पिछले दिनों 93 साल की उम्र में शिमोन पेरेज की मृत्यु हो गई। वह इस्राइल के उन गिने-चुने कद्दावर नेताओं में से एक थे जिन्हें इस राष्ट्र की स्थापना का श्रेय दिया जाता है। जहां ये लोग एक तरफ आदर्शवाद का पर्याय बने थे वहीं दूसरी ओर अमेरिका की जासूसी करने के साथ-साथ उसकी शक्ति को भुनाने की सनक रखने के अलावा फिलीस्तीनियों को हाशिए पर ढकेलने के लिए ताकत का इस्तेमाल कर रहे थे।
अपनी इस नीति का कड़ाई से पालन करने वाले लोगों में शिमोन पेरेज का व्यक्तित्व अपेक्षाकृत नरम माना जाता था। 90 के दशक में कई अरब देशों की आधिकारिक यात्रा पर आए शिमोन का मैंने इंटरव्यू लिया था। वे मृदुभाषी थे और अंदर की जानकारी अपने तक ही सीमित रखते थे। शिमोन देश के केबिनेट मंत्री होने के अलावा प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी बने।
फिलीस्तीनियों की बड़ी त्रासदी यह रही कि वे कूटनीतिक मंच पर कभी नहीं जीत पाए क्योंकि मध्यस्थ की भूमिका निभाने वाला संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा कारणों और अमेरिका में हावी यहूदी लॉबी के प्रभाव के चलते पूरी तरह से इस्राइल के हक में पक्षपाती रहा है। अनेक इस्राइल-फिलीस्तीन संधियां समय-समय पर हुईं लेकिन उनमें से ज्यादातर इस्राइल से छुटकारा पाने के लिए चलाए गए ‘इंतेफादा’ नामक आंदोलन की तरह दफन होकर रह गयीं क्योंकि इस्राइल का उद्देश्य तो अपने ध्येय की खातिर समय प्राप्त करने का था। ओसलो में फिलीस्तीनी नेता यासर अराफात के साथ जो समझौता इस्राइल ने किया, उसकी वाहवाही के चलते 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री यित्ज़ाक राबिन के साथ-साथ राष्ट्रपति शिमोन पेरेज और यासर अराफात को भी शांति के लिए नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से दिया गया था।
अपनी इस नीति का कड़ाई से पालन करने वाले लोगों में शिमोन पेरेज का व्यक्तित्व अपेक्षाकृत नरम माना जाता था। 90 के दशक में कई अरब देशों की आधिकारिक यात्रा पर आए शिमोन का मैंने इंटरव्यू लिया था। वे मृदुभाषी थे और अंदर की जानकारी अपने तक ही सीमित रखते थे। शिमोन देश के केबिनेट मंत्री होने के अलावा प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी बने।
फिलीस्तीनियों की बड़ी त्रासदी यह रही कि वे कूटनीतिक मंच पर कभी नहीं जीत पाए क्योंकि मध्यस्थ की भूमिका निभाने वाला संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा कारणों और अमेरिका में हावी यहूदी लॉबी के प्रभाव के चलते पूरी तरह से इस्राइल के हक में पक्षपाती रहा है। अनेक इस्राइल-फिलीस्तीन संधियां समय-समय पर हुईं लेकिन उनमें से ज्यादातर इस्राइल से छुटकारा पाने के लिए चलाए गए ‘इंतेफादा’ नामक आंदोलन की तरह दफन होकर रह गयीं क्योंकि इस्राइल का उद्देश्य तो अपने ध्येय की खातिर समय प्राप्त करने का था। ओसलो में फिलीस्तीनी नेता यासर अराफात के साथ जो समझौता इस्राइल ने किया, उसकी वाहवाही के चलते 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री यित्ज़ाक राबिन के साथ-साथ राष्ट्रपति शिमोन पेरेज और यासर अराफात को भी शांति के लिए नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से दिया गया था।
