वैसे तो लोकतंत्र में आम तौर पर न्यायिक व्यवस्था को सवालों से परे रखा जाता है। लेकिन जब सरकार और न्यायपालिका के टकराव से लोकतंत्र लखड़खड़ाने लगे तो सवाल पूछना लाजमी होता है। लोकतंत्र के हाशिए से भी बाहर किए गए इंसान को भी इसी तीसरे खंभे से उम्मीद होती है। अदालतों में जजों के पद खाली हैं और न्याय के मंदिर के बाहर इंसाफ पाने वाले लोगों की कभी न खत्म होती सी कतार खड़ी है। भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, लोगों की कमी से जूझती, जनता के बुनियादी अधिकारों के लिए सरकार से टकराती
या कभी-कभी सरकार के सामने समर्पण करती सी दिखती न्यायपालिका लोकतंत्र की अट्टालिका को कब तक संभाल पाएगी? न्यायिक नैतिकता के साथ किसी तरह का समझौता नहीं हो यही मांग करता इस बार का बेबाक बोल।
या कभी-कभी सरकार के सामने समर्पण करती सी दिखती न्यायपालिका लोकतंत्र की अट्टालिका को कब तक संभाल पाएगी? न्यायिक नैतिकता के साथ किसी तरह का समझौता नहीं हो यही मांग करता इस बार का बेबाक बोल।
दरअसल, यह मुद्दा उठा पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट से। हालांकि उससे पहले भी इस पर सुगबुगाहट होती रहती थी, लेकिन 2013 में पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट की कॉलिजियम ने जब आठ वरिष्ठ वकीलों को न्यायाधीश बनाने का प्रस्ताव भेजा तो वहां के वकीलों ने बगावत का सुर बुलंद कर दिया। यह माना जा रहा था कि जिन वरिष्ठ अधिवक्ताओं के नाम भेजे गए थे, वे न्यायाधीशों के नजदीकी या रिश्तेदार थे। आवाज जो बुलंद हुई, उसका भावार्थ यही था कि इस तरह एक ‘न्यायिक विरासत’ खड़ी की जा रही है, ‘परिवारवाद’ का विस्तार न्यायपालिका में किया जा रहा है। यह भी माना गया कि इससे न्यायिक प्रक्रिया की शुचिता, निष्पक्षता और सच्चाई पर सीधा असर पड़ता है और इसके साथ-साथ आपसी संघर्ष की स्थिति भी खड़ी होती है। यह सब महसूस करते हुए हाई कोर्ट के एक हजार वकीलों ने राष्टÑपति को एक ज्ञापन भेज कर अपना विरोध दर्ज कराया।
लोकतंत्र में आम तौर पर न्यायिक व्यवस्था को सवालों से परे रखा जाता है। लेकिन जब इसी व्यवस्था पर सवाल उठे तो उससे बवाल खड़ा होना ही था और हुआ भी। लेकिन उसका सीधा शिकार बनी मुवक्किलों और मुलजिमों की वह कतार जो हर तारीख पर अपने लिए इंसाफ की गुहार लिए इंसाफ के मंदिरों में उम्मीद के साथ पहुंचती थी। न्यायव्यवस्था पहले ही देश भर में न्यायाधीशों की घोर कमी से जूझ रही है। अपनी संख्या के लिए जूझती व्यवस्था के लिए यह करारी चोट थी कि देश भर में प्रस्तावित जजों की नियुक्तियां खटाई में पड़ गर्इं। सरकार ने कॉलिजियम की ओर से प्रस्तावित 77 नामों से 43 नाम लौटा दिए। स्वाभाविक तौर पर इससे तूफान उठना ही था। विज्ञान भवन में एक समारोह में देश के मुख्य न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर की तो आंखें भर आई थीं।
