रोते रोते हंसा दिया,
चार पल ढूंढ के,
पत्थरों से बह निकला,
कुछ दरारें ढूंढ के.
------
खून के लफ्ज़ नहीं,
धब्बों से पहचान है.
गहरा है या मटमैला,
मौत ही दास्ताँ है.
----
कर इबादत तेरी,
हम बेफिक्र हो लिए खुदा!
जब कहर ढाया गया,
गाज पहले हमपर गिरी!
------
देखकर रास्ता मेरा,
सारा ज़माना हंस दिया.
फिर वक़्त के दरिये से,
सिर्फ हमही उबर कर निकले!
-----
आशिकी की आग थी,
देर तक जलती रही.
बुझी भी तो क्या बुझी,
जो तुझे फ़ना कर गई.
-----
कोई चार पल हंस दिया,
उन्हें भरोसा हो गया.
यहाँ हम भरोसा दिलाते,
आधी सदी गुजार दिए!
----
हंस दो मुस्कुराकर,
क्या मिलेगा रुलाकर.
आज हम उल्फत में हैं,
तेरी मुस्कान की जरूरत है.
~ViV's
प्यार करना बहुत ही सहज है, जैसे कि ज़ुल्म को झेलते हुए ख़ुद को लड़ाई के लिए तैयार करना. -पाश
Wednesday, January 6, 2010
Sunday, December 13, 2009
मैं और मेरे पिता
पिता की आँखें,
वो दीर्घ में देखती आँखें.
आँखों में पलता सपना-
की पाऊं में सफलता.
उन्होंने जो किया संघर्ष,
वो न करना पड़े मुझे!
लड़ना न पड़े मुझे.
मैं-नालायक
संघर्ष नियति मान करता हूँ.
अपना सपना पाल
खुद के लिए लड़ता हूँ.
अब,
हमारे सपने टकरा गये.
उनका सपना दीर्घ, मेरा सपना शुन्य,
उनकी नज़र में यह बूँद!!
मैं जीते या वो, नहीं पता.
पर मैं सफलता पा गया,
पा के इठला गया.
मैं सोचता हूँ,
वो देखते-मैं कितना खुश हूँ,
अपना सपना साकार कर,
पा सफलता अपने आधार पर.
वो सोचते हैं,
काश! बेटा देखे,
वो खुश हैं, उसकी लगन से,
उसने पाया, जो चाहा मन से.
लेकिन,
मैं दुखी हूँ, उनका सपना न साकार कर,
वो दुखी हैं, सपने थोपने के आधार पर.
हम,
खुश हैं,भीतर से,
दुखी, बाहर से.
मैं, पिता और ये अटूट बंधन,
हँसता, इठलाता ये जीवन.
Thursday, December 10, 2009
मजहब क्या है?
मजहब क्या है?
मज़े से,
पापों को करते जाना
फिर,
गंगा-स्नान कर उन्हें
धो डालना,
या
मक्का यात्रा कर,
पिचाश की शिला को,
पत्थरो से पीटना?
या फिर,
जब पाप फिर भी न मिटे तो,
दूसरों पे इन्हे थोप कर,
उन्हें जिंदा जलाना,
मारना,
किसी की इज्जत लूटना.
इंसान का इंसान को काटना ही
मजहब है?
मजहब क्या है?
इंसान को इंसान से बांटने का तरीका,
या...इससे भी बदतर कुछ और?
Tuesday, December 1, 2009
सच
सच कहती हूँ,
मैं खफा नहीं,
न ही बेवफा!
तुम,
नींद, दिन, रात
सब फना कर,
मेरे हो गये.
मैं,
तुम्हारी थी,
तुम्हारे हर पड़ाव पर,
साथ निभाने.
मंजिल और करीब लाने.
तुमने,
बढ़ना छोड़ दिया,
चलना छोड़ दिया.
ये कैसे बर्दाश्त करती!!
तुम्हारी उन्नति के लिए,
अथाह तन्हाई सहती हूँ.
बेवफा नहीं,
दुनिया की नज़रों में,
फिर भी बेवफा बनती हूँ.
मेरे प्यार को,
इससे बड़ा सबूत क्या दूँ?