एक दृश्य याद आ रहा है जब वाशिंगटन के व्हाइट हाउस के लॉन में अरब समस्या का हल निकालने के लिए इकट्ठा हुए अनेक नेताओं के लिए यह अवसर महज फोटो खिंचवाने का था। इसके बाद मिस्र ने यह कहकर हाथ खड़े कर दिए थे कि वह और ज्यादा अरब देशों का नेतृत्व नहीं कर सकता। यह संकेत था कि वह इसकी एवज में इस्राइल के कब्जे में आया अपना इलाका वापिस चाहता है। लेकिन इस समझौते का सबसे चौंकाने वाला पहलू यित्ज़ाक राबिन का स्टैंड था क्योंकि अग्रणी पंक्ति के नेताओं में वही एकमात्र ऐसे इस्राइली नेता थे जो फिलीस्तिनियों को उनका बनता कुछ हिस्सा देने को तैयार थे। चूंकि अधिसंख्य यहूदियों के लिए यह विचार नितांत नागवार था और वे उनके लिए एक खतरा बन गए थे, इसलिए उनमें से एक ने आगे चलकर राबिन का कत्ल कर दिया था।
इसके बाद की कहानी बदस्तूर इस जानी-पहचानी लीक पर ही चलती रही थी : फिलीस्तीनियों के कब्जाए हुए इलाके पर और ज्यादा गैरकानूनी यहूदी बस्तियां बनाना परंतु ‘द्वि-राष्ट्र उपाय’ की तोता-रटंत लगाने वाला इस्राइली नेतृत्व दरअसल कुछ भी न देने पर दृढ़ था। हाल के वर्षों में अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी ने इस्राइली और फिलीस्तीनियों को पास लाने का काफी प्रयास किया लेकिन वे भी बेबस हो गए थे। तब जाकर उन्हें खुद को और ओबामा प्रशासन को एहसास हुआ था कि अमेरिकी सत्ता तंत्र पर किस कदर यहूदी लॉबी हावी है।
पहली बार मैं यासर अराफात से ट्यूनिस शहर में मिला था जब जॉडर्न से निष्कासित किए जाने के बाद फिलीस्तीन स्वतंत्रता संगठन ने वहां अपना मुख्यालय स्थानांतरित किया था। वे एक प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले नेता थे जो अपने ध्येय के लिए बहुत सक्रिय थे। वे विश्व को बताना चाहते थे कि उनका आंदोलन जायज है और अंतत: सफल होगा। वे ज्यादातर अपनी भाषणशैली पर निर्भर थे। कालांतर साफ होता गया था कि उनकी वाक्पटुता की धार विरोधी की शक्ति के सामने कहीं नहीं टिकती। शिमोन पेरेज के कार्यकाल में फिलीस्तीनियों का ज्यादा-से-ज्यादा इलाका वहां यहूदी बस्तियां बसाने की खातिर हड़पा जाने लगा, यहां तक कि पहले-पहल इसके विरोध में चले लोगों के प्रदर्शन बाद में ठंडे पड़ने लगे। ‘द्वि-राष्ट्र उपाय’ महज एक कौतूहल का विषय बन कर गया।
इस्राइली नेतृत्व में केवल राबिन ही थे जिन्हें यह एहसास हो गया था कि फिलीस्तीनियों को उनका हक और जमीन देना ही देश में लंबे समय तक शांति बनाए रखने का उपाय है। इस्राइल की अपनी यात्रा के दौरान जिन लोगों से मैं मिला तो यह पाया कि वे इस सिद्धांत से सहमत थे लेकिन उनकी आवाज कमजोर थी और उनकी गिनती उन अधिसंख्यकों के मुकाबले बहुत कम थी जो यह चाहते हैं कि सब कुछ इस्राइल को मिले और फिलीस्तीनी जाएं भाड़ में। लगता है राष्ट्रपति ओबामा ने भी अरब समस्या का हल निकालने में हार मान ली है। सुश्री हिलेरी क्लिंटन जिनके बारे में कयास है कि वे आगामी राष्ट्रपति चुनाव जीत लेंगी, प्रतीत होता है कि वे भी शांति स्थापना की बजाय यहूदियों के प्रति ज्यादा सहानुभूति रखती हैं। इसलिए फिलीस्तीनियों के पास और कोई चारा नहीं है सिवाय इसके कि वे अपना अंतहीन संघर्ष जारी रखें।
बेशक एक समय में मिस्र और अरब देशों की राजनीति में ‘नासिर युग’ हुआ करता था। उन्होंने ब्रिटेन और फ्रांस की धाक को धता बताते हुए स्वेज नहर का अधिकार जीत लिया था लेकिन उसके बाद अरब राजनीति के प्रभुत्व में ज्यादातर ह्रास ही हुआ है। इस्राइल को युद्ध के जरिए नाथने के तमाम प्रयासों का अंत उलटे अरब देशों की बेइज्जती भरी हार और इलाके की हानि में ही हुआ है। स्थितियां जस-की-तस इसलिए भी बन जाती हैं क्योंकि इस्राइल का मुख्य संरक्षक अमेरिका चाहता है कि यहां शांति की शर्तें इस्राइली हितों के अनुसार हों।