जजों की नियुक्ति में सरकार की प्रस्ताव वापसी को जाहिर तौर पर जजों ने अपनी अस्मिता पर चोट माना और सभी नियुक्तियों की सूची जस की तस सरकार के पास फिर भेज दी। अब नजरें सरकार के अगले कदम पर हैं। अभी तक तो इस मामले में सरकार टकराव के रास्ते पर ही दिखाई पड़ रही है। हालांकि, देश में इस समय ऐसी सरकार है जिसका रवैया अपने फैसलों के प्रति अपेक्षाकृत ज्यादा मजबूत दिखाई देता है। हालिया नोटबंदी से यह साबित भी है कि लोगों की तमाम परेशानियों के बाद भी सरकार अपने फैसले पर पुनर्विचार करती नहीं दिख रही है। यह स्थिति तब है, जब सुप्रीम कोर्ट भी यह आशंका जता चुका है कि इस मुद्दे पर दंगे भड़कने जैसी स्थिति पैदा हो सकती है।
हालांकि, यह भी सच है कि पिछले एक अरसे से न्यायिक सक्रियता के सवाल पर सरकारें विचलित रही हैं। दरअसल, किसी न किसी तरह से परेशानहाल और त्रस्त जनता को लगता है कि सरकार की ओर पैदा की गई उसकी दुश्वारियों से उनको लोकतंत्र का यह तीसरा सबसे मजबूत स्तंभ ही राहत दिला सकता है। ऐसी स्थिति अक्सर सामने आती भी रही है जब कई मसलों पर सरकारों को न्यायपालिका की लताड़ झेलनी पड़ी है और इसी वजह से सरकारें और खासतौर पर कई राजनीतिज्ञ परेशान दिखते हैं। हालांकि न्याय के मंदिर का डर ऐसा है कि अगर किसी के पास कोई शिकायत होती भी है तो खुल कर बोल नहीं पाता। एक मुद्दत से यह टकराव की स्थिति तो थी, लेकिन इसका आमोफहम में इजहारे-खयाल नहीं था। मौजूदा सरकार ने नियुक्तियों और उनकी प्रक्रिया को लेकर जो कदम उठाए, उससे संघर्ष की एक खराब स्थिति जरूर पैदा हो गई है।
इससे पहले न्यायिक व्यवस्था में कथित भाई-भतीजावाद पर आम तौर पर सिर्फ वरिष्ठ वकीलों को ही खुल कर बोलते देखा जाता था। बल्कि कई तो उसका मुखर विरोध भी करते थे। लेकिन सत्ताधीश सरकारों से कोई प्रत्यक्ष विरोध कभी नहीं होता था। इसका एक बड़ा कारण शायद यह भी है कि देश की न्याय व्यवस्था अमूमन ‘तंगी’ में ही रही है। ज्यादातर न्यायालयों में जजों की कमी है और इसी वजह से मुकदमों का निपटारा टलता ही रहता है। 2016 में लोकसभा में भी यह जानकारी सामने आ गई थी कि देश के सुप्रीम कोर्ट में जजों की 19 फीसद, उच्च न्यायालयों में 44 फीसद और निचली अदालतों में 25 फीसद कमी है। ये नियुक्तियां किसी न किसी वजह से टलती ही रहती हैं। सही है कि खाली हुए पदों को दुबारा भरने में भी समय लग जाता है। लेकिन आखिर कितना? और अगर आज यह एक समस्या की शक्ल में सामने है तो इसकी प्रक्रिया पर सभी मिल-बैठ कर कुछ नया रास्ता क्यों नहीं निकालते हैं?
जजों के खाली पदों का आलम यह है कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद हाई कोर्ट में जजों के अस्सी से भी ज्यादा पद खाली पड़े हैं, जबकि मद्रास और पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट में यह संख्या तीन दर्जन के आसपास है। निचली अदालतों में देखा जाए तो बिहार और गुजरात में 700 से भी ज्यादा पद रिक्त पड़े हैं, जबकि महाराष्टÑ में यह संख्या 400 के पार है। ये अनुमानित आंकड़े स्थिति की भयावहता को बयान करने के लिए काफी हैं। ऐसे में नियुक्तियों के लटकने से अदालती झमेले में उलझे लोगों की तकलीफ का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। क्या यह जरूरी नहीं कि इस स्थिति से फौरन निकलने की व्यवस्था हो?
