Saturday, November 19, 2016

फिर आंदोलन की राह पर असम | दिनकर कुमार

केंद्र सरकार ने हिंदू बांग्लादेशियों को भारत की नागरिकता देने का जो फैसला किया है, उसके विरोध में असम के छात्र और नागरिक संगठन सड़क पर उतर कर विरोध जता रहे हैं और इस फैसले को वापस लेने की मांग कर रहे हैं। पिछले साल आठ सितंबर को मोदी सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से भारत आने वाले हिंदुओं, सिखों, ईसाइयों, जैनियों, पारसियों और बौद्धों को भारतीय नागरिकता देने का फैसला किया। इसके लिए पासपोर्ट अधिनियम-1920, विदेशी अधिनियम-1946 और विदेशी आर्डर-1948 को संशोधित करने की बात कही गई। इस अध्यादेश के जरिए बताया गया कि जो धार्मिक अल्पसंख्यक पासपोर्ट या अन्य यात्रा दस्तावेज के बगैर भारत आते हैं या जिनके पासपोर्ट और यात्रा दस्तावेज की मियाद खत्म हो चुकी है, उनको भारतीय नागरिक के रूप में स्वीकार किया जाएगा। यह अध्यादेश जहां संविधान के अनुच्छेद 14,15,19,21 और 29 का उल्लंघन बताया जा रहा है वहीं 1985 के असम समझौते का भी। इस अध्यादेश को चुनौती देते हुए असम सम्मिलित महा संघ, अखिल असम आहोम सभा, असम आंदोलनर शहीद निर्जाजित परियाल व असम के आठ गणमान्य व्यक्तियों ने उच्चतम न्यायालय में चार जनहित याचिकाएं दायर कीं। इस मामले को विचार करने के लिए संवैधानिक पीठ के पास भेजा गया।
असम समझौते में प्रावधान किया गया था कि 25 मार्च 1971 के बाद असम में आए किसी भी धर्म के विदेशी को रहने का अधिकार नहीं होगा। असम के जन संगठन इसी बात पर खफा हैं कि असम समझौते के प्रावधान से परिचित होने के बावजूद मोदी सरकार ने लोकसभा में नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 पेश कर दिया। इस विधेयक को कानून का दर्जा देकर मोदी सरकार बांग्लादेशी हिंदुओं को असम में बसाना चाहती है। असम के लोग आशंकित हैं कि ऐसा होने पर वे अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बन कर जीने के लिए मजबूर हो जाएंगे। उनकी भाषा-संस्कृति खतरे में पड़ जाएगी। एक अनुमान के मुताबिक ऐसे हिंदू बांग्लादेशियों की तादाद बीस लाख है। वर्ष 1971 से पहले आकर असम में बसे बांग्लादेशी हिंदुओं की तादाद के साथ जब बीस लाख की तादाद और जुड़ जाएगी तो भाषाई तौर पर बांग्लाभाषी हिंदू असम में बहुसंख्यक बन जाएंगे।
असम के मूल को भय सता रहा है कि जिस तरह त्रिपुरा के मूल निवासी अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बन कर जीने के लिए विवश हो गए, उसी तरह वे भी अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बन सकते हैं। फिर असमिया भाषा का सरकारी भाषा होने और शिक्षा का माध्यम होने का दर्जा खत्म हो सकता है और राज्य की जनजातियों की भाषा-संस्कृति नष्ट हो सकती है। भाजपा ने विधानसभा चुनाव से पहले राज्य के लोगों से वादा किया था कि अगर वह सत्ता में आएगी तो असम समझौते की धारा 6 के तहत किए गए प्रावधान को लागू करेगी और असम के लोगों के संवैधानिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करेगी। असम के लोगों को लग रहा है कि सत्ता में आने के बाद भारतीय जनता पार्टी अब उनके साथ विश्वासघात करने पर उतारू हो गई है ।
असम के मूल निवासियों के हितों को नजरअंदाज करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने नागरिकता कानून में संशोधन संबंधी अध्यादेश को कानूनी मान्यता दिलवाने के लिए विधेयक लोकसभा में पेश कर दिया। जैसे ही यह विधेयक संसद में पारित हो जाएगा- पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले सभी गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता मिल जाएगी। भले ही इस कानून का कोई विपरीत प्रभाव देश के दूसरे राज्यों पर नहीं पड़ेगा, लेकिन इस कानून की वजह से असम की जनसंख्या का ताना-बाना बिखर कर रह जाएगा। अब तक असम की भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाली राज्य सरकार ने इस विधेयक का विरोध करने की जगह समर्थन करने का ही संकेत दिया है। इस तरह राज्य की सरकार पर अपने ही लोगों की आशाओं -आकांक्षाओं के खिलाफ रुख अपनाने का आरोप लग रहा है।
संसद में कुछ विपक्षी सांसदों ने जब इस विधेयक का कड़ा विरोध किया तो सरकार ने इस विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति के पास विचार करने के लिए भेज दिया। इस समिति के अध्यक्ष डॉ सत्यपाल सिंह हैं। समिति में बीस सांसद लोकसभा के और दस सांसद राज्यसभा के हैं। समिति में असम के भाजपा के दो और कांग्रेस के एक सांसद को जगह दी गई है। असम के दोनों भाजपा सांसदों ने विधेयक का समर्थन किया है, जबकि राज्य से कांग्रस के अकेले सांसद ने कहा है कि संयुक्त संसदीय समिति को असम में अलग से एक बैठक आयोजित कर विभिन्न जन संगठनों, राजनीतिक दलों,बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और गण्यमान्य व्यक्तियों की राय लेनी चाहिए, जो लगातार इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं।
