Saturday, November 19, 2016

क्या हो पुलिस सुधार की दिशा | विकास नारायण राय

दिल्ली हाइकोर्ट ने केंद्र सरकार को दिल्लीवासियों की सुरक्षा को लेकर चेताया है। दिल्ली पुलिस के लिए गृह मंत्रालय की स्वीकृति के बावजूद चौदह हजार अतिरिक्त भर्तियां नहीं हो सकीं और चार सौ पचास करोड़ रुपए के सीसीटीवी कैमरे लगाने के लिए धनराशि मुहैया नहीं कराई गई। हाइकोर्ट के सामने लंबित दिल्ली पुलिस, राज्य सरकार और केंद्र सरकार के शपथपत्रों के आलोक में पुलिस की क्षमता-वृद्धि और आधुनिकीकरण की इन जरूरतों का देर-सबेर पूरा किया जाना अनुमानित होगा ही। इस बीच महाराष्ट्र एटीएस के सामुदायिक रुझान का एक बिरला उदाहरण भी सामने आया- उन्होंने आइएस के प्रचार के प्रभाव में सीरिया जाने पर उतारू कई नौजवानों की काउंसलिंग कर उनकी घर वापसी कराई है। इसके बरक्स आतंकी मामलों में मुसलिम युवकों के झूठे चालान और असीमानंद की जमानत में मिलीभगत जैसे आरोप भी जांच एजेंसियों पर लगते रहे हैं, जिनका लाभ युवकों को बरगलाने वाले उठाते हैं। पुलिसिया कायदे जहां छोटे-मोटे अपराधी को शातिर बना देने की कुव्वत रखते हैं, व्यवस्था की अंधी चपेट की मार में आने वालों को असामाजिक रास्तों पर जाने का उकसावा तक सिद्ध होते रहे हैं। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में दलित छात्र रोहित का आत्महत्या-प्रकरण छात्रों के दो संगठनों में तनाव से उपजा। इसकी जड़ में इनमें से एक संगठन (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद) की दिल्ली विश्वविद्यालय में वह ताकत है जिसके चलते वहां ‘मुजफ्फरनगर बाकी है’ नामक सांप्रदायिकता-विरोधी फिल्म का प्रदर्शन नहीं हो सका था। एक लोकतांत्रिक डीएनए वाली पुलिस ने संविधान-प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस सरासर अपमान को शिद्दत से लिया होता, न कि इस पर लीपापोती हुई होती। तब शायद हैदराबाद परिसर के उबलने की नौबत भी न आती। भारतीय लोकतंत्र में पुलिस की इस परिचालन-विसंगति को कैसे समझें, जो किताबों में लिखे कानून को गली-कूचों में ठोस न्याय की शक्ल नहीं लेने दे रही? एफआइआइटी और यूजीसी परिसरों में लाठीचार्ज का तांडव करने वाली एजेंसी मालदा में मूकदर्शक बनी रह जाती है! पेशेवर-अकादमिक तबकों से निकले विरोधी स्वरों पर दमन की गर्मी, जबकि घोर असामाजिक तत्त्वों की सांप्रदायिक आड़ में बलवे और आगजनी की खुली नुमाइश पर भी ठंड! गोया कि राजधानी के थानों से लेकर सुदूर माओवादी मैदान तक एक जैसे समीकरण का बोलबाला है- भारत का संविधान लोकतांत्रिक है; उसे देशवासियों के दैनिक जीवन में लागू करने वाले न्याय-व्यवस्था के उपकरण नहीं! दरअसल, पुलिस के सामाजिक उत्पाद, ‘कानून का शासन’ की आधारभूत लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर ही करते आए हैं। पुलिस को प्राय: अपराध-अपराधी, यातायात, बंदोबस्त या सुरक्षा और आतंक जैसे संदर्भों में देखने के आदी समाज में उसकी क्षमता को आंकड़ों में देखने-परखने का चलन है- उसके पेशेवर प्रतिफलों का सामाजिक उत्पाद के रूप में आकलन नहीं होता। इस घातक चूक से जुड़ा परिणाम है पुलिस की क्षमता-वृद्धि और आधुनिकीकरण की दौड़ में उसके लोकतंत्रीकरण के महत्त्वपूर्ण आयामों का पीछे छूट जाना। न तो पुलिसकर्मी, न पुलिस की पद्धतियां और न ही पुलिस के काम के सामाजिक उत्पाद- लोकतंत्र के