इन परिस्थितियों के बनने में पेरेज की भूमिका काफी ज्यादा रही है। उन्होंने गैर-वैधानिक यहूदी बस्तियां बनाने के काम की देखरेख की थी। वे उन सभी मुख्य निर्णय प्रक्रियाओं का हिस्सा थे जो फिलीस्तीनियों की जमीन और हकों को छीनने की खातिर चलाई गई थीं। फिर भी पेरेज इस्राइली औपनिवेशवाद का एक नरम चेहरा बने रहे। अब इस्राइल इससे आगे कहां जा सकता है? आज की तारीख में यह उच्च तकनीक से अभिनव उत्पाद बनाने वाले उद्योगों का एक आधुनिक देश है जो परिष्कृत हथियारों का मुख्य निर्यातक भी है। लेकिन अपनी जमीन लगातार हड़पे जाने और दोयम दर्जे का व्यवहार किए जाने को देखकर खून का घूंट पीकर रह जाने वाले फिलीस्तीनियों का आक्रोश बढ़ता जा रहा है।
यह भी सच है कि आज जो गड्डमड्ड परिस्थितियां हम मध्य-पूर्व एशिया में देख रहे हैं वह बाहरी ताकतों द्वारा ईजाद की गयी हैं। जिनमें सबसे उल्लेखनीय है 1916 में ब्रिटेन और फ्रांस के बीच हुआ साईकस-पीकोट समझौता, जिसके जरिए ओट्टोमन साम्राज्य की परिसंपत्तियों का बंटवारा इन दोनों मुल्कों ने अपनी सहूलियत के हिसाब से आपस में कर लिया था। हम आज औपनिवेशवादी काल पर सिर्फ अफसोस जता सकते हैं लेकिन मुख्य बिंदु यह है कि नासिर के बाद एक भी ऐसा करिश्माई अरब नेता उभर नहीं पाया जो आगे बढ़कर इनका नेतृत्व संभाल सके।
आज की तारीख में अरब जगत में कई किस्म और आकार के तानाशाह राज कर रहे हैं। अफगानिस्तान और इराक में मुंह की खाने के बाद ओबामा प्रशासन अब हवाई बमबारी करने के अलावा मध्य-पूर्व में सीधी सैन्य दखलअंदाजी करने से बच रहा है। सीरिया में पिछले पांच सालों से जो गृहयुद्ध चल रहा है, वह इसलिए है कि ईरान और रूस अपने हितों की खातिर अल्पसंख्यक समुदाय अलवाती से संबंध रखने वाले बशर-अल-असद की सरकार का सहयोग और मदद कर रहे हैं।
परिस्थितियों से निपटने में संयुक्त राष्ट्र फिर से नाकामयाब सिद्ध हुआ है। जितनी चौड़ी दरार पूर्व और पश्चिम के बीच होगी, उतनी ही क्षीण संभावना सुरक्षा परिषद से जारी होने वाली प्रभावशाली हिदायतों की होगी।
इसके बाद की कहानी बदस्तूर इस जानी-पहचानी लीक पर ही चलती रही थी : फिलीस्तीनियों के कब्जाए हुए इलाके पर और ज्यादा गैरकानूनी यहूदी बस्तियां बनाना परंतु ‘द्वि-राष्ट्र उपाय’ की तोता-रटंत लगाने वाला इस्राइली नेतृत्व दरअसल कुछ भी न देने पर दृढ़ था। हाल के वर्षों में अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी ने इस्राइली और फिलीस्तीनियों को पास लाने का काफी प्रयास किया लेकिन वे भी बेबस हो गए थे। तब जाकर उन्हें खुद को और ओबामा प्रशासन को एहसास हुआ था कि अमेरिकी सत्ता तंत्र पर किस कदर यहूदी लॉबी हावी है।
पहली बार मैं यासर अराफात से ट्यूनिस शहर में मिला था जब जॉडर्न से निष्कासित किए जाने के बाद फिलीस्तीन स्वतंत्रता संगठन ने वहां अपना मुख्यालय स्थानांतरित किया था। वे एक प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले नेता थे जो अपने ध्येय के लिए बहुत सक्रिय थे। वे विश्व को बताना चाहते थे कि उनका आंदोलन जायज है और अंतत: सफल होगा। वे ज्यादातर अपनी भाषणशैली पर निर्भर थे। कालांतर साफ होता गया था कि उनकी वाक्पटुता की धार विरोधी की शक्ति के सामने कहीं नहीं टिकती। शिमोन पेरेज के कार्यकाल में फिलीस्तीनियों का ज्यादा-से-ज्यादा इलाका वहां यहूदी बस्तियां बसाने की खातिर हड़पा जाने लगा, यहां तक कि पहले-पहल इसके विरोध में चले लोगों के प्रदर्शन बाद में ठंडे पड़ने लगे। ‘द्वि-राष्ट्र उपाय’ महज एक कौतूहल का विषय बन कर गया।
