Thursday, November 26, 2009

( यह कविता लिखने के बाद मैं रात भर नहीं सोया हूँ. इतना दर्द शायद मैंने कभी नहीं लिखा होगा. प्रेम और वियोग पर लिखते-लिखते जब सच पे लिखा तो आंसू छल-छला गये. मैं अभी 20 साल का हूँ, और शायद दुनिया इतने अच्छे से नहीं जानता, शायद न देखि हो, लेकिन जो लिखा है वो अपूर्व है.
    first and last मिलाकर पांच पद लिख रहा हूँ, बाकी चार पद दर्द वो दर्पण है जिसमें मैं पुन : नहीं देखना चाहता. मैं उन्हें शायद फिर न पढूं. समाज का विकृत चेहरा देखते-देखते शायद अपनी विकृति भी देख ली. )
यहाँ मैं, वहां वो.
रोटियां तोड़ता मैं,
पत्थर फोड़ता वो.
दोनों की असमानताएं तुम पढो.

बरसात की रात,
घना अँधेरा.
टपकता छप्पर,
टूटता टप्पर.
ठण्ड से कप-कंपाती देह,
बोलती हड्डियाँ.
उनका यह दुःख,
यहाँ मैं मज़े से,
पढता चिट्ठियां.

दोपहर,
सूरज-ठीक ऊपर.
वो पसीने से तर,
पत्थर ढोए जा रहे हैं.
पसीने को पानी बना,
पीये जा रहे हैं,
रोटी जुगाड़ते,
जिए जा रहे हैं.
मैं वातानुकूलित कार से,
रास्ते नाप रहा हूँ,
'उफ़! ये गर्मी' कहता
उन्हें भांप रहा हूँ.

दो दाने उगा लाता वो,
खुश होता,
दो रोटियां जुगाड़ ली.
मैं,
आधा दाना तौल में,
आधा दाना दाम में,
गप कर जाता हूँ.
शुद्ध लाभ कमाता हूँ.
उसकी इक रोटी
खुद पचा जाता हूँ.

इलाज़ को,
सौ गज लम्बी लाइन!
धुल में,
मासूम गोद लिए बैठा वो,
घंटों से,
अपनी बारी का इंतजार कर रहा है.
यहाँ,
किडनियां बेंचता मैं,
अच्छाई का लबादा ओढ़े,
भगवान् बना
उसे दुत्कार रहा हूँ.
समय से घंटों पहले,
गाड़ी निकाल,
उन्हें दुत्कार कर, रास्ते से हटा,
घर भाग रहा हूँ.

यहाँ मैं, वहां वो,
बीच में ये अंतर,
देखता ईश्वर.
काश! कुछ दिन किरदार बदल दे.
फिर जान सकें हम उनका भी दर्द!!!!!

3 comments:

नरेन्द्र चक्रवर्ती said...

Bahoot ache, aise hi likhte raho. Bhawna pradhan kavita hai aur marmik bhi. Badhayea swikaro.

नरेन्द्र चक्रवर्ती said...

Bahoot khub.

nkc

vivek said...

thnx narendra ji....thnx for badhainya........