देश में मुकदमों के निपटारे की गति और स्थिति बहुत बदतर है। हालांकि इसके कारणों की खोज करने वाले लोग मौजूदा न्यायिक व्यवस्था में भी कई कमियां निकाल देते हैं। मसलन, न्यायालयों में छुट्टियों को लेकर सदा विवाद रहा है। ये आंकड़े लगभग साफ हैं कि देश की सुप्रीम कोर्ट में साल में 193, उच्च न्यायालयों में 210 और निचली अदालतों में 245 छुट्टियां होती हैं। अगर हम भूमंडलीकरण के इस दौर में इसकी तुलना विदेशों से करें तो अमेरिका की अदालतों में कोई ग्रीष्म अवकाश नहीं होता। यूरोप में लंबी छुट्टी नहीं होती। इंग्लैंड और कनाडा में महज 24 और 11 दिन की छुट्टी होती है।
देश की अदालतों में लंबित पड़े मामलों की भरमार है। न्यायपालिका इसका कारण जजों की कमी तो दूसरा पक्ष उसका बड़ा कारण छुट्टियों को ठहराता है। दोनों के अपने तर्क हैं। लेकिन यह सच है कि इसका शिकार आखिरकार आम आदमी ही बनता है। इस हालत से निपटने के लिए अगर हम समाधान तलाशने की कोशिश करें तो यह तय है कि फौरी नियुक्तियों के अलावा अवकाश के कुल दिनों की व्यवस्था पर भी पुनर्विचार हो। इतना ही नहीं, हमारी अदालतों में अभी भी पुरानी तकनीक के सहारे ही काम चल रहा है। ऐसे में अदालतों के आधुनिकीकरण पर भी फौरन कदम उठाए जाने जरूरी हैं। इस दिशा में काफी प्रयास हुआ है, लेकिन उसमें और भी हो सकने की संभावना है। देश में अदालतों की संख्या भी बढ़ाई जा सकती है।
बहरहाल, बड़ा मसला इस समय सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव का है। देश के लोकतंत्र पर इस समय पूरे विश्व की नजर टिकी है और उसकी सेहत के लिए यह जरूरी है कि अगर मत-भिन्नता ने गतिरोध की शक्ल अख्तियार कर ली है तो इसे तुरंत तोड़ा जाए। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव विश्व भर में इसकी छवि को धूमिल ही करेगा। सरकार अगर चाहती है कि जजों की नियुक्तियों की व्यवस्था में उसके मुताबिक कुछ सुधार हो तो उसे न्यायपालिका को विश्वास में लेकर ही इस दिशा में प्रयास करना चाहिए था। अभी भी उसमें सद्भाव से कोई रास्ता ढूंढ़ा जा सकता है। यों भी, बदलाव एक मुकम्मल प्रक्रिया से होकर गुजरे तभी कामयाब होता है। आनन-फानन में सब कुछ बदल देने का दावा कई बार बचे-खुचे को भी बिगाड़ देता है।
सरकार एक बार नियुक्तियां लौटा चुकी है। दोबारा लौटाना क्या न्यायपालिका की सर्वोच्चता पर सवाल नहीं होगा? समय आ गया है कि इस पर अब और बवाल न हो और ‘मेमोरेंडम आॅफ प्रोसीजर’ पर आम सहमति बना कर इस मुद्दे का पटाक्षेप किया जाए, क्योंकि मौजूदा गतिरोध का प्रभाव जनसाधारण पर अच्छा तो कतई नहीं है। यह न तो हमारी न्यायपालिका और न ही सरकार के लिए कोई सकारात्मक स्थिति है। एक ऐसा आभास आ रहा है कि जैसे सरकार और न्यायपालिका में जबर्दस्त तकरार और संघर्ष का वातावरण है। देश और दुनिया को इंसाफ देने वाले मंदिर से अगर ऐसा आभास आए कि जैसे खुद उनको ही अपने साथ नाइंसाफी महसूस हो रही है तो लोकतंत्र के लिए यह कोई गर्व की बात तो कतई नहीं। लिहाजा इंसाफ हो!
