हमारे यहां बहुत सारे लोग यह मानते हैं कि अभी कुछ महीने में कुछ हुआ है कि किसानों की समस्या बढ़ गई. मध्य प्रदेश में जो गोलीबारी हुई या महाराष्ट्र में जो किसान आंदोलन हुआ, ये सब 2-4 महीनों में अचानक से नहीं हुआ है. मेरे यह मानना है कि यह सब बहुत पहले से दबा हुआ था, जिसे हम देख नहीं पा रहे थे. कृषि में जो भी समस्या थी वो भयंकर रूप लेता जा रहा था और उसे कभी न कभी तो फटना था. ये जो गुस्सा इतने सालों से दबा हुआ था वो तो निकलना था और कैसे निकलेगा यह कोई बता नहीं सकता. हम कब तक किसी को दबा सकते हैं, एक न एक दिन उसे बाहर आना था.
किसानों के आंदोलन का मुख्य कारण आर्थिक स्थिति है. हमे नहीं पता चलता क्योंकि हम शहर में रहते हैं. किसान जब आलू उगा रहा होता है या टमाटर की, सब्ज़ियों की पैदावार कर रहा होता है और जब फसल अच्छी होती है, उसके बाद जब मंडियों में उचित दाम नहीं मिलते तो वो क्या करे? जब उसको टमाटर के 30 पैसे किलो मिले या फिर 2 रुपये किलो मिले और आलू अब तक सड़ रहा है, प्याज़ का भी बुरा हाल है. यह सब कुछ दिनों में नहीं हुआ बल्कि सालों से हो रहा था और इसे लेकर गुस्सा फूटना लाज़मी था.
यह सब एक साल की बात नहीं बल्कि पिछले 5 सालों में ऐसा हुआ है कि किसानों की जो लागत मूल्य है वो तक मिल नहीं पा रही है. 5 साल का वक़्त कम नहीं होता. पांच साल तक उसने बर्दाश्त किया और उसी के बीच नोटबंदी भी आ गई थी. जिससे कृषि संकट और भी बढ़ा. वैज्ञानिक और कुछ विशेषज्ञ ऐसा कह रहे थे कि नोटबंदी का असर बुआई पर पड़ेगा. लेकिन मैंने कहा था कि इसका बुआई पर असर नहीं पड़ेगा. मूल्य पर असर पड़ेगा, लेकिन बुआई पर असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि कोई भी किसान अपने खेत को खाली नहीं छोड़ सकता. उसका जो असर होना था वो उत्पादक की क़ीमत पर होना था.
हमारे देश में जो 2015-2016 का सूखा था मुझे लगता है उससे ज़्यादा मार नोटबंदी के कारण पड़ी है. नोटबंदी के कारण किसानों की आर्थिक स्थिति कमज़ोर हुई और उसे कम पैसे मिले. मैं जब किसानों से बात करता हूं, तो पता चलता है कि 30-40 प्रतिशत कृषि उत्पादकों की कीमतों में गिरावट आई है.
नोटबंदी के बाद कृषि क्षेत्र में भारी पैदावार हुई थी और किसानों को भी उम्मीद थी कि उन्होंने उचित मूल्य मिलेगा. उसे लगा था कि पैदावार के चलते उसकी आर्थिक हालत में सुधार होगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं बल्कि उत्पादकों की कीमतों में गिरावट आई, सिर्फ आलू और प्याज़ नहीं बल्कि दाल, चावल और यहां तक कि गेंहू की कीमतों में भी गिरावट देखी गई. किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी 300-400 रुपये कम मिलने लगा. बिहार में मैंने देखा कि लोग 600 रुपये में गेंहू बेचते हैं, वैसे 1500 रुपये में भी बेचते हैं. जब मामला ऐसे स्तर पर आ जाएगा तो जाहिर है कि प्रतिक्रिया भी होगी.
तुअर दाल हो या मूंग दाल हो, सभी दालों में, जहां न्यूनतम समर्थन मूल्य 5000 से 5500 तक था वहां किसानों को सिर्फ़ 3000 रुपये ही मिला और सरसों में जहां 3000 रुपये था, वहां लोगों को सिर्फ 500 या 600 रुपये मिला. तुअर दाल का समर्थन मूल्य जहां 5050 था वहां औसतन उन्हें 3200 से 3400 मिले है. किसानों की इस बार पैदावार 70 फ़ीसदी बढ़ी, उसके बावज़ूद अगर उनके साथ ऐसा होगा तो किसानों को दुःख तो होगा ही.
