Monday, January 22, 2018

धूमिल की कवितायेँ

सार्वजनिक ज़िन्दगी

मैं होटल के तौलिया की तरह
सार्वजनिक हो गया हूँ
क्या ख़ूब, खाओ और पोंछो,
ज़रा सोचो,
यह भी क्या ज़िन्दगी है
जो हमेशा दूसरों के जूठ से गीली रहती है।
कटे हुए पंजे की तरह घूमते हैं अधनंगे बच्चे
गलियों में गोलियाँ खेलते हैं
मगर अव्वल यह कि
देश के नक़्शे की लकीरें इन पर निर्भर हैं
और दोयम यह कि
न सही मुझसे सही आदमी होने की उम्मीद
मगर आज़ादी ने मुझे यह तो सिखलाया है
कि इश्तहार कहाँ चिपकाना है
और पेशाब कहाँ करना है
और इसी तरह ख़ाली हाथ
वक़्त-बेवक़्त मतदान करते हुए
हारे हुओं को हींकते हुए
सफलों का सम्मान करते हुए
मुझे एक जनतान्त्रिक मौत मरना है।

---

कुछ सूचनाएं

सबसे अधिक हत्याएँ
समन्वयवादियों ने की।
दार्शनिकों ने
सबसे अधिक ज़ेवर खरीदा।
भीड़ ने कल बहुत पीटा
उस आदमी को 
जिस का मुख ईसा से मिलता था।

वह कोई और महीना था।
जब प्रत्येक टहनी पर फूल खिलता था,
किंतु इस बार तो 
मौसम बिना बरसे ही चला गया
न कहीं घटा घिरी
न बूँद गिरी
फिर भी लोगों में टी.बी. के कीटाणु
कई प्रतिशत बढ़ गए

कई बौखलाए हुए मेंढक
कुएँ की काई लगी दीवाल पर
चढ़ गए,
और सूरज को धिक्कारने लगे
--व्यर्थ ही प्रकाश की बड़ाई में बकता है
सूरज कितना मजबूर है
कि हर चीज़ पर एक सा चमकता है।

हवा बुदबुदाती है
बात कई पर्तों से आती है—
एक बहुत बारीक पीला कीड़ा
आकाश छू रहा था,
और युवक मीठे जुलाब की गोलियाँ खा कर
शौचालयों के सामने 
पँक्तिबद्ध खड़े हैं।

आँखों में ज्योति के बच्चे मर गए हैं
लोग खोई हुई आवाज़ों में 
एक दूसरे की सेहत पूछते हैं
और बेहद डर गए हैं।

सब के सब 
रोशनी की आँच से
कुछ ऐसे बचते हैं
कि सूरज को पानी से 
रचते हैं।

बुद्ध की आँख से खून चू रहा था
नगर के मुख्य चौरस्ते पर
शोकप्रस्ताव पारित हुए,
हिजड़ो ने भाषण दिए
लिंग-बोध पर,
वेश्याओं ने कविताएँ पढ़ीं
आत्म-शोध पर
प्रेम में असफल छात्राएँ
अध्यापिकाएँ बन गई हैं
और रिटायर्ड बूढ़े
सर्वोदयी-
आदमी की सबसे अच्छी नस्ल
युद्धों में नष्ट हो गई,
देश का सबसे अच्छा स्वास्थ्य
विद्यालयों में 
संक्रामक रोगों से ग्रस्त है

(मैंने राष्ट्र के कर्णधारों को
सड़को पर
किश्तियों की खोज में
भटकते हुए देखा है)

संघर्ष की मुद्रा में घायल पुरुषार्थ
भीतर ही भीतर
एक निःशब्द विस्फोट से त्रस्त है

पिकनिक से लौटी हुई लड़कियाँ
प्रेम-गीतों से गरारे करती हैं
सबसे अच्छे मस्तिष्क,
आरामकुर्सी पर 
चित्त पड़े हैं।

---
लोहे का स्वाद 

शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह 
लोहे की आवाज़ है या 
मिट्टी में गिरे हुए ख़ून 
का रंग। 

लोहे का स्वाद 
लोहार से मत पूछो 
घोड़े से पूछो 
जिसके मुंह में लगाम है।

---

किस्सा जनतंत्र

करछुल...
बटलोही से बतियाती है और चिमटा
तवे से मचलता है
चूल्हा कुछ नहीं बोलता
चुपचाप जलता है और जलता रहता है

औरत...
गवें गवें उठती है...गगरी में
हाथ डालती है
फिर एक पोटली खोलती है।
उसे कठवत में झाड़ती है
लेकिन कठवत का पेट भरता ही नहीं
पतरमुही (पैथन तक नहीं छोड़ती)
सरर फरर बोलती है और बोलती रहती है

बच्चे आँगन में...
आंगड़बांगड़ खेलते हैं
घोड़ा-हाथी खेलते हैं
चोर-साव खेलते हैं
राजा-रानी खेलते हैं और खेलते रहते हैं
चौके में खोई हुई औरत के हाथ
कुछ नहीं देखते
वे केवल रोटी बेलते हैं और बेलते रहते हैं

एक छोटा-सा जोड़-भाग
गश खाती हुई आग के साथ
चलता है और चलता रहता है
बड़कू को एक
छोटकू को आधा
परबती... बालकिशुन आधे में आधा
कुछ रोटी छै
और तभी मुँह दुब्बर
दरबे में आता है... 'खाना तैयार है?'
उसके आगे थाली आती है
कुल रोटी तीन
खाने से पहले मुँह दुब्बर
पेटभर
पानी पीता है और लजाता है
कुल रोटी तीन
पहले उसे थाली खाती है
फिर वह रोटी खाता है

और अब...
पौने दस बजे हैं...
कमरे में हर चीज़
एक रटी हुई रोज़मर्रा धुन
दुहराने लगती है
वक्त घड़ी से निकल कर
अंगुली पर आ जाता है और जूता
पैरों में, एक दंत टूटी कंघी
बालों में गाने लगती है

दो आँखें दरवाज़ा खोलती हैं
दो बच्चे टा टा कहते हैं
एक फटेहाल क्लफ कालर...
टाँगों में अकड़ भरता है
और खटर पटर एक ढड्ढा साइकिल
लगभग भागते हुए चेहरे के साथ
दफ्तर जाने लगती है
सहसा चौरस्ते पर जली लाल बत्ती जब
एक दर्द हौले से हिरदै को हूल गया
'ऐसी क्या हड़बड़ी कि जल्दी में पत्नी को चूमना...
देखो, फिर भूल गया।

गोरख पांडेय की कवितायेँ

वे डरते हैं
किस चीज़ से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद ?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और ग़रीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे ।

--
ये आँखें हैं तुम्हारी 
तकलीफ़ का उमड़ता हुआ समुन्दर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिये.

