Sunday, November 20, 2016

हवा में जहर के घूंट | Rita Singh

यह बेहद चिंताजनक है कि वायु प्रदूषण से भारत में हर साल छह लाख और दुनिया भर में साठ लाख लोगों की जान जा रही है। यह खुलासा विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी हालिया रिपोर्ट में किया है। रिपोर्ट बताती है कि दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्र में वायु प्रदूषण की वजह से हर साल आठ लाख जानें जा रही हैं जिनमें पचहत्तर फीसद से ज्यादा मौतें भारत में हो रही हैं। रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्र से हवा के जो नमूने मिले हैं उस आधार पर कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र आपातकालीन स्थिति में है। हर दस में से नौ लोग ऐसी हवा में सांस ले रहे हैं जो उनकी सेहत को नुकसान पहुंचा रही है। 2012 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में 2 लाख 49 हजार 388 लोगों की मौत हृदय रोग, 1 लाख 95 हजार एक मौतें दिल के दौरे, 1 लाख 10 हजार पांच सौ मौतें फेफड़ों की बीमारी और 26 हजार 334 मौतें फेफड़ों के कैंसर से हुर्इं।
गौरतलब है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आठ अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के साथ मिल कर दुनिया भर के तीन हजार शहरों व कस्बों की हवा का विश्लेषण किया है। इसमें बाहरी और अंदरूनी वायु प्रदूषण के तहत पीएम 2.5 और पीएम 10 प्रदूषकों के स्तर को मापा गया। कई शहरों में प्रदूषक तत्त्व विश्व स्वास्थ संगठन के तय मापदंड 10 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर से अधिक पाए गए। रिपोर्ट में कहा गया है कि 92 फीसद वैश्विक जनसंख्या सर्वाधिक वायु प्रदूषित इलाकों में रह रही है। रिपोर्ट के मुताबिक 10.21 लाख यानी सर्वाधिक मौतें चीन में हुई हैं। भारत की बात करें तो देश की राजधानी दिल्ली सर्वाधिक प्रदूषित शहर है जिसका पीएम-10 का स्तर अधिक है। यहां इसका स्तर तकरीबन 2.35 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर है।
भारत में वायु प्रदूषण किस तरह जानलेवा साबित हो रहा है यह पिछले साल यूनिवर्सिटी आॅफ शिकागो, हार्वर्ड और येल के अर्थशास्त्रियों की उस रिपोर्ट से उद््घाटित होता है जिसमें कहा गया कि भारत दुनिया के उन देशों में शुमार है जहां सबसे अधिक वायु प्रदूषण है और जिसकी वजह से यहां के लोगों को समय से तीन साल पहले काल का ग्रास बनना पड़ रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक अगर भारत अपने वायु मानकों को पूरा करने के लिए इस आंकड़े को उलट देता है तो इससे 66 करोड़ लोगों के जीवन के 3.2 वर्ष बढ़ जाएंगे। इसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि भारत की आधी आबादी यानी 66 करोड़ लोग उन क्षेत्रों में रहते हैं जहां सूक्ष्म कण पदार्थ (पार्टिकुलेट मैटर)-प्रदूषण भारत के सुरक्षित मानकों से ऊपर हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर भारत वायु प्रदूषण पर शीघ्र नियंत्रण नहीं लगाता है तो 2025 तक अकेले राजधानी दिल्ली में ही वायु प्रदूषण से हर वर्ष 26,600 लोगों की मौत होगी। यूनिवर्सिटी आॅफ कैरोलीना के विद्वान जैसन वेस्ट के अध्ययन के मुताबिक वायु प्रदूषण से सबसे अधिक मौतें दक्षिण और पूर्व एशिया में होती हैं। आंकड़े बताते हैं कि हर साल मानव निर्मित वायु प्रदूषण से 4 लाख 70 हजार और औद्योगिक इकाइयों से उत्पन प्रदूषण से 21 लाख लोग दम तोड़ते हैं। पिछले साल दुनिया की जानी-मानी पत्रिका ‘नेचर’ ने भी खुलासा किया कि अगर शीघ्र ही वायु की गुणवत्ता में सुधार नहीं हुआ तो 2050 तक प्रत्येक वर्ष 66 लाख लोगों की जानें जा सकती हैं।
