Wednesday, June 28, 2017

सरकारी स्कूल और शिक्षा की हालत

A file photo of a government primary school in Madhya Pradesh. Photo: Mint


शिक्षा किसी भी देश के मानव संसाधन विकास के लिए स्वास्थ्य के साथ एक ज़रूरी तत्व है, इतना ज़रूरी की संयुक्त राष्ट्र मानता है की शिक्षा के बिना सभ्यताओं का विकास संभव नहीं है. पीढ़ी दर पीढ़ी भारत ने शिक्षा का विकास किया है. पहले सिर्फ एक विशेष वर्ग तक उपलब्ध शिक्षा को आम तक पहुचानाया गया, औरतों की शिक्षा पे जोर दिया गया और आज़ादी के बाद से अब तक हमने साक्षरता दर में 50% से ज्यादा की वृद्धि की है. यह एक कम बड़ी उपलब्धि नहीं है. लेकिन हाल के कुछ वर्षों में गुणवत्ता को देखे तो तस्वीर थोड़ी धुंधली सी दिखने लगती है. प्रथम गैर सरकारी संगठन (NGO) की ASER रिपोर्ट (एनुअल स्टेटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट) 2014 के मुताबिक कक्षा 3 के 75%, कक्षा पांच के 50% से अधिक, कक्षा 8 के 25% से अधिक छात्र कक्षा दो के स्तर की किताबें भी नहीं पढ़ पाते! और कक्षा 5 तक के सरकारी स्कूलों के छात्रों का किताब पढ़ पाने का स्तर 2010 से 2012 के बीच में बढ़ा नहीं घटा है! यह एक भयानक सच है जो हमारी पीढ़ियों पर, कर्मशील युवाओं की क्षमताओं पर, और हमारे विकास की कहानी पर असर डालने वाला है. अगर हम गौर से देखें तो इसे पीछे बहुत से कारण नज़र आते हैं.

पहला, शिक्षा पर हमारा बजट तो कम है ही. इसे बढाने की बातें हम लगभग दो दशक से कर रहे हैं लेकिन सरकारों ने इतना ध्यान नहीं दिया, शायद इसलिए भी की बच्चे राजनैतिक पार्टियों का वोट बैंक नहीं है इसलिए उन्हें हलके में लिया जा सकता है. और शायद इसलिए भी क्यूंकि आरक्षण और किसान आन्दोलनों जैसे हिंसात्मक मुद्दे लोगो और मीडिया दोनों का ज्यादा ध्यान खींचते हैं.

दूसरा, शिक्षकों की कमी है. कमतर शिक्षा गुणवत्ता और साक्षरता दर वाले राज्यों (मध्य प्रदेशम बिहार, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, राजस्थान) में ज़रूरत से 20% से 40% तक शिक्षक कम हैं. और उच्च कक्षाओं में तो अच्छे शिक्षकों की कमी और भी ज्यादा है.

तीसरा, राज्य सरकारों की लापरवाहियां. कुछ राज्य सरकारों (मध्य प्रदेश, बिहार) ने शिक्षकों को कम वेतन पर 'शिक्षाकर्मी' या 'संविदा शिक्षक' के रूप में भरती किया है. और ये वेतन इतना कम है की शिक्षक न तो शिक्षक होने का गौरव बचा पाते हैं न ढंग से इतनी कम वेतन में रह पाते हैं. कुछ तो दुसरे कार्यों में भी साथ में संलग्न हैं इसलिए उनकी शिक्षण क्षमता पर सीधा असर पढता है और उनकी स्कूलों ने अनुपस्थिति दिनों दिन बढती जा रही है.