---
समय का पहिया चले रे साथी 
समय का पहिया चले 
फ़ौलादी घोंड़ों की गति से आग बरफ़ में जले रे साथी
समय का पहिया चले
रात और दिन पल पल छिन 
आगे बढ़ता जाय
तोड़ पुराना नये सिरे से 
सब कुछ गढ़ता जाय
पर्वत पर्वत धारा फूटे लोहा मोम सा गले रे साथी
समय का पहिया चले
उठा आदमी जब जंगल से 
अपना सीना ताने
रफ़्तारों को मुट्ठी में कर 
पहिया लगा घुमाने
मेहनत के हाथों से 
आज़ादी की सड़के ढले रे साथी
समय का पहिया चले 

---
हत्या की ख़बर फैली हुई है
अख़बार पर,
पंजाब में हत्या
हत्या बिहार में
लंका में हत्या
लीबिया में हत्या
बीसवीं सदी हत्या से होकर जा रही है
अपने अंत की ओर
इक्कीसवीं सदी
की सुबह
क्या होगा अख़बार पर ?
ख़ून के धब्बे
या कबूतर
क्या होगा
उन अगले सौ सालों की
शुरुआत पर
लिखा ?



Saturday, January 20, 2018

अनूठे आत्मबल और खेलभावना का उदाहरण



ऊपर फोटो में आप जिस व्यक्ति को देख रहे हैं उसका नाम है वेंडरली कोर्डेरियो दे लीमा (Vanderlei Cordeiro de Lima)

किस्सा यह है कि वह 2004 के समर ऑलंपिक की मैराथन दौड़ में सबसे आगे था. जिस गति से वह दौड़ रहा था, उसे स्वर्ण पदक मिलने में कोई भी संशय नहीं था. ऐसा मौका जीवन में बस एक बार ही मिलता है. यह जीत उसके लिए और उसके परिवार और देश के लिए बहुत बड़ी जीत होती.
वह फिनिशिंग लाइन पर पहुंचनेवाला ही था कि दर्शकों में से एक व्यक्ति ने उसके सामने आकर उसका रास्ता रोक दिया. उस व्यक्ति ने हजारों लोगों के सामने इरादतन उसपर हमला जैसा किया और वेंडरली के दौड़ने की गति में अवरोध हो गया.
वह छोटी सी कुछ सेकंड के भीतर घटी घटना वेंडरली का ध्यान भंग करने के लिए पर्याप्त थी. वेंडरली की मेंटल और फ़िज़िकल रिदम टूट गई. लंबी दूरी के धावकों के लिए अपनी लय को बनाए रखना बहुत ज़रूरी होता है.
इस दौरान उसके पीछे दौड़ रहे दो धावक उससे आगे निकल गए. वेंडरली ने दौड़ना जारी रखते हुए तीसरे स्थान पर रेस फिनिश की और कांस्य पदक प्राप्त किया.
इस घटना में अनूठी बात यह थी कि फिनिशिग लाइन पार करते वक्त वेंडरली के चेहरे पर मुस्कुराहट थी जबकि कुछ पल पहले ही उसके साथ भाग्य ने कितना भद्दा मजाक किया था. इस धावक का ऑलंपिक स्वर्ण पदक पलक झपकते ही उसके हाथ से फिसल गया था.
सोचकर देखिए कि आपने अपनी पूरी प्रोफेशनल ज़िंदगी एक सपने को पूरा करने के लिए कठोर-से-कठोर परिश्रम करते हुए बिता दी हो लेकिन वह सपना मंजिल के इतनी करीब जाकर इस तरह से टूट जाए. उस दिन वेंडरली को स्वर्ण पदक मिलने पर उसका नाम इतिहास की किताबों में दर्ज हो जाता, उसे मिलनेवाली खुशी और संतुष्टि का तो खैर हिसाब ही नहीं.
मंजिल के इतना करीब पहुंचने के बाद भी इस तरह से वंचित कर दिया जाना नियकि का बहुत ही  क्रूर और बेहूदा मजाक है. हम यही सोचते रह जाते हैं कि क्या होने जा था और क्या हो गया.
हो सकता है कि इस घटना के होने पर वेंडरली अपनी दौड़ रोक देता. वह उस व्यक्ति पर बुरी तरह से क्रोधित होते हुए उसे मार-पीट भी सकता था. वह ऑलंपिक के अधिकारियों के सामने अपने साथ घटी घटना का हवाला देकर शिकायत भी कर सकता था.
लेकिन वह संभला, दौड़ा, और उसने रेस को फिनिश किया.
इतना सब हो जाने पर भी वेंडरली के होठों पर क्रोध या अपमान के शब्द नहीं थे. उसकी दौड़ को रोक देने के दोषी व्यक्ति को उसने यूं ही जाने दिया.
उसे पीछे छोड़नेवाले धावक को स्वर्ण पदक जीतने पर ग्लानि हुए और उसने अपना मेडल वेंडरली को देने का ऑफ़र किया. इसपर वेंडरली ने कहा, “मैं अपने मेडल से खुश हूं. यह कांसे का है लेकिन मेरे लिए सोने के समान है.”
अनूठी सदाशयता, आत्म-सम्मान और खेलभावना दिखाने के लिए वेंडरली की चहुंओर सराहना की गई. उसे कई पुरस्कार मिले. उसने ही 2016 के रियो ऑलंपिक की मशाल प्रज्वलित की.
ऑलंपिक की मैराथन दौड़ में दौड़ना और उसमें अव्वल आने के लिए अटूट अनुशासन और आत्मबल चाहिए जो वेंडरली में कम न था. जो बात उसे सबसे अलग बनाती है वह यह है कि उसके अनुशासन और आत्मबल ने उसे इतना ताकतवर बनाया कि वह अपने साथ घटी दुर्भाग्यपूर्ण घटना को दरकिनार करके भी अव्वल आया. उसे अपने जीवन से कोई शिकायत नहीं है.
उस घटना के घटने के 14 साल बाद लोग यह भूल गए हैं कि उस दिन गोल्ड और सिल्वर मेडल जीतनेवाले कौन थे. लोगों आज भी उस दिन के ब्रॉंज मेडल विजेता को याद करते हैं.
ऐसा व्यक्ति वाकई महान कहलाने का अधिकारी होता है.
Source: https://hindizen.com/2018/01/19/immense-willpower-and-discipline/