काश! तुम समझो........सच क्या है.
मैं खफा नहीं,
न ही बेवफा!
तुम,
नींद, दिन, रात
सब फना कर,
मेरे हो गये.
मैं,
तुम्हारी थी,
तुम्हारे हर पड़ाव पर,
साथ निभाने.
मंजिल और करीब लाने.
तुमने,
बढ़ना छोड़ दिया,
चलना छोड़ दिया.
ये कैसे बर्दाश्त करती!!
तुम्हारी उन्नति के लिए,
अथाह तन्हाई सहती हूँ.
बेवफा नहीं,
दुनिया की नज़रों में,
फिर भी बेवफा बनती हूँ.
मेरे प्यार को,
इससे बड़ा सबूत क्या दूँ?
काश! तुम समझो........सच क्या है.
Thursday, November 26, 2009
( यह कविता लिखने के बाद मैं रात भर नहीं सोया हूँ. इतना दर्द शायद मैंने कभी नहीं लिखा होगा. प्रेम और वियोग पर लिखते-लिखते जब सच पे लिखा तो आंसू छल-छला गये. मैं अभी 20 साल का हूँ, और शायद दुनिया इतने अच्छे से नहीं जानता, शायद न देखि हो, लेकिन जो लिखा है वो अपूर्व है.
first and last मिलाकर पांच पद लिख रहा हूँ, बाकी चार पद दर्द वो दर्पण है जिसमें मैं पुन : नहीं देखना चाहता. मैं उन्हें शायद फिर न पढूं. समाज का विकृत चेहरा देखते-देखते शायद अपनी विकृति भी देख ली. )
first and last मिलाकर पांच पद लिख रहा हूँ, बाकी चार पद दर्द वो दर्पण है जिसमें मैं पुन : नहीं देखना चाहता. मैं उन्हें शायद फिर न पढूं. समाज का विकृत चेहरा देखते-देखते शायद अपनी विकृति भी देख ली. )
यहाँ मैं, वहां वो.
रोटियां तोड़ता मैं,
पत्थर फोड़ता वो.
दोनों की असमानताएं तुम पढो.
बरसात की रात,
घना अँधेरा.
टपकता छप्पर,
टूटता टप्पर.
ठण्ड से कप-कंपाती देह,
बोलती हड्डियाँ.
उनका यह दुःख,
यहाँ मैं मज़े से,
पढता चिट्ठियां.
दोपहर,
सूरज-ठीक ऊपर.
वो पसीने से तर,
पत्थर ढोए जा रहे हैं.
पसीने को पानी बना,
पीये जा रहे हैं,
रोटी जुगाड़ते,
जिए जा रहे हैं.
मैं वातानुकूलित कार से,
रास्ते नाप रहा हूँ,
'उफ़! ये गर्मी' कहता
उन्हें भांप रहा हूँ.
दो दाने उगा लाता वो,
खुश होता,
दो रोटियां जुगाड़ ली.
मैं,
आधा दाना तौल में,
आधा दाना दाम में,
गप कर जाता हूँ.
शुद्ध लाभ कमाता हूँ.
उसकी इक रोटी
खुद पचा जाता हूँ.
इलाज़ को,
सौ गज लम्बी लाइन!
धुल में,
मासूम गोद लिए बैठा वो,
घंटों से,
अपनी बारी का इंतजार कर रहा है.
यहाँ,
किडनियां बेंचता मैं,
अच्छाई का लबादा ओढ़े,
भगवान् बना
उसे दुत्कार रहा हूँ.
समय से घंटों पहले,
गाड़ी निकाल,
उन्हें दुत्कार कर, रास्ते से हटा,
घर भाग रहा हूँ.
यहाँ मैं, वहां वो,
बीच में ये अंतर,
देखता ईश्वर.
काश! कुछ दिन किरदार बदल दे.
फिर जान सकें हम उनका भी दर्द!!!!!
Sunday, November 22, 2009
कब तक, आखिर कब तक?
करता रहूँ इंतज़ार,
तन्हाई से प्यार....
साँसों की कसक,
दिल की दरक से बेकरार.
कब तक, आखिर कब तक?