लोकतंत्र में आम तौर पर न्यायिक व्यवस्था को सवालों से परे रखा जाता है। लेकिन जब इसी व्यवस्था पर सवाल उठे तो उससे बवाल खड़ा होना ही था और हुआ भी। लेकिन उसका सीधा शिकार बनी मुवक्किलों और मुलजिमों की वह कतार जो हर तारीख पर अपने लिए इंसाफ की गुहार लिए इंसाफ के मंदिरों में उम्मीद के साथ पहुंचती थी। न्यायव्यवस्था पहले ही देश भर में न्यायाधीशों की घोर कमी से जूझ रही है। अपनी संख्या के लिए जूझती व्यवस्था के लिए यह करारी चोट थी कि देश भर में प्रस्तावित जजों की नियुक्तियां खटाई में पड़ गर्इं। सरकार ने कॉलिजियम की ओर से प्रस्तावित 77 नामों से 43 नाम लौटा दिए। स्वाभाविक तौर पर इससे तूफान उठना ही था। विज्ञान भवन में एक समारोह में देश के मुख्य न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर की तो आंखें भर आई थीं।
जजों की नियुक्ति में सरकार की प्रस्ताव वापसी को जाहिर तौर पर जजों ने अपनी अस्मिता पर चोट माना और सभी नियुक्तियों की सूची जस की तस सरकार के पास फिर भेज दी। अब नजरें सरकार के अगले कदम पर हैं। अभी तक तो इस मामले में सरकार टकराव के रास्ते पर ही दिखाई पड़ रही है। हालांकि, देश में इस समय ऐसी सरकार है जिसका रवैया अपने फैसलों के प्रति अपेक्षाकृत ज्यादा मजबूत दिखाई देता है। हालिया नोटबंदी से यह साबित भी है कि लोगों की तमाम परेशानियों के बाद भी सरकार अपने फैसले पर पुनर्विचार करती नहीं दिख रही है। यह स्थिति तब है, जब सुप्रीम कोर्ट भी यह आशंका जता चुका है कि इस मुद्दे पर दंगे भड़कने जैसी स्थिति पैदा हो सकती है।
हालांकि, यह भी सच है कि पिछले एक अरसे से न्यायिक सक्रियता के सवाल पर सरकारें विचलित रही हैं। दरअसल, किसी न किसी तरह से परेशानहाल और त्रस्त जनता को लगता है कि सरकार की ओर पैदा की गई उसकी दुश्वारियों से उनको लोकतंत्र का यह तीसरा सबसे मजबूत स्तंभ ही राहत दिला सकता है। ऐसी स्थिति अक्सर सामने आती भी रही है जब कई मसलों पर सरकारों को न्यायपालिका की लताड़ झेलनी पड़ी है और इसी वजह से सरकारें और खासतौर पर कई राजनीतिज्ञ परेशान दिखते हैं। हालांकि न्याय के मंदिर का डर ऐसा है कि अगर किसी के पास कोई शिकायत होती भी है तो खुल कर बोल नहीं पाता। एक मुद्दत से यह टकराव की स्थिति तो थी, लेकिन इसका आमोफहम में इजहारे-खयाल नहीं था। मौजूदा सरकार ने नियुक्तियों और उनकी प्रक्रिया को लेकर जो कदम उठाए, उससे संघर्ष की एक खराब स्थिति जरूर पैदा हो गई है।
इससे पहले न्यायिक व्यवस्था में कथित भाई-भतीजावाद पर आम तौर पर सिर्फ वरिष्ठ वकीलों को ही खुल कर बोलते देखा जाता था। बल्कि कई तो उसका मुखर विरोध भी करते थे। लेकिन सत्ताधीश सरकारों से कोई प्रत्यक्ष विरोध कभी नहीं होता था। इसका एक बड़ा कारण शायद यह भी है कि देश की न्याय व्यवस्था अमूमन ‘तंगी’ में ही रही है। ज्यादातर न्यायालयों में जजों की कमी है और इसी वजह से मुकदमों का निपटारा टलता ही रहता है। 2016 में लोकसभा में भी यह जानकारी सामने आ गई थी कि देश के सुप्रीम कोर्ट में जजों की 19 फीसद, उच्च न्यायालयों में 44 फीसद और निचली अदालतों में 25 फीसद कमी है। ये नियुक्तियां किसी न किसी वजह से टलती ही रहती हैं। सही है कि खाली हुए पदों को दुबारा भरने में भी समय लग जाता है। लेकिन आखिर कितना? और अगर आज यह एक समस्या की शक्ल में सामने है तो इसकी प्रक्रिया पर सभी मिल-बैठ कर कुछ नया रास्ता क्यों नहीं निकालते हैं?
जजों के खाली पदों का आलम यह है कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद हाई कोर्ट में जजों के अस्सी से भी ज्यादा पद खाली पड़े हैं, जबकि मद्रास और पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट में यह संख्या तीन दर्जन के आसपास है। निचली अदालतों में देखा जाए तो बिहार और गुजरात में 700 से भी ज्यादा पद रिक्त पड़े हैं, जबकि महाराष्टÑ में यह संख्या 400 के पार है। ये अनुमानित आंकड़े स्थिति की भयावहता को बयान करने के लिए काफी हैं। ऐसे में नियुक्तियों के लटकने से अदालती झमेले में उलझे लोगों की तकलीफ का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। क्या यह जरूरी नहीं कि इस स्थिति से फौरन निकलने की व्यवस्था हो?