Have You Met You

खुद से मिले हो कभी?
Appreciate किया है खुद को कभी?
जाना है?
आईने से बाहर अपनी शक्ल पहचानते हो?
खुद को जानते हो?

जितना सोचा दुनिया को
उसका थोडा भी खुद को सोचा?
किस-किस की आँखों से खुद को देखा
खुद की आँखों से खुद को देखा?

कितनी आग है
कौन सा दरिया है 
हवाएं, साए, परछाईयाँ 
जमीं, धूल, रुबाईयाँ
थक कर रूह बोली 
ठहरो! खुद से तो मिल लूँ.

हेव यू मेट यू?

Monday, January 15, 2018

गुलज़ार

गुलज़ार मुझे सर्दियों के सुबह पार्क में नंगे पैर शोव्ल ओढ़े टहलने में सबसे ज्यादा याद आते हैं. कुछ खोना और उसकी कसक किसी ठंढे पल में महसूस  करना... उन्ही की कुछ नज्में...




१.
ठीक से याद नहीं...


ठीक से याद नहीं, 
फ़्रांस में "बोर्दो" के पास कहीं 
थोड़ी-सी देर रुके थे.
छोटे से कसबे में, एक छोटा-सा लकड़ी का गिरजा,
आमने "आल्टर'' के, बेंच था...
एक ही शायद 
भेद उठाये हुए एक "ईसा" की चोबी मूरत !
लोगों की शम'ओं से /पाँव कुछ झुलसे हुए,
पिघली हुई मोम में कुछ डूबे हुए,
जिस्म पर मेखें लगी थीं
एक कंधे पे थी, जोड़ जहाँ खुलने लगा था
एक निकली हुई पहलु से, जिसे भेद की टांग में ठोंक दिया था
एक कोहनी के ज़रा नीचे जहाँ टूट गयी थी लकड़ी..
गिर के शायद... या सफाई करते.

२.
कभी आना पहाड़ों पर

कभी आना पहाड़ों पर...
धुली बर्फों में नम्दे डालकर आसन बिछाये हैं 
पहाड़ों की ढलानों पर बहुत से जंगलों के खेमे खींचे हैं 
तनाबें बाँध रखी हैं कई देवदार के मजबूत पेड़ों से
पलाश और गुलमोहर के, हाथों से काढ़े हुए तकिये लगाये हैं 
तुम्हारे रास्तो पर छाँव छिडकी है
में बादल धुनता रहता हूँ,
की गहरी वादियाँ खाली नहीं होतीं
यह चिलमन बारिशों की भी उठा दूंगा, जब आओगे.
मुझे तुमने ज़मीं दी थी 
तुम्हारे रहने के काबिल यहाँ एक घर बना दूँ मैं
कभी फुर्सत मिले जब बाकी कामों से, तो आ जाना 
किसी "वीक एंड"  पर आ जाओ 

३.
दोनों एक सड़क के आर-पार चल रहे हैं हम

दोनों एक सड़क के आर-पार चल रहे हैं हम
उस तरफ से उसने कुछ कहा जो मुझ तक आते-आते
रास्ते से शोर-ओ-गुल में खो गया..
मैंने कुछ इशारे से कहा मगर,
चलते-चलते दोनों की नज़र ना मिल सकी
उसे मुगालता है मैं उसी की जुस्तजू में हूँ 
मुझे यह शक है, वो कहीं
वो ना हो, जो मुझ से छुपता फिरता है !
सर्दी थी और कोहरा था,
सर्दी थी और कोहरा था और सुबह
की बस आधी आँख खुली थी, आधी नींद में थी !
शिमला से जब नीचे आते/एक पहाड़ी के कोने में 
बसते जितनी बस्ती थी इक /बटवे जितना मंदिर था
साथ लगी मस्जिद, वो भी लाकिट जितनी
नींद भरी दो बाहों जैसे मस्जिद के मीनार गले में मंदिर के,
दो मासूम खुदा सोये थे

source: http://bairang.blogspot.in/2010/10/blog-post.html

एनिमल फ़ार्म

जॉर्ज ऑरवेल द्वारा १९४४ में लिखा उपन्यास एनिमल फ़ार्म जब पूरा हो गया तो कोइ भी प्रकाशक इसे छापने को तैयार नहीं था.बाद में जब ये छपा तो अपने अद्भुत शिल्प के कारण इसने तहलका मचा दिया.२५ जून १९०३ को भारत में  जन्मे जार्ज ऑरवेल की शिक्षा इंग्लॅण्ड में हुई और नौकरी बर्मा पुलिस में की.वह सम्राज्यवादी नीतियों के खिलाफ थे,पुलिस की नौकरी छोड़ के मामूली नौकरियां करते रहे.इन्होने बी बी सी में भी नौकरी की.इनका  असली नाम "एरिक आर्थर ब्लयेर" था.
  एनिमल फ़ार्म एक फैंटेसी से बुनी गयी रोचक काल्पनिक कथा है.कहानी का शिल्प रोचक है.कहानी कहने वाला अज्ञात है.उसकी कहानी में कोई भूमिका नहीं है फिर भी हर बात सटीक करता है. ये उपन्यास १९१७ से १९४३ तक रूस में घटित घटनायों पर आधारित समझा जाता है.खेत साम्यवादी व्यवस्था का प्रतीक है.जानवरों के माध्यम से ये बताना चाहा है सत्ता और नेतृत्व पा लेने से किस प्रकार भ्रष्टाचार फैलता है.अपने ही लोगो को मारा जाता है.(जैसे स्टालिन ने अपनी तानाशाही बनाये रखने के लिए अपने ही लोगों कई लोगों की  हत्या करवा दी) बुद्धिमान जानवर झूठ और छल से सत्ता पर कब्ज़ा जमा लेते हैं.बुद्धि से कमजोर जानवरों को ठगा जाता है.धोखे से शक्ति हासिल करके हर नियम को ताक पर रखा जाता है.जानवरों पर जानवरों के राज की एक विचित्र कहानी ....

