Saturday, November 19, 2016

राजनीतिः जीडीपी बनाम भूख सूचकांक | DP Singh

ताजा विश्व भूख सूचकांक या ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआइ) के अनुसार भारत की स्थिति अपने पड़ोसी मुल्क नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और चीन से बदतर है। यह सूचकांक हर साल अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (आइएफपीआरआइ) जारी करता है, जिससे दुनिया के विभिन्न देशों में भूख और कुपोषण की स्थिति का अंदाजा लगता है। आज केवल इक्कीस देशों में हालात हमसे बुरे हैं। विकासशील देशों की बात जाने दें, हमारे देश के हालात तो अफ्रीका के घोर गरीब राष्ट्र नाइजर, चाड, सिएरा लिओन से भी गए-गुजरे हैं। पूरी दुनिया में भूख के मोर्चे पर पिछले पंद्रह बरसों के दौरान उनतीस फीसद सुधार आया है, लेकिन हंगर इंडेक्स में भारत और नीचे खिसक गया है। सन 2008 में वह तिरासीवें नंबर पर था, वर्ष 2016 आते-आते 97वें स्थान पर आ गया। तब जीएचआइ में कुल 96 देश थे, जबकि अब उनकी संख्या बढ़ कर 118 हो गई है। भूख मापने के लिए इस बार चार मापदंड अपनाए गए हैं। पहला है, देश की कुल जनसंख्या में कुपोषित आबादी की तादाद। दूसरा है, पांच साल तक के ‘वेस्टेड चाइल्ड’ यानी ऐसे बच्चे जिनकी लंबाई के अनुपात में उनका वजन कम है। इससे कुपोषण का पता चलता है। तीसरा है, पांच साल तक के ‘स्टनटेड चाइल्ड’ यानी ऐसे बच्चे जिनकी आयु की तुलना में कद कम है। चौथा और अंतिम मापदंड है, शिशु मृत्यु दर। पहली बार भूख मापने के लिए ‘वेस्टेड चाइल्ड’ और ‘स्टनटेड चाइल्ड’ का पैमाना अपनाया गया है। अनुमान है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी भारत की पंद्रह प्रतिशत आबादी कुपोषण का शिकार है। इसका अर्थ यह है कि देश के करीब बीस करोड़ लोगों को भरपेट भोजन नहीं मिलता है, और जो मिलता है उसमें पोषक तत्त्वों का अभाव होता है। संतुलित भोजन के अभाव में आज पंद्रह फीसद बच्चे‘वेस्टेड चाइल्ड’ और उनतालीस प्रतिशत ‘स्टनटेड चाइल्ड’ की श्रेणी में आते हैं। इसी आयु वर्ग में उनकी मृत्यु दर 4.8 फीसद है।
मजे की बात है कि बच्चों के संतुलित पोषण के लिए दुनिया के दो सबसे बड़े कार्यक्रम भारत में चल रहे हैं। पहला है, छह साल तक के बच्चों के लिए समेकित बाल विकास योजना (आइसीडीएस), तथा दूसरा है, चौदह वर्ष तक के स्कूली बच्चों के लिए मिड-डे मील योजना। इसके बावजूद यदि भूख सूचकांक में भारत की स्थिति नहीं सुधरी तो निश्चय ही उक्त योजनाओं के क्रियान्वयन में गड़बड़ी है। वैसे हंगर इंडेक्स में देश की दुर्दशा के मुख्य कारण गरीबी, बेरोजगारी, पेयजल की किल्लत, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी तथा साफ-सफाई का अभाव है।