मान्य पैमाने इनमें से किसी की भी अनिवार्य कसौटी नहीं बनाए जाते! पुलिस की आए दिन की कार्यप्रणाली में अवैधानिक विरोधाभास वैसे ही नहीं समाए हुए हैं- उसकी लोक-छवि का मानो एक लगभग अपरिवर्तनीय-सा (अ)समाजशास्त्र बन गया है- एफआइआइटी और यूजीसी जैसी सक्रियता मालदा की निष्क्रियता की भरपाई कर देती है! हरियाणा के राम रहीम एक धार्मिक दर्जा देकर उनके अनुयायियों की ‘धार्मिक’ भावनाओं को ठेस पहुंचाने के अपराध में टीवी कॉमेडियन कीकू शारदा को एक नहीं दो-दो बार आनन-फानन में गिरफ्तार कर लिया जाता है! जबकि हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में आत्महत्या करने पर विवश किए गए शोध छात्र को आतंकी और देशद्रोही बताने वाले केंद्रीय मंत्री और तदनुसार उसे छात्रावास से निष्कासित करने वाले कुलपति के विरुद्ध मुकदमा भी देशव्यापी आक्रोश के बाद ही दर्ज हो सका। इस मामले में किसी की गिरफ्तारी या सजा की तो दूर-दूर तक कोई बात ही नहीं- ऊपर से दिल्ली में पुलिस ने विरोध जताते छात्रों पर कड़कती ठंड में पानी की बौछार की और डंडे फटकारे। जाहिर है, ‘कानून का शासन’, पुलिस के सामाजिक उत्पाद के दायरे में एक तकनीकी अवधारणा भर रहा है, न कि लोकतांत्रिक शर्त। क्या हम सड़क पर खाकी वर्दी और सुरक्षात्मक कवच में लाठी भांजती पुलिस पर लदे हुए कानून के गुरुतर भार को समझते हैं? कमांडर ने किसी एक अचानक क्षण में नागरिकों के समूह पर लाठीचार्ज का फैसला लिया- तो यह उनके लिए लाठी कौशल का ही नहीं, लोकतंत्र की समझ का भी संवेदी इम्तहान बन जाना चाहिए। इसकी पालना में जब सिपाही लाठी चलाता है तो ज्यादातर उसके पास उत्तेजित अवस्था में संतुलित व्यवहार के लिए बमुश्किल चंद सेकेंड ही होते हैं। लाठी किस पर पड़नी है, कहां पड़नी है- पैर पर, हाथ पर, पीठ पर या कभी जब जान पर ही बन आए तो आत्मरक्षा में सिर पर? बड़े से बड़े मानवतावादी के लिए भी यह लोकतांत्रिक अनुकूलन की गहनतम परीक्षा का क्षण होगा। पर पुलिसकर्मी के लिए यह अपरिचित संवेदनाओं का क्षेत्र सिद्ध होता है क्योंकि उसका सारा अभ्यास लाठी भांजने के तकनीकी कौशल पर केंद्रित रहा है। यही नहीं, इन पुलिसकर्मियों में से अधिकतर या शायद सभी पूर्व ड्यूटी की थकान उतरे बगैर, और बिना वस्तुस्थिति की समुचित जानकारी के, मौके पर भेजे गए होते हैं, क्योंकि अकस्मात आई घड़ी में न इतनी बेशी नफरी ही उपलब्ध होती है और न उतना समय किसी के पास होता है, और जहां समय और नफरी दोनों हों भी, वहां भी पुलिस की कार्यपद्धति में सामयिक अनुकूलन का असर ही हावी मिलेगा, न कि संवैधानिक अनुकूलन का। दरअसल, पुलिस के प्रशिक्षण, संगठन और कार्य-संस्कृति में बस कौशलतंत्र की दक्षता रची-बसी होती है, जबकि लोकतंत्र का समीकरण सिरे से नदारद मिलेगा। पुलिसकर्मी को एक लोकाचारी कानूनदां के रूप में नहीं, अधिकारी व्यवस्था के उत्तरदायी एजेंट के रूप में देखा जाता है! उदाहरण के लिए, एफआइआइटी (पुणे) और यूजीसी (दिल्ली) पर धरना दे रहे छात्रों पर काबू पाने के लिए हुए पुलिस के लाठीचार्ज पर लौटें। दोनों ही जगहों पर केंद्र सरकार के निर्णयों के प्रति छात्रों के दीर्घकालिक विरोध के स्वर लोकतांत्रिक रहे हैं। एफआइआइटी में एक स्वर से छात्र एक ‘अपात्र’ को संस्था का अध्यक्ष नियुक्त किए जाने पर आंदोलनरत हुए, जबकि यूजीसी के विरुद्ध देश भर से शोधरत छात्र इसलिए