किसानों की आमदनी दोगुनी कैसी होगी यह किसी को नहीं पता, मुझे लगता है जो ऐसा बोल रहे हैं उन्हें भी नहीं पता है. जिस तरह आजकल जीडीपी डबल हो जाती है उसी प्रकार यह भी हो जाएगा. मुझे यह सब बातें हैरान नहीं करतीं. मुझे भी याद है कि जब वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2016 में संसद में कहा था कि किसानों की आमदनी दोगुनी हो जाएगी. आज भी सरकार के आंकड़े कहते हैं कि हमारे देश में किसानों की सालाना औसतन आमदनी महज 20000 रुपये है यानी मासिक तौर पर 1700 रुपये से भी कम है.
कृषि क्षेत्र में हम जब आमदनी का आकलन करते हैं, तो हम देखते हैं कि कितना उत्पादक बाज़ार में आया है. लेकिन इस बार सरकार ने अलग तरीके से देखा है. सरकार ने उसने जो स्वयं के भोजन के लिए रखा है, उसे भी जोड़ कर दिखाया है. अगर किसानों की आमदनी दोनों को मिलकर 20000 रुपये सालाना है, तो मुझे लगता है इससे बड़ी क्या त्रासदी हो सकती है.
हरित क्रांति के इतने दिनों बाद भी अगर ऐसी हालत है, तो सोचना पड़ेगा. हमारे आधे देश में 1700 रुपये औसत से भी कम आमदनी है और यह सब सांकेतिक है कि उसकी हालत ख़राब है. आज उसकी आमदनी 20000 है और हम उसे 40000 हजार करना चाहते हैं, यह तो इन्फ्लेशन से अपने आप हो ही जाती है. क्या 40000 रुपये भी उसके लिए पर्याप्त आमदनी है? मुझे ऐसा लगता है कि हमने जान बूझकर किसानों को कमज़ोर अवस्था में रखा हुआ है. हम किसानों को भूखा रखते हैं. क्योंकि हमें इन्फ्लेशन को नियंत्रित करता है.
लंबे समय से किसान समस्या झेल रहा है, इसीलिए किसान प्रदर्शन करने उतरे. यह पहले की नीतियों का नतीजा है जिसमें किसान जो उगाता है, उसका उचित मूल्य भी उसे नहीं मिलता.
मुझे राजस्थान के पूर्व राज्यपाल मिले और उन्होंने कहा कि वो मेरी बात से सहमत नहीं हैं. उन्होंने कहा कि राजस्थान में एक बारिश होती है तो किसानों की आर्थिक हालत 2-3 साल के लिए सुधर जाती है. मैंने उनसे कहा कि सर आप नौकरशाही में क्यों गए, आपको तो किसान होना चाहिए था. लोग इस तरह की कथाओं का प्रचार करते हैं कि एक बारिश से किसान के पास 2-3 साल सुधर जाता है. कृषि क्षेत्र में जो 15 प्रतिशत फ़ूड इन्फ्लेशन था, वो सिर्फ बिचौलियों की वजह से था बल्कि किसान की हालत तो उसी तरह थी. उत्पादकों की अगर कीमत बढ़ भी जाती थी, तो उसका फ़ायदा कभी भी किसानों को नहीं मिलता है.
दो साल पहले प्याज के भाव बहुत बढ़ गए थे. हंगामा मच गया था. उस समय किसान को आठ रुपये मिला, लेकिन बाजार में बिका 80 रुपये, 100 रुपये. इसका फायदा किसान को नहीं हुआ, बिचौलिये को हुआ. बिचौलिया फायदा उठाते हैं लेकिन ऐसा संदेश जाता है कि किसान को बहुत फायदा हो रहा है. लेकिन वैसा नहीं होता.
हमारे देश में खरीद मंडियां सिर्फ 7000 है बल्कि जरूरत के हिसाब से देश में कम से कम 42000-45000 मंडियां होनी चाहिए. मंडियों की कमी के चलते समर्थन मूल्य का वितरण संभव नहीं हो पाता. हमारे देश में जब हरित क्रांति हुई थी, तब हमारे नीति निर्माताओं ने सबसे अच्छा काम किया कि न्यूनतम समर्थन मूल्य का प्रावधान लाया, जहां किसानों को उनके फसल के लिए एक न्यूनतम निर्धारित मूल्य मिलेगा.