  मेजर(सफेद सूअर) सभी जानवरों की एक बैठक में बताता है कि वो जल्दी ही मरने वाला है पर मरने से पहले सबको वो ज्ञान देना चाहता है जो उसने जीवन में अर्जित किया है.वो बताता है कि इंग्लैंड में कोई भी जानवर स्वतंत्र नहीं है.वह गुलामी का जीवन जीते है.उन्हें उतना ही खाने को दिया जाता है जिससे बस साँस चलती रहे.इंसान बगैर उत्पादन किये उपभोग करता है.फिर भी जानवरों पे राज करता है.मेजर कहता है कि मानव जाती को उखाड़ फैंकने के लिए विद्रोह करना होगा.

तीन दिन बाद मेजर मर जाता है.मालिक जोन्स जब रात  नशे में सो जाता है तो स्नोबॉल, नेपोलियन विद्रोह की तैयारी करते हैं.बैठकें चलती रहीं और जानवरों की उम्मीद से कहीं जल्दी और आसानी से विद्रोह हो गया.एक दिन जब जानवरों को शाम तक खाना नहीं मिला तो उन्होंने अपने सींगों से भण्डार का दरवाजा तोड़ दिया.जिसे जो मिला खाने लगा.जोन्स के आदमी जानवरों को कोड़े मरने लगे तो भूखे जानवर उनपर टूट पड़े और उन्हें खदेड़ दिया.विद्रोह संपन्न हुआ .जोन्स को निकाल कर फ़ार्म पर जानवरों का अधिकार हो गया.रस्सियों,
चाबुक आदि चीजों को जला दिया गया.मुख्य गेट पर"मैनर फ़ार्म" की जगह "एनिमल फ़ार्म" लिख दिया गया.स्नोबॉल ने दीवार पर सात नियम लिख दिए-1. जो  दो पैरों पर चलता है वह दुश्मन है.2. जो चार पैरों पर चलता है या पंख है, दोस्त है.3. कोई जानवर कपड़े नहीं पहनेगा. 
4. कोई जानवर  बिस्तर में नहीं सोएगा.5. कोई जानवर शराब नहीं पिएगा. 
6. कोई जानवर किसी भी दूसरे जानवर को नहीं मरेगा.7. सभी जानवर बराबर  हैं.

गायों को दुहा गया और बाल्टियाँ भर कर ढूध रख कर जानवर स्नोबॉल की अगुवाई में फसल काटने चले गये.लौट कर आये तो ढूध गायब हो गया था.जानवर मेहनत कर रहे थे,पसीना बहा रहे थे पर अपनी सफलता से खुश थे.आशा से ज्यादा परिणाम मिल रहे थे.
प्रत्येक जानवर अपनी क्षमता के अनुसार काम करता था और भोजन का एक उचित हिस्सा पाता था.सूअर खुद काम  नहीं करते थे,बल्कि वह जानवरों को निर्देश देते थे और काम का निरिक्षण करते थे.नेतृत्व उनके पास आ गया था.

हर रविवार स्नोबॉल, और नेपोलियन बड़े खलिहान में सभी जानवरों की एक बैठक का नेतृत्व करते थे.अगले हफ्ते के काम की रूपरेखा तैयार की जाती थी.सूअर ही प्रस्ताव रखते थे,बाकी जानवर केवल मतदान ही करते थे.स्नोबॉल और नेपोलियन बहस में सक्रिय रहते पर दोनों में कम ही सहमति हो पाती थी.एक के प्रस्ताव का दूसरा जरूर विरोध करता.


जानवर साक्षर हो रहे थे.सूअर पढ़ने लिखने में पूरी तरह सक्षम हो गये थे.कुछ अल्पबुद्दि जानवर सात नियम सीख नहीं पाए थे,स्नोबॉल ने सात नियमों को एक सूत्र वाक्य में व्यक्त किया-"चार पैर अच्छा,दो पैर बुरा"
वक़्त बीतने के साथ सूअरों के खुद को पुरस्कार, नियंत्रण में वृद्धि और 
अपने लिए विशेषाधिकार बढ़ते ही जा रहे थे.दूध के गायब होने का रहस्य भी जल्दी ही खुल गया.ये रोज सूअरों की सानी में मिलाया जा रहा था.सेबों के पकने पर जानवरों की राय थी की इन्हें आपस में बराबर बाँट लिया जाये लेकिन ये आदेश आया की इन्हें सूअरों के साजो सामान वाले कमरे में पहुँचा दिया जाये.जानवर भुनभुनाये पर सूअर सहमत थे यहाँ तक कि स्नोबॉल और नेपोलियन भी.जानवरों को शांत करने का काम सूअर स्क्वीलर को सौंपा गया-

"साथियों!"वह चिल्लाया,"आपको लगता है कि हम लोग ये सब अपनी सुविधा या स्वार्थ के लिए कर रहें हैं?हम में से बहुत तो ढूध और सेब पसंद भी नहीं करते.मुझे खुद ये अच्छे नहीं लगते.इन चीज़ों को हासिल करने के पीछे हमारा मकसद अपने स्वास्थ्य की रक्षा करना है.दूध और सेब(ये विज्ञान द्वारा प्रमाणित है साथियों )में ऐसे तत्व मौजूद हैं जो सूअरों के लिए लाभदायक हैं.हम सूअर दिमाग़ी कार्यकर्ता हैं.इस फ़ार्म का संगठन और प्रबंधन हमारे ऊपर निर्भर है.हम लोग दिन-रात आपके कल्याण के लिए कार्य कर रहें हैं.हम लोगों का ढूध और सेब का सेवन करना आप लोगों के हित में हैं.क्या आप जानते हैं-अगर हम सूअर अपना कर्तव्य निभाने में विफल रहे,तो क्या होगा?जोन्स वापिस आ जायेगा." 


