Friday, June 30, 2017

NITI Aayog Agri Action Formula and its Effects

इन दिनों शायद ही कोई दिन बीतता हो जब खेती पर गहराते संकट को लेकर कोई खबर न आती हो. उत्तर प्रदेश से लेकर तमिलनाडु तक देश के एक बड़े हिस्से में किसान परेशान हैं. महाराष्ट्र में पिछले दो हफ्ते के दौरान ही 42 किसान खुदकुशी कर चुके हैं. तमिलनाडु बीते 140 साल का सबसे बुरा सूखा झेल रहा है. वहां के किसानों ने कुछ समय पहले दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दिया था. जून की शुरुआत में मध्य प्रदेश में किसान आंदोलन उग्र हो गया था और पुलिस के साथ टकराव में छह किसानों की मौत हो गई थी. उसके बाद से राज्य से लगभग रोज ही किसानों की खुदकुशी की खबरें आ रही हैं. राजस्थान में भी किसान आक्रोशित हैं.
किसानों की समस्याओं को लेकर अलग-अलग संगठन सक्रिय हैं. इनमें भाजपा के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक (आरएसएस) की शाखा भारतीय किसान संघ भी शामिल है. इन संगठनों का आरोप है कि 2015 में योजना आयोग की जगह गठित सरकारी थिंक टैंक नीति आयोग किसान विरोधी है. हाल में आयोग द्वारा जारी तीन वर्षीय एक्शन प्लान को किसान विरोधी बताते हुए इन संगठनों ने केंद्र सरकार से मांग की है कि आयोग से सुझाव स्वीकार नहीं किए जाने चाहिए.
नीति आयोग का एक्शन प्लान
बीते अप्रैल में नीति आयोग ने तीन वर्षीय एक्शन प्लान जारी किया था. इसमें 2017-18 से 2019-20 तक के लिए कृषि और शिक्षा सहित अर्थव्यवस्था के कई अहम क्षेत्रों में सुधार की रूप-रेखा तैयार की गई है. आयोग के इस एक्शन प्लान में खेती पर ‘कृषि : किसानों की दोगुना आय’ नाम से एक अलग खंड है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अगले पांच वर्षों में किसानों की आय को दोगुना करने की बात कही है. केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने तो नौ जून को जयपुर में आयोजित एक कार्यक्रम में यहां तक कहा कि अगर 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी न हो जाए तो जनता भाजपा को ठोकर मार दे.
क्या वाकई 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी हो जाएगी? इन दिनों खेती के हालात देखें तो यह उम्मीद दूर की कौड़ी नजर आती है. कृषि मामलों के जानकार बताते हैं कि देश में कृषि संकट की स्थिति दिनों-दिन गंभीर होती जा रही है. दूसरी ओर, केंद्र सरकार और नीति आयोग इस संकट के मूल में जाने के बजाय इस क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं. जानकार नीति आयोग एक्शन प्लान पर सवाल उठाते हुए इसे ‘कृषि के निजीकरण’ का रोडमैप करार देते हैं.
नीति आयोग द्वारा तैयार किए गए तीन वर्षीय एक्शन में कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए कई नीतियों की पैरवी की गई है. इनमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को सीमित करना, अनुबंध वाली खेती (कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग) के साथ जीएम बीजों को बढ़ावा देना और इस क्षेत्र में निजी कंपनियों के सामने मौजूद बाधाओं को खत्म करने जैसे कदम शामिल हैं.
न्यूनतम समर्थन मूल्य का दायरा घटाना
2014 में केंद्र की सत्ता में आने से पहले भाजपा ने अपनी चुनावी घोषणापत्र में किसानों से उनकी फसल लागत से 50 फीसदी अधिक कीमत पर अनाज खरीदने का वादा किया था. इसकी सिफारिश साल 2004 में कृषि सुधार पर गठित एमएस स्वामीनाथन आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में की थी. कई राज्यों में किसानों के जो आंदोलन चल रहे हैं उनके तहत की जा रही मांगों की सूची में इस आयोग की सिफारिशों को लागू करना भी शामिल है.
उधर, अपने एक्शन प्लान में आयोग का मानना है कि एमएसपी की वजह से देश में फसल प्रणाली बिगड़ रही है. उसके मुताबिक किसान तिलहन और दलहन जैसी फसलों की तुलना में गेहूं, चावल और गन्ने की खेती पर अधिक ध्यान देते हैं क्योंकि इन तीनों फसलों के समर्थन मूल्य में औसतन ज्यादा बढ़ोतरी हो रही है. नीति आयोग के मुताबिक इन फसलों की अधिक खेती की वजह से पानी की उपलब्धता और जमीन की उर्वरता में कमी भी आ रही है.