समर्थन मूल्य का फ़ायदा यह था कि किसान जब अपनी फ़सल बाज़ार में लाता है, तो वो चाहे तो किसी भी क़ीमत पर उसे बेच सकता है, लेकिन अगर कोई ख़रीदार नहीं मिला तो सरकार एक न्यूनतम मूल्य पर उसे ख़रीद लेती थी. यह ख़रीद का न्यूनतम मूल्य है कि इससे नीचे फ़सल का दाम नहीं गिरना चाहिए.
दूसरा, सरकार ने एफसीआई का गठन किया जो ख़रीद और वितरण पर नज़र तो रखेगा. एफसीआई का दो काम था, पहला सारी परिस्थितियों को मैनेज करना और दूसरा, वितरण प्रणाली यानी पीडीएस के ज़रिये जहां जहां कमी है, वहां पर वितरण का काम करना. मैं मानता हूं इसमें भ्रष्टाचार बहुत है लेकिन इसे ठीक करने की ज़रूरत है.’
जो समर्थन मूल्य प्रणाली है उसमें थोड़ी दिक़्क़त है. समर्थन मूल्य प्रणाली में सिर्फ़ फ़सल का लागत मूल्य सुरक्षित किया जाता है. उसके अलावा उसमें मुनाफ़ा नहीं मिलता. पूरे देश के लिए एक ही प्रकार का समर्थन मूल्य है, जबकि अलग अलग राज्यों में अलग अलग परिस्थिति है. पंजाब का किसान हर साल नुकसान में है. इससे भी समस्या आती है.
हमारा कृषि का जो केंद्र था वो पंजाब हरियाणा का बेल्ट होता था और हम सिर्फ़ उसी पर केंद्रित रहे. हमारे देश में जो 7700 मंडियां है उसमे से 70 फ़ीसदी मंडियां सिर्फ़ पंजाब और हरियाणा में है. उत्तर प्रदेश गेंहू का सबसे बड़ा उत्पादक है, उसके बावज़ूद सरकार सिर्फ़ 3 प्रतिशत गेंहू लेती है बाकी 97 फ़ीसदी खुले बाज़ार में बिकता है. अगर बाज़ार में दाम गिरता है तो किसानों को भारी नुकसान सहना पड़ता है.
अब यूपी के किसान अपना अनाज बेचने के लिए हरियाणा के मंडियों में आते हैं. क्योंकि वहां मंडियां नहीं हैं. यदि किसान हरियाणा आता है तो उसे सुरक्षित मूल्य मिल जाता है. सरकार को मंडियों की संख्या पर ध्यान देना होगा और उसको बढ़ाना होगा, ताकि किसानों को फ़ायदा पहुंच सके. ब्राज़ील में हर 20 किलोमीटर पर मंडी है और वहां की सरकार वचनबद्ध है कि किसान जो भी पैदा करेगा वो उसे ख़रीदेगी. इसी लिए ब्राज़ील ‘जीरो हंगर’ की स्थिति में पहुंच चुका है. उल्टा हमारे देश में जो भी मंडियां है उन्हें ख़त्म करने का काम किया जा रहा है.
पंजाब में ख़रीद मंडियां ज़्यादा हैं इसलिए किसानों को गेंहू का समर्थन मूल्य 1625 मिल जाता है, पर बिहार में मंडियां नहीं हैं जिसके चलते उन्हें अपना गेंहू 1000-1200 रुपये में बेचना पड़ता है. अगर हम पंजाब की मंडियां हटा देंगे, तो पंजाब का किसान भी बिहार का किसान बन जाएगा.
मैंने 1996 में चेन्नई में स्वामीनाथन फाउंडेशन के एक कार्यक्रम में गया था, जहां वर्ल्ड बैंक के एक अधिकारी आए थे, उन्होंने कहा था कि 2015 तक भारत में गांव से शहर की तरफ़ पलायन करने वालों की जनसंख्या इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी की जनसंख्या के मुक़ाबले दोगुनी होगी. वर्ल्ड बैंक ने यह आकलन किया था कि 40 करोड़ लोग शहर की तरफ़ चले जाएंगे.