आर्थिक विकास के तमाम दावों के बावजूद आज भी देश की बाईस प्रतिशत आबादी कंगाल (गरीबी रेखा से नीचे) है। एक वक्त था जब यह समझा जाता था कि तेज आर्थिक विकास के भरोसे गरीबी और भुखमरी को समाप्त किया जा सकता है, लेकिन फिलवक्त जीडीपी को किसी देश की खुशहाली का पैमाना नहीं माना जाता। भारत को बाजार आधारित खुली अर्थव्यवस्था अपनाए चौथाई सदी बीत चुकी है। इस दौरान देश का जीडीपी अच्छा-खासा रहा है। आज भारत को दुनिया का सातवां सबसे अमीर देश गिना जाता है। हमारी प्रतिव्यक्ति औसत वार्षिक आय बढ़ कर 88,533 रुपए हो चुकी है, लेकिन अमीर और गरीब आदमी की आमदनी का अंतर भी पहले से कहीं अधिक है।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) की रिपोर्ट इस तथ्य की तसदीक करती है। रिपोर्ट से पता चलता है कि गरीब और अमीर के बीच की खाई और चौड़ी होती जा रही है। आम आदमी ने पिछले दो दशक के उदारीकरण राज की भारी कीमत चुकाई है। सर्वे में शहरों के सबसे संपन्न दस फीसद लोगों की औसत संपत्ति 14.6 करोड़ रुपए आंकी गई, जबकि सबसे गरीब दस प्रतिशत की महज 291 रुपए। यानी शहरी अमीरों के पास गरीबों के मुकाबले पांच लाख गुना ज्यादा धन-दौलत है। गांवों में कुबेर और कंगाल आबादी की संपत्ति का अंतर थोड़ा कम है, फिर भी यह एक और तेईस हजार के आसमानी अंतर पर है।
गांवों में सबसे अमीर दस प्रतिशत लोगों की औसत संपत्ति 5.7 करोड़ रुपए तथा सबसे गरीब दस फीसद की 2507 रुपए है। रिपोर्ट के अनुसार आज गांवों की एक तिहाई तथा शहरों की एक चौथाई आबादी कर्ज के बोझ तले दबी है। जहां सन 2002 में गांवों के सत्ताईस फीसद लोगों ने ऋण ले रखा था, वहीं 2012 में इकतीस प्रतिशत लोगों पर कर्ज चढ़ा था। इन दस वर्षों में ऋण की रकम भी बढ़ कर लगभग दो गुनी हो गई।
क्रेडिट सुइस ग्लोबल वेल्थ रिपोर्ट के अनुसार आज हिंदुस्तान के दस प्रतिशत अमीरों के पास देश की चौहत्तर प्रतिशत संपत्ति है। मतलब यह कि बचे नब्बे प्रतिशत लोगों के पास महज छब्बीस प्रतिशत धन-दौलत है। तेज आर्थिक विकास के कारण पिछले पंद्रह वर्षों में देश की संपत्ति में 15.33 लाख करोड़ रुपए का इजाफा हुआ, पर इस वृद्धि का 61 प्रतिशत (नौ लाख करोड़ रुपए) हिस्सा केवल एक फीसद अमीर तबके ने कब्जा लिया। ध्यान से देखने पर पता चलता है कि पिछले डेढ़ दशक में देश में जितनी दौलत बढ़ी उसका 81 प्रतिशत (12.41 लाख करोड़ रुपए) हिस्सा संपन्न दस फीसद वर्ग की झोली में चला गया, जबकि नब्बे प्रतिशत आम जनता को केवल 19 प्रतिशत (2.91 लाख करोड़ रुपए) संपत्ति मिली।
रोजगार के मोर्चे पर भी हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। लेबर ब्यूरो सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट के अनुसार आज भारत रोजगार-रहित विकास के कुचक्र में फंस गया है। वर्ष 2015-16 में बेरोजगारी दर पांच प्रतिशत आंकी गई, जो पांच वर्ष में सर्वाधिक थी। इससे पूर्व वर्ष 2013-14 में यह 4.9 फीसद, 2012-13 में 4.7 तथा 2011-12 में 3.8 फीसद थी। हां, 2009-10 में यह आंकड़ा जरूर 9.3 प्रतिशत था। रिपोर्ट के अनुसार पिछले वित्तवर्ष में शहरों में बेरोजगारी की स्थिति और बिगड़ी है। जहां 2013-14 में यह 4.7 फीसद थी, 2015-16 में बढ़ कर 5.1 फीसद हो गई। सबसे अधिक मार महिलाओं पर पड़ रही है, उनकी नौकरियां लगातार कम हो रही हैं। सन 2013-14 में बेरोजगार औरतों की संख्या 7.7 प्रतिशत थी, जो दो साल बाद बढ़ कर 8.7 प्रतिशत हो गई।