गौरतलब है कि यह रिपोर्ट जर्मनी के मैक्स प्लेंक इंस्टीट्यूट आॅफ केमेस्ट्री के प्रोफेसर जोहान लेलिवेल्ड और उनके शोध दल ने तैयार की थी, जिसमें प्रदूषण फैलने के दो प्रमुख कारण गिनाए गए। एक पीएम 2.5-एस विषाक्त कण, और दूसरा, वाहनों से निकलने वाली गैस नाइट्रोजन आक्साइड। रिपोर्ट में आशंका जाहिर की गई कि भारत और चीन में वायु प्रदूषण की समस्या विशेष तौर पर गहरा सकती है, क्योंकि इन देशों में खाना पकाने के लिए कच्चे र्इंधन का इस्तेमाल होता है जो कि प्रदूषण का बड़ा स्रोत है। विशेषज्ञों की मानें तो इससे निपटने की तत्काल वैश्विक रणनीति तैयार नहीं की गई तो विश्व की बड़ी जनसंख्या वायु प्रदूषण की चपेट में होगी। अच्छी बात है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वायु-प्रदूषण से होने वाले स्वास्थ्य-जोखिम के बारे में जागरूकता बढ़ाने की अपील की है। लेकिन विडंबना है कि इस पर अमल नहीं हो रहा है।  भारत की बात करें तो चार साल पहले ‘क्लीन एयर एक्शन प्लान’ के जरिए वायु प्रदूषण से निपटने का संकल्प व्यक्त किया गया। लेकिन उस पर कोई काम नहीं हो रहा। नतीजतन, उपग्रहों से लिए गए आंकड़ों के आधार पर तैयार रिपोर्ट के मुताबिक विश्व के 189 शहरों में सर्वाधिक प्रदूषण-स्तर भारतीय शहरों में है। मसलन, भारत का सिलिकॉन वैली कहा जाने वाला बंगलुरु विश्व के शहरों में वायु प्रदूषण स्तर में वृद्धि के मामले में अमेरिका के पोर्टलैंड शहर के बाद दूसरे स्थान पर है। यहां वर्ष 2002 से 2010 के बीच वायु प्रदूषण के स्तर में चौंतीस फीसद की वृद्धि पाई गई। कुछ ऐसे ही बदतर हालात देश के अन्य बड़े शहरों के भी हैं।
देश के शहरों के वायुमंडल में गैसों का अनुपात बिगड़ता जा रहा है और उसे लेकर किसी तरह की सतर्कता नहीं बरती जा रही। आंकड़ों पर गौर करें तो हाल के वर्षों में वायुमंडल में आॅक्सीजन की मात्रा घटी है और दूषित गैसों की मात्रा बढ़ी है। कार्बन डाइ आॅक्साइड की मात्रा में तकरीबन पच्चीस फीसद की वृद्धि हुई है। इसका मुख्य कारण बड़े कल-कारखानों और उद्योग-धंधों में कोयले व खनिज तेल का उपयोग है। गौरतलब है कि इनके जलने से सल्फर डाइ आॅक्साइड निकलती है जो मानव जीवन के लिए बेहद खतरनाक है। शहरों का बढ़ता दायरा, कारखानों से निकलने वाला धुआं, वाहनों की बढ़ती तादाद, तमाम ऐसे कारण हैं जिनसे प्रदूषण बढ़ रहा है। वाहनों के धुएं के साथ सीसा, कार्बन मोनोआॅक्साइड तथा नाइट्रोजन आॅक्साइड के कण निकलते हैं। ये दूषित कण मानव-शरीर में कई तरह की बीमारियां पैदा करते हैं। मसलन, सल्फर डाइ आॅक्साइड से फेफड़े के रोग, कैडमियम जैसे घातक पदार्थों से हृदय रोग, और कार्बन मोनोआॅक्साइड से कैंसर और श्वास संबंधी रोग होते हैं। कारखानों और विद्युत गृह की चिमनियों तथा स्वचालित मोटरगाड़ियों में विभिन्न र्इंधनों के पूर्ण और अपूर्ण दहन भी प्रदूषण को बढ़ावा देते हैं। 1984 में भोपाल स्थित यूनियन कारबाइड कारखाने से विषैली मिक गैस के रिसाव से हजारों लोग मौत के मुंह में समा गए और हजारों लोग अपंगता का दंश झेल रहे हैं। इसी प्रकार 1986 में अविभाजित सोवियत संघ के चेरनोबिल परमाणु रिएक्टर में रिसाव होने से रेडियोएक्टिव प्रदूषण हुआ और लाखों लोग प्रभावित हुए। वायु प्रदूषण से न केवल मानव समाज को बल्कि प्रकृति को भी भारी नुकसान पहुंच रहा है।
