रात हंस-हंसकर ये कहती है कि मैख़ाने में चल
फिर किसी शहनाज़े-लालारुख़ के काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल
इक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब (चांद)
जैसे मुल्ला का अमामा(पगड़ी), जैसे बनिए की किताब
जैसे मुफलिस की जवानी, जैसे बेवा (विधवा) का शबाब
ऐ ग़मे दिल क्या करूं, ऐ वहशते दिल क्या करूं?
No comments:
Post a Comment