जानवर कभी नहीं चाहते थे मिस्टर जोन्स वापिस लौटे इसलिए वे कुछ कहने की स्थिति में नहीं रह गये.नेपोलियन भी नौ नवजात puppies को एक मचान में रख के शिक्षित कर रहा था.
खेती में सुधार के लिए योजनायें बनाई जाने लगी.स्नोबॉल ने पवन चक्की बनाने की घोषणा की नेपोलियन पवन चक्की के खिलाफ था.पवन चक्की को ले कर जानवर बराबर-बराबर बँटे हुए थे.स्नोबॉल ने अपने भाषण से जानवरों को प्रभावित किया एनिमल फ़ार्म की सुखद तस्वीर पेश की.सिर्फ पवन चक्की ही नहीं बिजली से चलने वाली बहुत सी चीजों की बात की.स्नोबॉल के भाषण खत्म होते-होते कोई शंका नहीं रह गयी थी 
कि मतदान किसके पक्ष में होगा लेकिन तभी  नेपोलियन के नौ भयंकर प्रशिक्षित कुत्तों ने खेत से स्नोबॉल को खदेड़ दिया उसके बाद वह कभी नज़र नहीं आया.स्नोबॉल की बेदखली के तीसरे रविवार जानवर नेपोलियन की ये घोषणा सुन कर दंग रह गये कि पवन चक्की बनायी जाएगी.

साल-भर जानवर खटते रहे.पर वह खुश थे 
कि अपने लिए काम कर रहें हैं दुष्ट और कामचोर इंसानों के लिए नहीं.पवन चक्की बनाने के कम के कारन अन्य जरूरी काम प्रभावित होने लगे थे.नेपोलियन ने पड़ोसी फ़ार्म से व्यापार की घोषणा की.सूखी घास,थोड़ा गेहूं और ज्यादा पैसे के लिए मुर्गियों के अंडे बेचने की बात भी कही.विलिंग्डन के मिस्टर विम्पर ने बिचोला बनना स्वीकार कर लिया.

सूअरों ने मिस्टर जोन्स के फ़ार्म हॉउस को अपना घर बना लिया.वह बिस्तर पर सोने लगे.कलेवर से चौथा नियम नहीं पढ़ा गया तो उसने मुरियल को पढने के लिए कहा कि मुझे बताओ कि क्या चौथे नियम में बिस्तर पे सोने को मना नहीं किया तो मुरियल ने पढ़ा-कोई जानवर बिस्तर में....चादर के ऊपर नहीं सोयेगा.कुत्तों ने उन्हें बताया कि बिस्तर पे सोने के खिलाफ नियम नहीं था बिस्तर का अर्थ है सोने की जगह,देखा जाये तो तिनको का ढेर भी बिस्तर ही है. ये नियम चादर पे सोने से मना करता है जो इंसान ने बनाई है.

एक रात, तेज हवाओं ने पवन चक्की को नष्ट कर दिया. नेपोलियन स्नोबॉल को दोष देता है.
 
ये बात साफ हो चुकी थी कि बाहर से अनाज की व्यवस्था करनी होगी.नेपोलियन अब शायद ही कभी बाहर आता था.वह फ़ार्म हॉउस में रहता था जिसके बाहर एक कुत्ता हमेशा तैनात रहता था.उसका बाहर निकलना भी एक समारोह की तरह होता.उसे छह कुत्ते घेरे रहते.वह अपना आदेश किसी और सूअर खासकर स्कवीलर के जरिये जारी करता.नेपोलियन ने विम्पर के माध्यम से एक समझौता किया.जिसके अनुसार हर हफ्ते फ़ार्म से ४०० अण्डों की आपूर्ति की जायेगी.


चार दिन बाद, नेपोलियन एक विधानसभा बुलायी जिसमें उसने कई कपट स्वीकार करने के लिए पशुओं को इकट्ठा किया.चार सूअरों को कुत्तों ने स्नोबॉल के संपर्क में रहने के दोष में मार दिया.तीन मुर्गियों को अंडें न देने की बगावत में मार दिया.मृत्युदंड का सिलसिला देर तक चला.कुछ जानवरों को छठा नियम याद आया.मुरियल ने नियम पढ़ा-एक जानवर दूसरे जानवर को अकारण नहीं मारेगा.यह "अकारण"शब्द जानवरों की स्मृति से निकल गया था.अब उन्हें अहसास हुआ कि नियम टूटा नहीं है.

नेपोलियन की  किसानों के साथ बातचीत जारी रही और अंत में मिस्टर पिल्क्ग्टन को लकड़ी बेचने का फैसला किया.गर्मी खत्म होने तक पवन चक्की भी तैयार होने को थी.पवन चक्की की ख़ुशी में जानवर अपनी सारी थकान भूल गये पर वह ये सुन कर हैरान रह गये कि नेपोलियन ने लकड़ी 
पिल्क्ग्टन को नही  फ्रेडरिक को बेच दी.नेपोलियन ने पिल्क्ग्टन से उपरी दोस्ती के साथ फ्रेडरिक से भी गुप्त समझोता कर रखा था पर फ्रेडरिक ने लकड़ी के बदले में नकली नकदी नेपोलियन को दी .नेपोलियन ने तत्काल बैठक बुलाई और फ्रेडरिक को मृत्युदंड देने की घोषणा की.अगली सुबह फ्रेडरिक ने लोगो साथ मिल के फ़ार्म पे हमला कर दिया.युद्ध में जानवर जीत तो गये पर बुरी तरह थके और घायल.पवनचक्की भी टूट चुकी थी.जानवरों की मेहनत की आखरी निशानी अब नहीं बची थी.

युद्ध के बाद, सूअरों को फार्म हाउस के तहखाने में व्हिस्की की पेटी मिली.उस रात फ़ार्म हॉउस से जोर-जोर से गाने की आवाज़ आयी.सुबह कोई भी सूअर बाहर नहीं निकला.दूसरे दिन नेपोलियन ने विम्पर को शराब बनाने कि विधि की पुस्तकें खरीद लाने को कहा.कुछ दिनों बाद मुरियल ने महसूस किया कि जानवरों ने एक और नियम सही से याद नहीं रखा.उनके अनुसार पांचवा नियम है-कोई भी जानवर शराब नहीं पिएगा.पर इसमें एक और शब्द वो भूल चुके है.असल में नियम है-कोई भी जानवर ज्यादा शराब नहीं पिएगा.

