Thursday, September 28, 2017

मातृभाषा | केदारनाथ सिंह

जैसे चींटियाँ लौटती हैं
बिलों में
कठफोड़वा लौटता है
काठ के पास
वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक 
लाल आसमान में डैने पसारे हुए
हवाई-अड्डे की ओर

ओ मेरी भाषा
मैं लौटता हूँ तुम में
जब चुप रहते-रहते 
अकड़ जाती है मेरी जीभ
दुखने लगती है
मेरी आत्मा.

*अकाल में सारस कविता संग्रह से. 

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