असम के लोगों का तर्क है कि पहले से ही राज्य में सत्तर लाख बांग्लादेशी बसे हुए हैं और नए सिरे से असम बांग्लादेशियों का बोझ उठाने की स्थिति में नहीं है। उनका कहना है कि अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हिंदू बांग्लादेशियों से इतना ही ज्यादा लगाव है तो उनको अपने गृहराज्य गुजरात में बसाने की व्यवस्था करें। असम पर नाहक यह बोझ क्यों डालना चाहते हैं!मीडिया रिपोर्टों से पता चलता है कि इस विधेयक को पारित करवाने में मोदी सरकार को कानूनी अड़चनों का सामना करना पड़ रहा है। इसे पारित करने का अर्थ असम समझौते का उल्लंघन करना होगा। इसके अलावा उच्चतम न्यायालय के कई फैसलों की मूल भावना का भी उल्लंघन होगा। बीते तीन अक्तूबर को संयुक्त संसदीय समिति की बैठक हुई, जिसमें दो संवैधानिक मामलों के जानकारों- टी के विश्वनाथन और सुभाष कश्यप- की राय ली गई। जानकारों ने समिति के सामने तीन बिंदु रखे। एक, इससे असम समझौते का उल्लंघन होगा। दो, विधेयक को ढीले-ढाले अंदाज में तैयार किया गया है और अगर यह पारित होता है तो इसे असम समझौते में संशोधन समझा जाएगा। तीन, अगर यह विधेयक पारित होता है तो इससे उच्चतम न्यायालय के विभिन्न फैसलों का उल्लंघन होगा, जिनमें कहा जा चुका है कि संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 25 के अनुसार धर्म के आधार पर किसी व्यक्ति को नागरिकता नहीं दी जा सकती। इस तरह विधेयक को अगर पारित किया गया तो यह चुनौती दिए जाने पर न्यायिक समीक्षा में नहीं टिक पाएगा और हो सकता है उच्चतम न्यायालय इसे निरस्त कर दे।
बीते तेरह अक्तूबर को संयुक्त संसदीय समिति की तीसरे स्तर की सुनवाई दिल्ली में हुई। इसमें देश के सत्ताईस संगठनों को अपना पक्ष रखने के लिए आमंत्रित किया गया। इनमें असम से भी पांच संगठनों को बुलाया गया, जो मूल असमिया लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठन नहीं हैं, बल्कि हिंदू बांग्लादेशियों के प्रतिनिधि संगठन हैं। स्वाभाविक रूप से इन संगठनों ने हिंदू बांग्लादेशियों को भारत की नागरिकता देने का ही समर्थन किया। माना जा रहा है कि अखिल असम छात्र संघ, कृषक मुक्ति संग्राम समिति, असम जातीयतावादी युवक छात्र परिषद आदि संगठनों को सुनवाई में न बुला कर समिति ने महज खानापूर्ति करने की कोशिश की है और असम के मूल निवासियों की शिकायत को समझने में तनिक रुचि नहीं ली है। संसद का शीतकालीन सत्र कब शुरू होगा इसकी घोषणा हो चुकी है। शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले संयुक्त संसदीय समिति अपनी रिपोर्ट पेश करेगी और उसी सत्र में सरकार इस विधेयक को पारित कराने की कोशिश करेगी।
असम के जन संगठनों का आरोप है कि बीस लाख हिंदू बांग्लादेशियों को असम में बसा कर भारतीय जनता पार्टी अपना वोट बैंक और पुख्ता करना चाहती है। विडंबना यह है कि यह उस पार्टी का रुख है जो हमेशा वोट बैंक की राजनीति को कोसती आई है और इसका दोष दूसरे राजनीतिक दलों पर मढ़ती रही है। भारतीय जनता पार्टी इन बांग्लादेशियों को बराक घाटी और निचले असम के कुछ खास विधानसभा क्षेत्रों में बसाने की योजना बना चुकी है। भाजपा को उम्मीद है कि भारत की नागरिकता मिल जाने पर हिंदू बांग्लादेशी उसका अहसान मानेंगे और चुनाव में उसे ही वोट देंगे। असम की बराक घाटी और धुबुरी जिले में हिंदू बांग्लादेशियों की तादाद सबसे ज्यादा है। भाजपा उनको अलग-अलग जिलों में बसाने की तैयारी कर चुकी है। ऐसा करते हुए इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखा जाएगा कि प्रत्येक जिले में मतदाता के रूप में हिंदू बांग्लादेशी किस तरह निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं।
बराक घाटी के तीन जिले कछार, हैलाकांदी और करीमगंज के पंद्रह विधानसभा क्षेत्रों में से बारह विधानसभा क्षेत्रों में हिंदू बंगाली बहुसंख्यक हैं। फिर, ऐसे कई विधानसभा क्षेत्र हैं जहां पहले से ही हिंदू बंगाली मौजूद हैं। अगर उन क्षेत्रों में नए सिरे से हिंदू बांग्लादेशियों को बसा दिया जाएगा तो वे चुनाव में आसानी से निर्णायक भूमिका निभा पाएंगे। असम के जन संगठनों का आरोप है कि अब तक मुसलिम बांग्लादेशियों का इस्तेमाल कांग्रेस वोट बैंक के तौर पर करती रही थी; अब सत्ता में आने के बाद भारतीय जनता पार्टी भी कांग्रेस का अनुसरण करते हुए हिंदू बांग्लादेशियों का इस्तेमाल वोट बैंक के तौर पर करना चाहती है। स्वाभाविक रूप से आम लोगों में इस बात को लेकर आक्रोश बढ़ता जा रहा है और इसका इजहार भी हो रहा है।

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