हालांकि जानकारों की मानें तो जमीनी स्तर पर सच्चाई अलग है. उनके मुताबिक ऐसा नहीं है कि गेहूं, चावल और गन्ने को किसान दलहन और तिलहन पर प्राथमिकता दे रहा है. असल समस्या फसल का सही मूल्य मिलने की है. सरकार एमएसपी पर एक निश्चित मात्रा में ही खाद्यान्न या तिलहन की खरीद करती है. इसके बाद किसान को अपनी फसल बाजार में बेचनी पड़ती है जहां उसे सही दाम नहीं मिलता.
इस साल गेहूं के साथ तिलहन का भी बाजार मूल्य एमएसपी से कम रहा है. दालों की कीमत में भारी गिरावट से किसानों को नुकसान उठाना पड़ रहा है. यह गिरावट इसलिए आ रही है कि कारोबारी कम कीमतों पर दाल आयात कर रहे हैं. स्टॉक ज्यादा होने से कीमतें गिर रही हैं. यही वजह है कि किसान संगठनों ने सरकार से दालों और खाद्य तेलों के आयात पर कर बढ़ाने की मांग की है ताकि आयात को हतोत्साहित किया जा सके. लेकिन आयोग का एक्शन प्लान इस समस्या के बारे में कुछ भी नहीं कहता.
कुल मिलाकर नीति आयोग जहां एक ओर एमएसपी सीमित करने की बात कर रहा है, वहीं जमीनी हालात ये हैं कि सरकार द्वारा एमएसपी घोषित किए जाने के बावजूद किसानों को अपनी फसल की सही कीमत नहीं मिल पा रही. इसे राज्यों में ताजा किसान आंदोलन की एक बड़ी वजह माना जा रहा है. मध्य प्रदेश स्थित राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ के नेता शिव कुमार शर्मा एक वेबसाइट के साथ बातचीत में बताते हैं कि मंडियों में किसानों का अनाज सरकारी दर से 30-40 फीसदी कम पर बिक रहा है. इसके अलावा राज्य में सरकारी खरीद एजेंसी भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) ने गेहूं की खरीदारी तय लक्ष्य से पहले ही रोक दी थी. एफसीआई ने इसकी वजह खरीद सत्र की शुरुआत में किसानों द्वारा पंजीकरण नहीं कराना बताया. इसकी वजह से किसानों को प्रति क्विंटल 200 रुपए का नुकसान उठाकर गेहूं बाजार में बेचना पड़ा.
इस महीने किसान आंदोलन शुरू होने के बाद अकेले मध्य प्रदेश में करीब 30 किसान खुदकुशी कर चुके हैं. इस बीच, राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का कहना है कि खेती में अब मुनाफा नहीं है और यह अब जनसंख्या का बोझ नहीं सह सकती. उन्होंने साफ-साफ कहा कि उनकी इच्छा है कि कुछ लोग किसानी से उद्योग और सेवा क्षेत्र में आएं. माना जा रहा है कि इन परिस्थितियों में अगर केंद्र एमएसपी में सुधार की जगह इसे सीमित करता है तो किसानों के लिए आने वाले दिन और भी बुरे हो सकते हैं.
नई व्यवस्था
नीति आयोग ने अपने एक्शन प्लान में एमएसपी को सीमित करने के लिए ‘प्राइस डेफिशन्सी पेमेंट’ नाम की भुगतान की एक नई व्यवस्था लाने पर भी जोर दिया है. इसके तहत भंडारण के लिए तय लक्ष्य के बराबर ही एमएसपी पर अनाज खरीदने की बात कही गई है. इसके बाद किसानों के पास जो भी अनाज बाकी रहेगा उसकी बाजार कीमत एमएसपी से कम होने पर ही 10 फीसदी सब्सिडी देने का प्रस्ताव है. विश्व व्यापार संगठन ने भी फसल पर सब्सिडी की सीमा 10 फीसदी तय की है.
हालांकि इस सब्सिडी को हासिल करने की राह में भी पेंच हैं. इसके लिए किसानों को एग्रीकल्चरल प्रोड्यूज मार्केटिंग कमेटीज के पास अपनी फसल और खेत का रकबा दर्ज कराना होगा. ऐसा न करने पर वे इसके हकदार नहीं होंगे. वैसे नीति आयोग के इस विचार के उलट भारत सहित अन्य विकासशील देश अभी तक खाद्य सब्सिडी को सीमित करने के अमेरिका जैसे विकसित देशों के प्रस्ताव का विरोध करते रहे हैं.