देश में मुकदमों के निपटारे की गति और स्थिति बहुत बदतर है। हालांकि इसके कारणों की खोज करने वाले लोग मौजूदा न्यायिक व्यवस्था में भी कई कमियां निकाल देते हैं। मसलन, न्यायालयों में छुट्टियों को लेकर सदा विवाद रहा है। ये आंकड़े लगभग साफ हैं कि देश की सुप्रीम कोर्ट में साल में 193, उच्च न्यायालयों में 210 और निचली अदालतों में 245 छुट्टियां होती हैं। अगर हम भूमंडलीकरण के इस दौर में इसकी तुलना विदेशों से करें तो अमेरिका की अदालतों में कोई ग्रीष्म अवकाश नहीं होता। यूरोप में लंबी छुट्टी नहीं होती। इंग्लैंड और कनाडा में महज 24 और 11 दिन की छुट्टी होती है।
देश की अदालतों में लंबित पड़े मामलों की भरमार है। न्यायपालिका इसका कारण जजों की कमी तो दूसरा पक्ष उसका बड़ा कारण छुट्टियों को ठहराता है। दोनों के अपने तर्क हैं। लेकिन यह सच है कि इसका शिकार आखिरकार आम आदमी ही बनता है। इस हालत से निपटने के लिए अगर हम समाधान तलाशने की कोशिश करें तो यह तय है कि फौरी नियुक्तियों के अलावा अवकाश के कुल दिनों की व्यवस्था पर भी पुनर्विचार हो। इतना ही नहीं, हमारी अदालतों में अभी भी पुरानी तकनीक के सहारे ही काम चल रहा है। ऐसे में अदालतों के आधुनिकीकरण पर भी फौरन कदम उठाए जाने जरूरी हैं। इस दिशा में काफी प्रयास हुआ है, लेकिन उसमें और भी हो सकने की संभावना है। देश में अदालतों की संख्या भी बढ़ाई जा सकती है।
बहरहाल, बड़ा मसला इस समय सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव का है। देश के लोकतंत्र पर इस समय पूरे विश्व की नजर टिकी है और उसकी सेहत के लिए यह जरूरी है कि अगर मत-भिन्नता ने गतिरोध की शक्ल अख्तियार कर ली है तो इसे तुरंत तोड़ा जाए। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव विश्व भर में इसकी छवि को धूमिल ही करेगा। सरकार अगर चाहती है कि जजों की नियुक्तियों की व्यवस्था में उसके मुताबिक कुछ सुधार हो तो उसे न्यायपालिका को विश्वास में लेकर ही इस दिशा में प्रयास करना चाहिए था। अभी भी उसमें सद्भाव से कोई रास्ता ढूंढ़ा जा सकता है। यों भी, बदलाव एक मुकम्मल प्रक्रिया से होकर गुजरे तभी कामयाब होता है। आनन-फानन में सब कुछ बदल देने का दावा कई बार बचे-खुचे को भी बिगाड़ देता है।
सरकार एक बार नियुक्तियां लौटा चुकी है। दोबारा लौटाना क्या न्यायपालिका की सर्वोच्चता पर सवाल नहीं होगा? समय आ गया है कि इस पर अब और बवाल न हो और ‘मेमोरेंडम आॅफ प्रोसीजर’ पर आम सहमति बना कर इस मुद्दे का पटाक्षेप किया जाए, क्योंकि मौजूदा गतिरोध का प्रभाव जनसाधारण पर अच्छा तो कतई नहीं है। यह न तो हमारी न्यायपालिका और न ही सरकार के लिए कोई सकारात्मक स्थिति है। एक ऐसा आभास आ रहा है कि जैसे सरकार और न्यायपालिका में जबर्दस्त तकरार और संघर्ष का वातावरण है। देश और दुनिया को इंसाफ देने वाले मंदिर से अगर ऐसा आभास आए कि जैसे खुद उनको ही अपने साथ नाइंसाफी महसूस हो रही है तो लोकतंत्र के लिए यह कोई गर्व की बात तो कतई नहीं। लिहाजा इंसाफ हो!