चौथा कारण पालकों में जागरूकता की कमी है. एक तो ग्रामीण स्तर पर शिक्षा का महत्व कम ही लोगों को समझ आता है और दूसरा अगर स्कूल ढंग से नहीं चल रहे हैं तो उनमें इतनी जागरूकता नहीं है की वो इसकी शिकायतें लेकर उच्च अधिकारियों के पास जा पायें और अपनी बात रख पायें. अगर वो ऐसा करने में सक्षम होते तो शयद स्कूलों के हालात वो न होते जो हैं. उनमें पानी और शौचालय भी उपलब्ध होते, क्यूंकि सरकारें इनके लिए बजट का प्रावधान पहले से करती रही हैं.

पांचवा कारण हमारे सिलेबस की गुणवत्ता का है, विज्ञान को हिंदी में इतना क्लिष्ट लिखा गया है की बच्चों को समझ नहीं आती और रट्टा मारना ही उनके पास विकल्प बचता है. अंग्रेजी सरकारी स्कूलों में छठवीं से शुरू होती है. इतिहास और सामाजिक विज्ञान के तो क्या कहने. वे तो सरकारें बदलने के साथ ही लेफ्ट, राईट या सेंटर में झुक जाते हैं. फैक्ट तक बदल दिए जाते हैं. गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश बोर्ड की किताबें देख शायद आपको रोना ही आ जाए.

ऐसा मैं बिलकुल नहीं है कहूँगा कि सरकारों को सरकारी स्कूलों की हालत नहीं पता हैं या प्रयास नहीं किये गये हैं. लेकिन प्रयास निम्न स्तर से शुरू नहीं हए हैं. उदहारण शिक्षकों की उपस्थिति बढाने मध्य प्रदेश में तकनीक का सहारा लिया गया. लेकिन 'ऑनलाइन अटेंडेंस सिस्टम' पूरी तरह फ़ैल रहा क्यूंकि मुख्य मुद्दे -शिक्षकों की वेतन और शिक्षक की गुणवत्ता पे ध्यान ही नहीं दिया गया और फिर तकनीक शिक्षकों को उपस्थित होने पे मजबूर भी कर दे तो पढाने पे मजबूर नहीं कर पायेगी.

केंद्र ने टी एस आर सुभ्रमनियम समिति बनाई लेकिन एक साल से ज्यादा वक़्त से उसके सुझाये उपायों को अमल में लाना तो दूर उनकी और देखा भी नहीं गया और अब नई कस्तूरीरंगन समिति बनी हुई है. एक के ऊपर दूसरी समितियां बनाने से बेहतर था की जमीनी स्तर की समस्याओं पर ध्यान दिया जाता.

शिक्षकों की घोटाले रहित भर्ती, शिक्षकों की वार्षिक ट्रेनिंग, वार्षिक परीक्षा और समीक्षा के बाद रेटिंग के अनुसार उनकी पगार में इजाफा, सरकारी कर्मचारियों, राजनेताओं के बच्चों, पोतों को सरकारी स्कूलों में पढाने को बाध्यकारी बना शायद सरकारी शिक्षा के स्तर में बदलाव लाया जा सकता है. बहुत अच्चा परफोर्म कर रहे नवोदय स्कूल की संख्या बड़ा हर जिले में एक से अधिक कर देने से भी ग्रामीण शिक्षा का स्तर सुधरेगा.

अब वक़्त आ गया है की हमें मतलब- नागरिक एवं केंद्र, राज्य सरकारों को मिलकर शिक्षा की स्थिति की और ध्यान देना चाहिए. सिलेबस में सरकार बदलने के साथ हो रहे बदलावों को बंद कर, गुणवत्ता पे ध्यान देने की ज़रूरत है. शिक्षक और शिक्षण की और ध्यान देना ज़रूरी है. व्यवसायिक शिक्षा को भी स्कूल सस्तर पर अच्छे से शुरू करने की ज़रूरत है, नहीं तो आने वाली पीढ़ी सामाजिक-आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक रूप से पंगु रह जाएगी और मानव संसधन के उचित विकास के बिना 'मेड इन इंडिया', 'कौशल भारत'. 'उद्दमिता विकास' जैसे मिशन धरे के धरे रह जायेंगे.

Pic: A Govt School in MP. source- livemint

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