अप्रैल में,  फ़ार्म हॉउस  एक गणतंत्र घोषित किया गया  और 
नेपोलियन राष्ट्रपति के रूप में सर्वसम्मति से चुना गया.एक दिन बॉक्सर पवन चक्की का काम करते हुए गिर गया.नेपोलियन ने उसे विलिंग्डन में पशुचिकित्सा करने के लिए भेजने का वादा किया. कुछ दिनों बाद, एक घोड़े की हत्या करनेवाला अपनी वैन में बॉक्सर को ले जाने लगता है.जानवर वैन के पीछे दौड़ते हैं.कलेवर बॉक्सर को बाहर निकलने के लिए कहती  है.वैन तेज़ हो जाती है पता नहीं बॉक्सर कलेवर की बात सुन भी पाया था कि नहीं.तीन दिन बाद ये घोषणा कि गयी कि बॉक्सर का सर्वोत्तम संभव देखभाल करने के बावजूद अस्पताल में निधन हो गया.
सूअरों के पास अचानक से बहुत सा पैसा कहीं से आ गया था.

वर्षों बीत गये.कुछ ही जानवर ऐसे बचे थे जिन्हें विद्रोह के पुराने दिन याद थे.मुरियल की मौत हो चुकी थी,स्नोबॉल भुला दिया गया था.मिस्टर जोन्स भी मर चुके थे.बॉक्सर को कुछ ही जानवर याद करते हैं.कलेवर बूढी हो गयी है.फ्राम में ढेर से जानवर हैं.फ़ार्म पहले से अधिक व्यवस्थित हो गया है.पवन चक्की आखिरकार बन चुकी है.नयी बिल्डिंगे बन गयी हैं.फ़ार्म समृद्ध हो गया है पर जानवरों के जीवन में कोई तब्दीली नहीं आई सिवाय कुत्तों और सूअरों को छोड़ कर.सूअर अपने पिछले पैरों पर चलने लगे थे.भेड़ों ने गाना शुरू किया-चार पैर अच्छा,दो पैर ज्यादा अच्छा.विरोध करने की गुंजाईश खत्म हो चुकी थी.बेंजामिन ने दीवार पर अब सिर्फ एक ही लिखा हुआ नियम पढ़ के सुनाया-सारे जानवर बराबर हैं पर कुछ जानवर औरो से ज्यादा बराबर हैं.
सूअर काम कराने के लिए चाबुक ले आये.
सूअरों द्वारा स्वयं को अधिक से अधिक विशेषाधिकार देने का पुराना पैटर्न जारी रहा. वे एक टेलीफोन खरीदने वाले थे और पत्रिकाओं की सदस्यता ले रहे थे.वे जोन्स के कपड़े भी पहनने लगे थे.एक रात, नेपोलियन किसानों के लिए एक समझौता भोज आयोजित करता है और ये घोषणा करता है कि फ़ार्म हॉउस को  फिर से"मैनर फार्म" कहा जाएगा .बाहर खड़े जानवर सब देख रहे थे.पहले सुअरों को देखा,फिर इंसानों को,फिर सुअरों को देखा और उसके बाद इंसानों को.

....सूअर और इंसानों में अब कोई फरक नहीं रह गया था....