कॉलिजियम प्रणाली
जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण की यह व्यवस्था सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के आधार पर बनी है। न तो इसके लिए संसद में कोई कानून बना और न ही संविधान में प्रावधान है। कॉलिजियम के प्रमुख सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश होते हैं, जिसमें चार सदस्य सबसे वरिष्ठ जज होते हैं। हाई कोर्ट के कॉलेजियम का नेतृत्व वहां के चीफ जस्टिस करते हैं। हाई कोर्ट संस्तुति सुप्रीम कोर्ट कॉलिजियम को भेजता है। वहां से सरकार को नियुक्ति की सिफारिश जाती है।
एनजेएसी
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार जब भी सत्ता में आई, कॉलिजियम प्रणाली को ‘नेशनल जूडीशियल अप्वाइंटमेंट कमीशन’ से बदलने की कोशिश की। 1998-2003 में राजग-1 सरकार ने जस्टिस एमएन वेंकटचेलैया कमिटी गठित की, जिसने एनजेएसी का विकल्प सुझाया। इसके तहत छह लोगों की कमेटी का प्रस्ताव है। इसमें सुप्रीम कोर्ट के तीन वरिष्ठ जज, विधि मंत्री और दो ऐसे लोग होंगे, जिन्हें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश की कमेटी मिलकर चुनेगी। इसका मुख्यालय कानून मंत्रालय में होगा। इस कमेटी के कोई दो सदस्य अगर वीटो कर दें तो फैसला रद्द हो जाएगा। पिछले साल पांच जजों के संविधान पीठ ने एनजेएसी को असंवैधानिक ठहराते हुए इसके लिए किया गया संविधान संशोधन रद्द कर दिया। चार के मुकाबले एक के बहुमत से फैसला दिया कि कॉलिजियम प्रणाली बनी रहे।
मेमोरेंडम आॅफ प्रॉसीजर (एमओपी)
वर्ष 2015 में संविधान पीठ ने एमओपी ड्राफ्ट करने के लिए सरकार से कहा, जिससे नियुक्ति संबंधी पात्रता और पारदर्शिता की गारंटी बने। भारत के मुख्य न्यायाधीश से सलाह लेकर इसे तैयार करना है। लेकिन कई मसलों पर सरकार और न्यायपालिका के बीच सहमति नहीं बन पा रही है। इस कारण एमओपी का स्वरूप तैयार नहीं हो पाया है। एमओपी के अभाव में सरकार जजों की नियुक्ति प्रक्रिया पर धीमे चल रही है।
जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण की यह व्यवस्था सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के आधार पर बनी है। न तो इसके लिए संसद में कोई कानून बना और न ही संविधान में प्रावधान है। कॉलिजियम के प्रमुख सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश होते हैं, जिसमें चार सदस्य सबसे वरिष्ठ जज होते हैं। हाई कोर्ट के कॉलेजियम का नेतृत्व वहां के चीफ जस्टिस करते हैं। हाई कोर्ट संस्तुति सुप्रीम कोर्ट कॉलिजियम को भेजता है। वहां से सरकार को नियुक्ति की सिफारिश जाती है।
एनजेएसी
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार जब भी सत्ता में आई, कॉलिजियम प्रणाली को ‘नेशनल जूडीशियल अप्वाइंटमेंट कमीशन’ से बदलने की कोशिश की। 1998-2003 में राजग-1 सरकार ने जस्टिस एमएन वेंकटचेलैया कमिटी गठित की, जिसने एनजेएसी का विकल्प सुझाया। इसके तहत छह लोगों की कमेटी का प्रस्ताव है। इसमें सुप्रीम कोर्ट के तीन वरिष्ठ जज, विधि मंत्री और दो ऐसे लोग होंगे, जिन्हें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश की कमेटी मिलकर चुनेगी। इसका मुख्यालय कानून मंत्रालय में होगा। इस कमेटी के कोई दो सदस्य अगर वीटो कर दें तो फैसला रद्द हो जाएगा। पिछले साल पांच जजों के संविधान पीठ ने एनजेएसी को असंवैधानिक ठहराते हुए इसके लिए किया गया संविधान संशोधन रद्द कर दिया। चार के मुकाबले एक के बहुमत से फैसला दिया कि कॉलिजियम प्रणाली बनी रहे।
मेमोरेंडम आॅफ प्रॉसीजर (एमओपी)
वर्ष 2015 में संविधान पीठ ने एमओपी ड्राफ्ट करने के लिए सरकार से कहा, जिससे नियुक्ति संबंधी पात्रता और पारदर्शिता की गारंटी बने। भारत के मुख्य न्यायाधीश से सलाह लेकर इसे तैयार करना है। लेकिन कई मसलों पर सरकार और न्यायपालिका के बीच सहमति नहीं बन पा रही है। इस कारण एमओपी का स्वरूप तैयार नहीं हो पाया है। एमओपी के अभाव में सरकार जजों की नियुक्ति प्रक्रिया पर धीमे चल रही है।
http://www.jansatta.com/editors-pick/speed-%E2%80%8B%E2%80%8Bof-justice-is-justice/193344/
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