Saturday, December 10, 2016

आवारा नज़्म में 'मजाज़'

 रात हंस-हंसकर ये कहती है कि मैख़ाने में चल
 फिर किसी शहनाज़े-लालारुख़ के काशाने में चल
 ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल

 इक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब (चांद)
 जैसे मुल्ला का अमामा(पगड़ी)जैसे बनिए की किताब
 जैसे मुफलिस की जवानीजैसे बेवा (विधवा) का शबाब
 ऐ ग़मे दिल क्या करूंऐ वहशते दिल क्या करूं

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