Source: http://bairang.blogspot.in/2011/03/blog-post.html

सुधा मूर्ति का एक संस्मरण


“आप वहां जाकर ईकोनॉमी क्लास की लाइन में खड़े होइए. यह लाइन बिजनेस क्लास ट्रेवलर्स की है,” हाई-हील की सैंडल पहनी एक युवती ने सुधा मूर्ति से लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट पर कहा.
सुधा मूर्ति के बारे में आपको पता ही होगा. वे इन्फोसिस फाउंडेशन की चेयरमेन और प्रसिद्ध लेखिका हैं.इस घटना का वृत्तांत उन्होंने अपनी पुस्तक “Three Thousand Stitches” में किया है.
प्रस्तुत है उनकी पुस्तक से यह अंशः
पिछले साल मैं लंदन के हीथ्रो इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर अपनी फ्लाइट में चढ़ने का इंतजार कर रही थी. आमतौर से मैं विदेश यात्रा में साड़ी पहनती हूं लेकिन सफर के दौरान मैं सलवार-कुर्ता पहनना पसंद करती हूं. तो उस दिन भी एक सीनियर सिटीज़न सी दिखती मैं टिपिकल भारतीय परिधान सलवार-कुर्ता में टर्मिनल के गेट पर खड़ी थी.
बोर्डिंग शुरु नहीं हुई थी इसलिए मैं कहीं बैठकर आसपास का परिदृश्य देख रही थी. यह फ्लाइट बैंगलोर जा रही थी इसलिए आसपास बहुत से लोग कन्नड़ में बात कर रहे थे. मेरी उम्र के बहुत से बुजुर्ग लोग वहां थे जो शायद अमेरिका या ब्रिटेन में अपने बच्चों के नया घर खरीदने या बच्चों का जन्म होने से जुड़ी सहायता करने के बाद भारत लौट रहे थे. कुछ बिजनेस एक्ज़ीक्यूटिव भी थे जो भारत में हो रही प्रगति के बारे में बात कर रहे थे. टीनेजर्स अपने फैंसी गेजेट्स के साथ व्यस्त थे और छोटे बच्चे या तो यहां-वहां भाग-दौड़ कर रहे थे या रो रहे थे.
कुछ मिनटों के बाद बोर्डिंग की घोषणा हुई और मैं अपनी लाइन में खड़ी हो गई. मेरे सामने एक बहुत स्टाइलिश महिला खड़ी थी जिसने सिल्क का इंडो-वेस्टर्न आउटफ़िट पहना था, हाथ में गुच्ची का बैग था और हाई हील्स. उसके बालों का एक-एक रेशा बिल्कुल सधा हुआ था और उसके साथ एक मित्र भी खड़ी थी जिसने सिल्क की महंगी साड़ी पहनी थी, मोतियों का नेकलेस, मैचिंग इयररिंग और हीरे जड़े कंगन हाथों में थे.
मैंने पास लगी वेंडिंग मशीन को देखा और सोचा कि मुझे लाइन से निकलकर पानी ले लेना चाहिए.
अचानक से ही मेरे सामने वाली महिला ने कुछ किनारे होकर मुझे इस तरह से देखा जैसे उसे मुझपर तरस आ रहा हो. अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए उसने मुझसे पूछा, ‘क्या मैं आपका बोर्डिंग पास देख सकती हूं?’ मैं अपना बोर्डिंग पास दिखाने ही वाली थी लेकिन मुझे लगा कि वह एयरलाइन की इंप्लॉई नहीं है, इसलिए मैंने पूछा, ‘क्यों?’
‘वेल… यह लाइन सिर्फ बिजनेस क्लास ट्रैवलर्स के लिए है,’ उसने बहुत रौब से कहा और उंगली के इशारे से इकोनॉमी क्लास की लाइन दिखाते हुए बोली, ‘आप वहां उस लाइन में जाकर खड़े होइए’.
मैं उसे बताने वाली ही थी कि मेरे पास भी बिजनेस क्लास का टिकट है लेकिन कुछ सोचकर मैं रूक गई. मैं यह जानना चाहती थी कि उसे यह क्यों लगा कि मैं बिजनेस क्लास में सफर करने के लायक नहीं थी. मैंने उससे पूछा, ‘मुझे इस लाइन में क्यों नहीं लगना चाहिए?’
उसने गहरी सांस भरते हुए कहा, ‘देखिए… ईकोनॉमी क्लास और बिजनेस क्लास की टिकटों की कीमत में बहुत अंतर होता है. बिजनेस क्लास की टिकटें लगभग दो-तीन गुना महंगी होती हैं… ’
‘सही कहा,’ दूसरी महिला ने कहा, ‘बिजनेस क्लास की टिकटों के साथ ट्रेवलर को कुछ खास सहूलियतें या प्रिविलेज मिलती हैं.’
‘अच्छा?’ मैंने मन-ही-मन शरारती इरादे से कहा जैसे मैं कुछ जानती ही नहीं. ‘आप किस तरह की प्रिविलेज की बात कर रही हैं?’
उसे कुछ चिढ़ सी आने लगी. ‘हम अपने साथ दो बैग लेकर चल सकते हैं जबकि आपको एक बैग की ही परमीशन है. हम फ्लाइट में कम भीड़ वाली लाइन और आगे के दरवाजे से एंट्री कर सकते हैं. हमारी सीट्स आगे और बड़ी होती हैं और हमें शानदार फ़ूड सर्व किया जाता है. हम अपनी सीटों को बहुत पीछे झुकाकर लेट भी सकते हैं. हमारे सामने एक टीवी स्क्रीन होती है और थोड़े से बिजनेस क्लास वालों के लिए चार वॉशरूम्स होते हैं.’
उसकी मित्र ने जोड़ते हुए कहा, ‘हमारे लगेज के लिए प्रॉयोरिटी चैक-इन फैसिलिटी मिलती है और वे फ्लाइट लैंट होने पर सबसे पहले बाहन निकाले जाते हैं. हमें सेम फ्लाइट से ट्रेवल करते रहने पर ज्यादा पॉइंट भी मिलते हैं.’
‘अब जबकि आपको ईकोनॉमी क्लास और बिजनेस क्लास का अंतर पता चल गया है तो आप वहां जाकर अपनी लाइन में लगिए’ उसने बहुत आग्रहपूर्वक कहा.
‘लेकिन मुझे वहां नहीं जाना.’ मैं वहां से हिलने को तैयार नहीं थी.
वह महिला अपनी मित्र की ओर मुड़ी. ‘इन कैटल-क्लास (cattle class) लोगों के साथ बात करना बहुत मुश्किल है. अब कोई स्टाफ़ वाला ही आकर इन्हें इनकी जगह बताएगा. इन्हें हमारी बातें समझ में नहीं आ रहीं.’
मैं नाराज़ नहीं थी. कैटल-क्लास शब्द से जुड़ी अतीत की एक घटना मुझे याद आ गई.
एक दिन मैं बैंगलोर में एक हाइ-सोसायटी डिनर पार्टी में गई थी. बहुत से लोकल सेलेब्रिटी और सोशलाइट्स भी वहां मौजूद थे. मैं किसी गेस्ट से कन्नड़ में बातें कर रही थी तभी एक आदमी हमारे पास आया और बहुत धीरे से अंग्रेजी में बोला, ‘May I introduce myself ? I am… ’
यह साफ दिख रहा था कि उसे यह लग रहा था कि मुझे धाराप्रवाह अंग्रेजी समझने में दिक्कत होगी.
मैंने मुस्कुराते हुए अंग्रेजी में कहा, ‘आप मुझसे अंग्रेजी में बात कर सकते हैं.’
‘ओह,’ उसने थोड़ी हैरत से कहा, ‘माफ़ कीजिए. मुझे लगा कि आपको अंग्रेजी में बात करने में असुविधा होगी क्योंकि मैंने आपको कन्नड़ में बातें करते सुना.’
‘अपनी मातृभाषा में बात करने में शर्म कैसी? यह तो मेरा अधिकार और प्रिविलेज है. मैं अंग्रेजी में तभी बात करती हूं जब किसी को कन्नड़ समझ नहीं आती हो.’
एयरपोर्ट पर मेरी लाइन आगे बढ़ने लगी और मैं अपने स्मृतिलोक से बाहर आ गई. मेरे सामनेवाली वे दोनों महिलाएं आपस में मंद स्वर में बातें कर रही थीं, ‘अब वे इसे दूसरी लाइन में भेज देंगे. कुछ लोग समझने को तैयार ही नहीं होते. हमने तो अपनी तरफ से पूरी कोशिश करके देख ली.’
जब अटेंडेंट को मेरा बोर्डिंग पास दिखाने का वक्त तो मैंने देखा कि वे दोनों महिलाएं रुककर यह देख रही थीं कि मेरे साथ क्या होगा. अटेंडेंट ने मेरा बोर्डिंग पास लिया और प्रफुल्लित होते हुए कहा, ‘आपका स्वागत है, मैडम! हम पिछले हफ्ते भी मिले थे न?’
‘हां,’ मैंने कहा.
अटेंडेंट मुस्कुराई और दूसरे यात्री को अटेंड करने लगी.
मैं कोई प्रतिक्रिया नहीं करने का विचार करके उन दोनों महिलाओं के करीब से गुजरते हुए आगे बढ़ गई थी लेकिन मेरा मन बदल गया और मैं पीछे पलटी.
‘प्लीज़ मुझे बताइए –  आपको यह क्यों लगा कि मैं बिजनेस क्लास का टिकट अफ़ोर्ड नहीं कर सकती? यदि वाकई ऐसा ही होता तो भी आपका यह अधिकार नहीं बनता कि आप मुझे यह बताएं कि मेरा स्थान कहां होना चाहिए? क्या मैंने आपसे कुछ पूछा था?’
वे दोनों स्तब्ध होकर मुझे देखती रहीं.
‘आपने मुझे कैटल-क्लास का व्यक्ति कहा. क्लास इससे नहीं बनती कि आपके पास कितनी संपत्ति है,’ मैंने कहा. मेरे भीतर इतना कुछ चल रहा था कि मैं खुद को कुछ कहने से रोक नहीं पा रही थी.
‘इस दुनिया में पैसा बहुत से गलत तरीकों से कमाया जा सकता है. हो सकता है कि आपके पास बहुत सी सुख-सुविधाएं जुटाने के लिए पर्याप्त पैसा हो लेकिन आपका पैसा आपको यह हक नहीं देता कि आप दूसरों की हैसियत या उनकी क्रयशक्ति का निर्णय करती फिरें. मदर टेरेसा बहुत क्लासी महिला थीं. भारतीय मूल की गणितज्ञ मंजुल भार्गव भी बहुत क्लासी महिला हैं. यह विचार बहुत ही बेबुनियाद है कि बहुत सा पैसा आपको किसी क्लास तक पहुंच दे सकता है.’
मैं किसी उत्तर का इंतज़ार किए बिना आगे बढ़ गई.
“बहुत सारे धन का होना आपकी क्लास का परिचायक नहीं है.”
‘अपनी मातृभाषा का उपयोग करना शर्मिंदगी का सबब नहीं है. यह मेरा अधिकार है. मैं अंग्रेजी में तभी बात करती हूं जब किसी को मेरी भाषा नहीं आती.’