इस्राइली नेतृत्व में केवल राबिन ही थे जिन्हें यह एहसास हो गया था कि फिलीस्तीनियों को उनका हक और जमीन देना ही देश में लंबे समय तक शांति बनाए रखने का उपाय है। इस्राइल की अपनी यात्रा के दौरान जिन लोगों से मैं मिला तो यह पाया कि वे इस सिद्धांत से सहमत थे लेकिन उनकी आवाज कमजोर थी और उनकी गिनती उन अधिसंख्यकों के मुकाबले बहुत कम थी जो यह चाहते हैं कि सब कुछ इस्राइल को मिले और फिलीस्तीनी जाएं भाड़ में। लगता है राष्ट्रपति ओबामा ने भी अरब समस्या का हल निकालने में हार मान ली है। सुश्री हिलेरी क्लिंटन जिनके बारे में कयास है कि वे आगामी राष्ट्रपति चुनाव जीत लेंगी, प्रतीत होता है कि वे भी शांति स्थापना की बजाय यहूदियों के प्रति ज्यादा सहानुभूति रखती हैं। इसलिए फिलीस्तीनियों के पास और कोई चारा नहीं है सिवाय इसके कि वे अपना अंतहीन संघर्ष जारी रखें।
बेशक एक समय में मिस्र और अरब देशों की राजनीति में ‘नासिर युग’ हुआ करता था। उन्होंने ब्रिटेन और फ्रांस की धाक को धता बताते हुए स्वेज नहर का अधिकार जीत लिया था लेकिन उसके बाद अरब राजनीति के प्रभुत्व में ज्यादातर ह्रास ही हुआ है। इस्राइल को युद्ध के जरिए नाथने के तमाम प्रयासों का अंत उलटे अरब देशों की बेइज्जती भरी हार और इलाके की हानि में ही हुआ है। स्थितियां जस-की-तस इसलिए भी बन जाती हैं क्योंकि इस्राइल का मुख्य संरक्षक अमेरिका चाहता है कि यहां शांति की शर्तें इस्राइली हितों के अनुसार हों।
इन परिस्थितियों के बनने में पेरेज की भूमिका काफी ज्यादा रही है। उन्होंने गैर-वैधानिक यहूदी बस्तियां बनाने के काम की देखरेख की थी। वे उन सभी मुख्य निर्णय प्रक्रियाओं का हिस्सा थे जो फिलीस्तीनियों की जमीन और हकों को छीनने की खातिर चलाई गई थीं। फिर भी पेरेज इस्राइली औपनिवेशवाद का एक नरम चेहरा बने रहे। अब इस्राइल इससे आगे कहां जा सकता है? आज की तारीख में यह उच्च तकनीक से अभिनव उत्पाद बनाने वाले उद्योगों का एक आधुनिक देश है जो परिष्कृत हथियारों का मुख्य निर्यातक भी है। लेकिन अपनी जमीन लगातार हड़पे जाने और दोयम दर्जे का व्यवहार किए जाने को देखकर खून का घूंट पीकर रह जाने वाले फिलीस्तीनियों का आक्रोश बढ़ता जा रहा है।
यह भी सच है कि आज जो गड्डमड्ड परिस्थितियां हम मध्य-पूर्व एशिया में देख रहे हैं वह बाहरी ताकतों द्वारा ईजाद की गयी हैं। जिनमें सबसे उल्लेखनीय है 1916 में ब्रिटेन और फ्रांस के बीच हुआ साईकस-पीकोट समझौता, जिसके जरिए ओट्टोमन साम्राज्य की परिसंपत्तियों का बंटवारा इन दोनों मुल्कों ने अपनी सहूलियत के हिसाब से आपस में कर लिया था। हम आज औपनिवेशवादी काल पर सिर्फ अफसोस जता सकते हैं लेकिन मुख्य बिंदु यह है कि नासिर के बाद एक भी ऐसा करिश्माई अरब नेता उभर नहीं पाया जो आगे बढ़कर इनका नेतृत्व संभाल सके।
आज की तारीख में अरब जगत में कई किस्म और आकार के तानाशाह राज कर रहे हैं। अफगानिस्तान और इराक में मुंह की खाने के बाद ओबामा प्रशासन अब हवाई बमबारी करने के अलावा मध्य-पूर्व में सीधी सैन्य दखलअंदाजी करने से बच रहा है। सीरिया में पिछले पांच सालों से जो गृहयुद्ध चल रहा है, वह इसलिए है कि ईरान और रूस अपने हितों की खातिर अल्पसंख्यक समुदाय अलवाती से संबंध रखने वाले बशर-अल-असद की सरकार का सहयोग और मदद कर रहे हैं।
परिस्थितियों से निपटने में संयुक्त राष्ट्र फिर से नाकामयाब सिद्ध हुआ है। जितनी चौड़ी दरार पूर्व और पश्चिम के बीच होगी, उतनी ही क्षीण संभावना सुरक्षा परिषद से जारी होने वाली प्रभावशाली हिदायतों की होगी।
No comments:
Post a Comment