कृषि की जो समस्या है वो सरकार की तरफ से नियोजित समस्या है. सरकार दरअसल चाहती है कि यह सब हो, सरकार बस यह नहीं चाहती थी कि कोई विरोध प्रदर्शन करे. सीआईआई की रिपोर्ट कहती हैं कि ज़मीन अधिग्रहण करके 2022 तक सरकार में बैठे लोग 30 करोड़ रोज़गार पैदा करना चाहते हैं, जो आज़ादी के 70 साल बाद भी नहीं हुआ. मुझे नहीं समझ में आ रहा है कि यह कैसा दावा है कि आप 5 वर्ष के भीतर इतने बड़े पैमाने पर रोज़गार खड़ा कर देंगे.
मुझे लगता है कि इनका दावा कहता है कि जो किसान शहर की तरफ़ आएंगे, वे इनकी स्मार्ट सिटी में दिहाड़ी मज़दूर बन जाएंगे. क्या इनको दिहाड़ी मज़दूर बनाना ही देश में रोज़गार पैदा करने का तंत्र है? हमारे देश की जो स्किल डेवलपमेंट रिपोर्ट है उसमें लिखा है कि कृषि क्षेत्र में जो जनसंख्या 52 फ़ीसदी है, उसे 18 फ़ीसदी पर लाया जाएगा.
हमारे देश की अर्थव्यवस्था ऐसा लगता है सीआरआर रेटिंग एजेंसी चला रही है और हमारे अर्थशास्त्री भी इसी को मापदंड के रूप में देखने लगते हैं. सरकार भी कहती है कि अगर किसानों का कर्ज़ माफ़ किया तो इस एजेंसी से बुरी रेटिंग मिलेगी. उत्तर प्रदेश में किसानों का जो कर्ज़ था 36000 करोड़ माफ़ कर दिया है, उसकी बात हो रही है, पर डिस्कॉम का जो 72000 माफ़ कर दिया गया, उसकी तो कोई बात ही नहीं कर रहा है.
एसबीआई की चेयरमैन अरुंधति ने टेलीकॉम सेक्टर के 4 लाख करोड़ को रिस्ट्रक्चर करने को लेकर तो बयान दे दिया, लेकिन किसानों के लिए सभी राज्यों में क़र्ज़ माफ़ करने की मांग मान लेते हैं तो कुल 3.1 लाख करोड़ है. कृषि क्षेत्र में क़र्ज़ माफ कर देने से 32 करोड़ लोगों को फ़ायदा मिलेगा. 32 करोड़ के लिए आप कहते हैं कि आर्थिक हालत बिगड़ जाएगी, लेकिन 15 घरानों के लिए 4 लाख करोड़ माफ कर देने पर आर्थिक वृद्धि होती है. हमारी सारी नीतियां यही हैं कि हमें सिर्फ़ एक प्रतिशत की मदद करनी है. कुछ घरानों का 10 लाख करोड़ का क़र्ज़ आर्थिक बढ़ोतरी मानी जाती है और किसानों का 3.1 लाख करोड़ आर्थिक नुकसान मानते हैं.
सातवें वेतन आयोग के चलते सरकार पर 4.80 लाख करोड़ का भार होगा, जिसका फ़ायदा सिर्फ़ एक फ़ीसदी लोगों को ही मिलेगा. अगर सरकार यही काम 52 फ़ीसदी किसानों को लिए कर दे, तो देश में हंगामा मच जाएगा. सरकार इस बातों पर क्यों नहीं विचार करती? मैं मानता हूं कि कृषि क्षेत्र अकेले इतना सक्षम है कि वो आर्थिक हालत में सुधार ला सके.
आज हमारा किसान थोड़ा समझदार हो चुका है. सोशल मीडिया के माध्यम से उसे पता है कि उसके साथ किस तरह की नाइंसाफी हो रही है. अब जब उसे सब पता चल रहा है तो इसी के कारण उसमें ग़ुस्सा बहुत है. पहले नहीं पता होता था तो वो कुछ नहीं कहता था पर आज जो इतने वर्षों का ग़ुस्सा है, वो फूट रहा है. मुझे लगता है सरकार को इसपर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि अगर हम अपना कृषि क्षेत्र नहीं बचा पाए तो अर्थव्यवस्था भी नहीं बचा पाएंगे.
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