्माण, तकनीकी हस्तांतरण और सह विकास के लिए भारतीय एजेंसियों के साथ सरकार की नीति के अनुसार ही सहभागिता की शर्त भी रखी गई है। लेकिन ऐसे वक्त में जब अगस्ता वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर सौदा और युद्धक विमान खरीद में रॉल्स रॉयस द्वारा घूस देने का विवाद जांच एजेंसियों के गले की हड्डी बना हुआ है, रक्षा सौदों में भागीदारी का वचन कितना धरातल पर आ सकेगा- इस पर सवाल बना हुआ है। अगस्ता वेस्टलैंड विवाद में कमीशनखोरी का आरोपी क्रिस्टीन मिशेल और रॉल्स रॉयस मामले में सुधीर चौधरी- दोनों ही भारत में वांछित हैं और लंदन में रह रहे हैं। भारत ने दोनों के प्रर्त्यपण की मांग की है। जाहिर है, प्रत्यर्पण वाली शर्त ब्रिटेन पर भारी पड़ने वाली है। क्योंकि दोनों ही वहां अच्छा राजनीतिक रसूख रखते हैं।
दोनों देशों के संयुक्त बयान में आतंकवाद, उग्रवाद, समुद्री सुरक्षा और समुद्री कानून व्यवस्था को लेकर अहम बातें कही गई हैं, जो भारत के लिए आगामी दिनों में मुफीद हो सकती हैं। दोनों प्रधानमंत्रियों ने स्वीकार किया है कि आतंकवाद और हिंसक उग्रवाद अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए सबसे गंभीर खतरों में से एक हैं। इस संबंध में समन्वित वैश्विक कार्रवाई होनी चाहिए। दोनों देशों ने समुद्र संबंधी कानून से जुड़ी 1982 की संयुक्त राष्ट्र संधि (यूएनसीएलओएस) के आधार पर समुद्रों और सागरों में कानूनी व्यवस्था कायम रखने के महत्त्व को रेखांकित किया। दक्षिणी चीन सागर के संदर्भ में यह कवायद अहम है। चीन ने संयुक्त राष्ट्र के उस आदेश को मानने से इंकार करते हुए उसकी आलोचना की है।
अंतरराष्ट्रीय राजनय को लेकर संयुक्त घोषणापत्र में जो बातें कही गई हैं, उनका मूल आर्थिक आधार ही है। आपसी कारोबार बढ़ाने पर भारत और ब्रिटेन में जोर दिया जा रहा है। वित्तीय पटरी पर रफ्तार तेज करने के लिए दोनों देशों के बीच मुक्त व्यापार की बात की जा रही है। मगर यह तभी होगा, जब ब्रिटेन की यूरोपीय संघ से बाहर आने की औपचारिकता पूरी हो जाए। ब्रिटेन को जी-20 देशों में भारत में निवेश करने वाला सबसे बड़ा देश माना जाता रहा है। लेकिन अब भारतीय कंपनियां ब्रिटेन में हाई-प्रोफाइल खरीद कर रही हैं। वहां टाटा स्टील और टाटा मोटर्स, इंफोसिस, टेक महिंद्रा, समेत कई कंपनियों का निवेश बढ़ा है। लेकिन भारत और ब्रिटेन का आपसी कारोबार दो फीसद से ज्यादा कभी नहीं रहा। इसमें भी भारत को ब्रिटिश निर्यात ज्यादा है। ब्रिटेन इस भागीदारी को बढ़ाना चाहता है। लेकिन बाजार में उसे कोरियाई, अमेरिकी, जर्मन और चीनी उत्पादों से कड़ी होड़ करनी होगी।
सबसे जरूरी बात यह कि अगर यूरोप के बाहर ब्रिटेन खुद को अटलांटिक सिंगापुर के तौर पर स्थापित करना चाहता है, तो उसे पहले सिंगापुर बनना होगा। हर तरह के विचारों के लिए खुला, मुक्त कारोबार क्षेत्र और आव्रजकों के लिए भी मुक्त। उसे भारतीय आव्रजकों और भारतीय सेवा प्रदाताओं के लिए अपने दरवाजे खोलने होंगे। उसे याद करना होगा कि वीजा नियमों और वहां की अर्थव्यवस्था के चलते ब्रिटेन में भारतीय विद्यार्थियों की संख्या में बीस फीसद की गिरावट आई है। अभी ब्रिटेन दोराहे पर खड़ा है। उसे तय करना होगा कि वह यूरोप की छाया से खुद को मुक्त करेगा या खुद को कॉमनवेल्थ का सिरमौर मानता रहेगा।

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