निजी क्षेत्र पर जोर
खेती में किसानों की लागत का एक बड़ा हिस्सा बीज, उर्वरक, सिंचाई आदि पर खर्च होता है. पिछले कुछ दशकों के दौरान इन मदों में किसानों का खर्च बढ़ा है. निजी कंपनियों द्वारा विकसित बीज के लिए उर्वरक, सिंचाई, कीटनाशक पर अधिक लागत आती है. जानकारों का मानना है कि यह एक ऐसा चक्र है जिसमें एक बार फंसने के बाद किसान का बाहर निकलना आसान नहीं होता. विश्व के कई देशों में इस वक्त जहां जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है वहीं नीति आयोग ने एक्शन प्लान में इसका जिक्र तक नहीं किया गया है. इसके उलट आयोग ने बीज उत्पादन और वितरण क्षेत्र में निजी कंपनियों की भूमिका बढ़ाने की बात की है. इसके लिए कंपनियों के सामने कीमत नियंत्रण के रूप में मौजूद रूकावट को हटाने की भी पैरवी की गई है.
जेनिटकली मॉडिफाइड (जीएम) बीज को बढ़ावा
नीति आयोग ने जीएम बीज को उत्पादकता बढ़ाने वाला बताया है. साथ ही उसका कहना है कि इससे उर्वरक और कीटनाशक पर लागत में कमी आती है. आयोग ने इस बीज की पैरवी करते हुए यह भी कहा है कि इसकी स्वीकार्यता पूरे विश्वभर के किसानों में बढ़ रही है. इस पर उठ रहे सवालों और आपत्तियों को लेकर आयोग का कहना है कि इसका संबंध बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों से नहीं बल्कि, देशी कंपनियों और संगठनों से है. भारत में अभी तक केवल जीएम कपास को ही मान्यता दी गई है. इसके अलावा जीएम सरसों को मान्यता देने की प्रक्रिया चल रही है.
लेकिन 2012 में कृषि मामलों की संसद की स्थाई समिति ने अपनी 37वीं रिपोर्ट में आयोग के दावों के उलट बात कही थी. ‘कल्टीवेशन ऑफ जेनेटिक मॉडीफाइड फूड क्रॉप - प्रॉस्पेक्ट्स एंड इफेक्ट्स’ नाम की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि बीटी कॉटन अपनाने वाले किसानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है. इसके मुताबिक जीएम बीजों से खेती की लागत बढ़ने से किसानों पर कर्ज का बोझ बढ़ने की आशंका पैदा हो गई है. समिति ने अपनी रिपोर्ट में महाराष्ट्र के विदर्भ का हवाला देकर कहा है कि बीटी कपास से केवल बीज कंपनियों को फायदा हुआ.
अनुबंध कृषि पर जोर
सरकारी थिंक टैंक अपनी एक्शन प्लान में खेती में निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ाकर कृषि सुधार को गति देने की बात कर रहा है. इसके लिए आयोग ने अनुबंध कृषि की पैरवी की है और इसके लिए अलग से कानून बनाए जाने की बात कही है. अनुबंध कृषि के तहत किसानों के साथ एक समझौता किया जाएगा. खेती करने के लिए उन्हें आधुनिक तकनीक और तय कीमत सहित अन्य सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी. इसके बदले अनाज पर अधिकार निजी कंपनी का होगा.
कृषि मामलों के जानकार इस पर चिंता जताते हैं. उनके मुताबिक इससे किसान किसान ही नहीं रहेंगे. वे एक तय रकम और कुछ सुविधाओं के बदले खेतिहर मजदूर बन जाएंगे. इसके अलावा कंपनियों और किसानों के बीच किए गए समझौते में शामिल शर्तों, जैसे किसानों के लिए तय रकम का निर्धारण किस आधार पर होगा, पर भी काफी कुछ निर्भर करता है. एक वर्ग का मानना है कि भारत जैसे देश में जहां न्यायिक प्रक्रिया काफी समय लेने वाली और खर्चीली होती है, वहां कंपनियों द्वारा तय की गई शर्तों को किसानों द्वारा सही से समझना और फिर कुछ गलत होने पर इसके खिलाफ अदालत में दावा करना उनके लिए एक बड़ी चुनौती साबित हो सकता है.
Source: Satyagrah Hindi Website

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