दूर देश में,
पपीहे सा बैठा हूँ,
गान गाये तेरा,
अरमान लिए बैठा हूँ.
यादों को बसाए,
सपनों को जगाये,
इक आस लिए बैठा हूँ,
इक प्यास लिए बैठा हूँ.
ये दूरी,
काश कुछ पल की होती.
सिसकता नहीं मन फिर!
अब,
सितम नहीं सहा जाता.
कब आओगे?
कब तक, आखिर कब तक.
देश मेरा ये है,
वो परदेश!
लौट आओ तुम,
पास, बिलकुल पास,
कि साँसे भी,
बीच में न आयें.
नहीं होता इंतज़ार!
राहें देखूं कब तक??
कब तक, आखिर कब तक?
तन्हाई से प्यार....
साँसों की कसक,
दिल की दरक से बेकरार.
कब तक, आखिर कब तक?
दूर देश में,
पपीहे सा बैठा हूँ,
गान गाये तेरा,
अरमान लिए बैठा हूँ.
यादों को बसाए,
सपनों को जगाये,
इक आस लिए बैठा हूँ,
इक प्यास लिए बैठा हूँ.
ये दूरी,
काश कुछ पल की होती.
सिसकता नहीं मन फिर!
अब,
सितम नहीं सहा जाता.
कब आओगे?
कब तक, आखिर कब तक.
देश मेरा ये है,
वो परदेश!
लौट आओ तुम,
पास, बिलकुल पास,
कि साँसे भी,
बीच में न आयें.
नहीं होता इंतज़ार!
राहें देखूं कब तक??
कब तक, आखिर कब तक?
Friday, November 20, 2009
तुम
बंजर सी धरती पे,
इक बूँद सा गिरे!
समा गए.
फिर बादल सा छलछला गये.
अब बंजर धरती हरियाली है.
फूल खिले और खुशहाली है.
चट्टान से कठोर मन में,
तुम पानी सा,
दरारों में भरे!!
फिर हिम बन गये,
चट्टानें फोड़ गये!!
अरमानो में,
किरदार सा आ गये!
चुपके से ही समां गये.
अब अरमान जब भी जागते है,
तुमको साथ पाते है!
इक बूँद सा गिरे!
समा गए.
फिर बादल सा छलछला गये.
अब बंजर धरती हरियाली है.
फूल खिले और खुशहाली है.
चट्टान से कठोर मन में,
तुम पानी सा,
दरारों में भरे!!
फिर हिम बन गये,
चट्टानें फोड़ गये!!
अरमानो में,
किरदार सा आ गये!
चुपके से ही समां गये.
अब अरमान जब भी जागते है,
तुमको साथ पाते है!
मेहमान थे
मेहमान थे,
मेहमान से,
निकल आये उनके दिल से.
उन्होंने रोका भी नहीं,
हम रुके भी नहीं.
इक हद के बाद,
मेहमान, मेजबान कि परेशानी बन जाता है.
हम परेशानी थे,
वो परेशान थे.
हम बात समझ चुपचाप निकल आये.
दिल कि भरी जगह,
चुपचाप छोड़ आये.
यादें साथ लाये, बातें साथ लाये.
अकेले ही गए थे, तनहा ही आये!!
मगर,
वो खुश हैं,
इक बेवजह का मेहमान जो चला गया!!!
शायद मेरी जगह किसी और ने ले ली हो!!
शायद वो यही चाहते हो!!!
मेहमान से,
निकल आये उनके दिल से.
उन्होंने रोका भी नहीं,
हम रुके भी नहीं.
इक हद के बाद,
मेहमान, मेजबान कि परेशानी बन जाता है.
हम परेशानी थे,
वो परेशान थे.
हम बात समझ चुपचाप निकल आये.
दिल कि भरी जगह,
चुपचाप छोड़ आये.
यादें साथ लाये, बातें साथ लाये.
अकेले ही गए थे, तनहा ही आये!!
मगर,
वो खुश हैं,
इक बेवजह का मेहमान जो चला गया!!!
शायद मेरी जगह किसी और ने ले ली हो!!
शायद वो यही चाहते हो!!!
Tuesday, November 17, 2009
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