प्रदूषित वायुमंडल से, जब भी वर्षा होती है, प्रदूषक तत्त्व वर्षाजल के साथ मिलकर नदियों, तालाबों, जलाशयों और मृदा को प्रदूषित कर देते हैं। अम्लीय वर्षा का जलीय तंत्र समष्टि पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। नार्वे, स्वीडन, कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका की महान झीलें अम्लीय वर्षा से प्रभावित हैं। अम्लीय वर्षा वनों को भी बड़े पैमाने पर नष्ट कर रही है। यूरोप महाद्वीप में अम्लीय वर्षा के कारण साठ लाख हेक्टेयर वन नष्ट हो चुके हैं। ओजोन गैस की परत पृथ्वी के लिए रक्षाकवच का कार्य करती है- वायुमंडल की दूषित गैसों के कारण ओजोन को काफी नुकसान पहुंचा है। ध्रुवों पर इस परत में एक बड़ा छिद्र हो गया है जिससे सूर्य की खतरनाक पराबैंगनी किरणें भूपृष्ठ पर पहुंच कर ताप में वृद्धि कर रही हैं। इससे न केवल कैंसर जैसे असाध्य रोगों में वृद्धि हो रही है बल्कि पेड़ों से कार्बनिक यौगिकों के उत्सर्जन में बढ़ोतरी हुई है। इससे ओजोन व अन्य तत्त्वों के बनने की प्रक्रिया प्रभावित हो रही है।
नए शोध बताते हैं कि वायु प्रदूषित क्षेत्रों में रहने वाली गर्भवती महिलाओं से जन्म लेने वाले शिशुओं का वजन सामान्य शिशुओं की तुलना में कम होता है। यह खुलासा ‘एनवायरमेंटल हेल्थ प्रॉस्पेक्टिव’ द्वारा नौ देशों में तीस लाख से ज्यादा नवजात शिशुओं पर किए गए अध्ययन से हुआ है। शोध के मुताबिक जन्म के समय कम वजन के शिशुओं को आगे चल कर स्वास्थ्य संबंधी विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यानी इनमें मधुमेह और हृदय रोग का खतरा बढ़ जाता है।
वायु प्रदूषण का दुष्प्रभाव ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासतों पर भी पड़ रहा है। पिछले साल देश के उनतालीस शहरों के 138 विरासतीय स्मारकों पर वायु प्रदूषण के घातक दुष्प्रभाव का अध्ययन किया गया। पाया गया कि शिमला, हसन, मंगलौर, मैसूर, कोट्टायम और मदुरै जैसे विरासती शहरों में पार्टिकुलेट मैटर पॉल्यूशन राष्ट्रीय मानक (60 माइक्रोग्राम क्यूबिक मीटर) से भी अधिक है। कुछ स्मारकों के निकट तो यह चार गुना से भी अधिक पाया गया। सर्वाधिक प्रदूषण-स्तर दिल्ली के लालकिला के आसपास पाया गया। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि शहरों के स्मारकों के आसपास रासायनिक और धूल प्रदूषण की जानकारी के बाद भी बचाव पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि वायु प्रदूषण के इन दुष्प्रभावों से निपटने और रोकथाम के लिए कानून नहीं है। लेकिन सच्चाई यह है कि उस कानून का पालन नहीं हो रहा है। उचित होगा कि सरकार वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए प्रभावकारी राष्ट्रीय योजना या नीति बनाए और उस पर कड़ाई से अमल करे।

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