तेज औद्योगीकरण और आर्थिक सुधार के दावों के बावजूद सच यह है कि पिछले पच्चीस सालों के दौरान अच्छी और सुरक्षित नौकरियां लगातार घटी हैं। 1980 की औद्योगिक जनगणना में प्रत्येक गैर-कृषि इकाई में 3.01 कर्मचारी थे, जो 2013 आते-आते घट कर 2.39 रह गए। उदारीकरण से पूर्व 1991 में 37.11 फीसद उद्योग ऐसे थे जहां दस या अधिक कर्मचारी थे। 2013 में यह संख्या दस प्रतिशत गिर कर 21.15 रह गई। इसका अर्थ यह हुआ कि देश के अधिकांश उद्योग अब गैर-संगठित क्षेत्र में हैं। यह तथ्य किसी भी अच्छी अर्थव्यवस्था के सद्गुण के तौर पर नहीं गिना जाएगा। इस सिलसिले में श्रम ब्यूरो की रिपोर्ट का जिक्र जरूरी है। रिपोर्ट से सर्वाधिक काम देने वाले आठ सेक्टर- कपड़ा, हैंडलूम-पॉवरलूम, चमड़ा, आॅटो, रत्न-आभूषण, परिवहन, आइटी-बीपीओ, और धातु के मौजूदा हालात का जिक्र है, जहां नई नौकरी न बराबर है।
रिपोर्ट के अनुसार इन आठ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सेक्टरों में जुलाई-सितंबर, 2015 की तिमाही में केवल 1.34 लाख नई नौकरी आई। मतलब यह कि प्रतिमाह पैंतालीस हजार से भी कम लोगों को काम मिला, जबकि आंकड़े गवाह हैं कि हिंदुस्तान के रोजगार बाजार में हर महीने दस लाख नए नौजवान उतर आते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि हर माह लाखों बेरोजगारों की नई फौज खड़ी हो रही है, जो एक साल में एक करोड़ की दिल दहला देने वाली संख्या पार कर जाती है। ऐसे में अच्छे और टिकाऊ रोजगार की बात करना मुंगेरीलाल के हसीन सपने देखने जैसा है। कुल मिलाकर रोजगार मोर्चे पर हालत बहुत बुरी है। स्थिति एक अनार, सौ बीमार जैसी है। तभी सरकारी विभाग में चपरासी के चंद पदों के लिए लाखों आवेदन आते हैं, और अर्जी देने वालों में हजारों इंजीनियरिंग, एमबीए, एमए, पीएचडी डिग्रीधारी होते हैं।
पिछले तीन साल से खाद्य सुरक्षा कानून लागू है, फिर भी हंगर इंडेक्स में हम फिसड्डी हैं। मनमोहन सिंह सरकार ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना लागू की थी, जिसका उद््देश्य भी भूख और गरीबी से लड़ना है। लगता है जन-कल्याण से जुड़े ये दोनों कार्यक्रम अपेक्षित परिणाम देने में विफल रहे हैं।
एक बात और है जो चौंकाती है। अर्थव्यवस्था के आंकड़े देख कर अनुमान लगाना कठिन है कि देश किस दिशा में जा रहा है। आज सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) सात फीसद से ऊपर है, जिससे लगता है कि अर्थव्यवस्था मजबूत है। दूसरी ओर औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आइआइपी) है जो लगातार दो माह से कमजोर चल रहा है। इसी प्रकार थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआइ) और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) का अंतर है। पहले को देख कर लगता है कि महंगाई कम हो रही है, जबकि दूसरा संकेत देता है कि बढ़ रही है। सितंबर 2015 में तो इन दोनों में करीब नौ फीसद का अंतर था। तब थोक सूचकांक -4.4 था, जबकि उपभोक्ता सूचकांक +4.4 था। इतना ज्यादा अंतर देख आम आदमी को कैसे पता चलेगा कि महंगाई बढ़ रही है या घट रही है। हां, जब कोई अंतरराष्ट्रीय एजेंसी कहती है कि देश में करोड़ों लोग भूखे हैं तब सरकार के पास चुप्पी साधने के अलावा कोई चारा नहीं होता।

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