लामबंद हुए क्योंकि मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आदेश ने उन्हें अरसे से चले आ रहे वजीफों से वंचित कर दिया था। दोनों दृष्टांतों में पुलिस की लाठी कारगर भूमिका में रही, जबकि लोकतांत्रिक रणनीति नदारद मिली। लाठीचार्ज के इन प्रदर्शनों से ठीक उलट मामला है मालदा का, जहां अराजक तत्त्वों से भरी विशाल सांप्रदायिक भीड़ को घंटों बेखौफ हिंसक उपद्रव करने दिया गया, यहां तक कि इस दौरान पुलिस थाना तक उनका निशाना बना। उन्हें काबू करने में पुलिस निष्क्रिय बनी रही। उसके सैन्यीकरण और आधुनिकीकरण का इस्तेमाल नहीं हुआ। दरअसल, ऐसी स्थितियां भी पुलिस की पेशेवर प्रणाली में लोकतांत्रिक तत्परता के अभाव का ही नतीजा हैं। शासनतंत्र की नीतिगत बेरुखी के चलते मालदा प्रकरण का विश्लेषण भी राजनीतिक दोषारोपण के दायरे में रहा और इसमें निहित सामाजिक संदेश की अनदेखी हुई। एक रोडरोलर को स्कूटर की तरह नहीं चलाया जा सकता। भारत के संविधान का गठन बेशक लोकतंत्र के पक्ष में रोडरोलर सरीखा हो, पर उसे व्यावहारिक जीवन में खींचने वाले कानूनी इंजनों और पुलिसिया पहियों में स्कूटर का दम-खम भी नहीं। यह पेशेवर कौशल का ही नहीं, लोकतांत्रिक क्षमता का प्रश्न भी है। न्याय-व्यवस्था के कौशल-संपन्न उपकरणों में लोकतांत्रिक क्षमता भरने का! ऐसी क्षमता के अभाव में इन उपकरणों के हश्र की एक झलक अमेरिकी समाज के विकसित प्रयोगों में देखी जा सकती है जहां पुलिस की नागरिकों पर होने वाली हिंसा में वृद्धि एक अनवरत राष्ट्रीय बहस का रूप ले चुकी है। यह माना जा रहा है कि पुलिस को नई तरह से प्रशिक्षित किए जाने की जरूरत है। अलाबामा में फरवरी 2015 में अट्ठावन वर्षीय निहत्थे भारतीय नागरिक सुरेश भाई पटेल का मामला अमेरिका और भारत दोनों देशों में चर्चित रहा था। उनको अपने बेटे के अपार्टमेंट के पास टहलते हुए अमेरिकी पुलिसकर्मी पार्कर ने जमीन पर गिरा कर बेबस कर दिया, जिससे वे आंशिक रूप से लकवे का शिकार हो गए। अंग्रेजी न समझने वाले पटेल पर किसी अपराध का शक नहीं था और पुलिसकर्मी को बस इतना लगना काफी था कि वे उसके आदेश का पालन नहीं कर रहे हैं। अब अदालत ने भी पार्कर के कृत्य को अपराध न मानते हुए उसे बरी कर दिया है। कई पुलिसकर्मियों ने इस मुकदमे में गवाही दी कि इस तरह पटेल को जमीन पर गिराना राज्य की नीति के अंतर्गत पुलिसकर्मी के प्रशिक्षण के अनुरूप था। पुलिस के आदेशों की अवमानना में हिंसा के मामलों में जो कानूनी स्थिति अमेरिका में है,कमोबेश वही भारत में भी। इन कृत्यों को जान-बूझ कर किया गया अपराध सिद्ध करना लगभग असंभव हो जाता है, चाहे पीड़ित कितना भी शांतिपूर्ण या बेदाग क्यों न हो। लेकिन इससे समाज में अपनी ही पुलिस और न्याय-व्यवस्था के प्रति अविश्वास और आक्रोश पैदा होता है। इसी तरह दंगे-फसाद में पुलिस की निष्क्रियता समाज में असुरक्षा और खौफ की आवृत्ति का निमंत्रण जैसा है। न्याय के नजरिए से दोनों तरह का सामाजिक उत्पाद पूर्णतया अमान्य होना चाहिए। इसके लिए पुलिस-प्रशिक्षण और व्यवहार में हिंसा के अनिवार्य इस्तेमाल को संविधान की अवमानना से नत्थी करने की जरूरत है। - See more at: http://www.jansatta.com/politics/way-of-police-reforms-delhi-high-court-centre-govt/64117/#sthash.eBIOI2sG.dpuf

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