Sunday, January 14, 2018

गांधी का यह अद्भुत भाषण बताता है कि टॉल्स्टॉय के प्रति उनकी श्रद्धा कितनी थी और क्यों थी

'मैं इतना तो कह ही सकता हूं कि तीन पुरुषों ने मेरे जीवन पर बहुत अधिक प्रभाव डाला है. उनमें पहला स्थान मैं राजचन्द्र कवि को देता हूं, दूसरा टॉल्सटॉय को और तीसरा रस्किन को. किन्तु यदि टॉल्सटॉय और रस्किन के बीच चुनाव की बात हो, और दोनों के जीवन के विषय में मैं और अधिक बातें जान लूं, तो नहीं जानता कि उस हालत में प्रथम स्थान किसे दूंगा.
टॉल्सटॉय के जीवन में मेरे लेखे दो बातें महत्वपूर्ण थीं. वे जैसा कहते थे वैसा ही करते थे. उनकी सादगी अद्भुत थी, बाह्य सादगी तो उनमें थी ही. वे अमीर वर्ग के व्यक्ति थे, इस जगत के सभी भोग उन्होंने भोगे थे. धन-दौलत के विषय में मनुष्य जितने की इच्छा रख सकता है, वह सब उन्हें मिला था. फिर भी उन्होंने भरी जवानी में अपना ध्येय बदल डाला. दुनिया के विविध रंग देखने और उनके स्वाद चखने पर भी, जब उन्हें प्रतीत हुआ कि इसमें कुछ नहीं है तो उनसे उन्होंने मुंह मोड़ लिया, और अंत तक अपने विचारों पर डटे रहे. इसी से मैंने एक जगह लिखा है कि टॉल्स्टॉय इस युग की सत्य की मूर्ति थे. उन्होंने सत्य को जैसा माना तद्नुसार चलने का उत्कट प्रयत्न किया; सत्य को छिपाने या कमजोर करने का प्रयत्न नहीं किया. लोगों को दुःख होगा या अच्छा लगेगा, शक्तिशाली सम्राट को पसन्द आएगा या नहीं, इसका विचार किए बिना ही उन्हें जो वस्तु जैसी दिखाई दी, उन्होंने कहा वैसा ही.
टॉल्सटॉय अपने युग के अहिंसा के बड़े भारी समर्थक थे. जहां तक मैं जानता हूं, अहिंसा के विषय में पश्चिम के लिए जितना टॉल्स्टॉय ने लिखा है उतना मार्मिक साहित्य दूसरे किसी ने नहीं लिखा. उससे भी आगे जाकर कहता हूं कि अहिंसा का जितना सूक्ष्म दर्शन और उसका पालन करने का जितना प्रयत्न टॉल्स्टॉय ने किया था उतना प्रयत्न करनेवाला आज हिन्दुस्तान में कोई नहीं है और न मैं ऐसी किसी आदमी को जानता हूं.यह स्थिति मेरे लिए दुःखदायक है; यह मुझे नहीं भाती. हिन्दुस्तान कर्मभूमि है. हिन्दुस्तान में ऋषि-मुनियों ने अहिंसा के क्षेत्र में बड़ी-बड़ी खोजें की हैं. परंतु पूर्वजों की उपार्जित पूंजी पर हमारा निर्वाह नहीं हो सकता. उसमें यदि वृद्धि न की जाए तो वह समाप्त हो जाती है.
वेदादि साहित्य या जैन साहित्य में से हम चाहें जितनी बड़ी-बड़ी बातें करते रहें या सिद्धांतों के विषय में चाहे जितने प्रमाण देकर दुनिया को आश्चर्यचकित करते रहें, फिर भी दुनिया हमें सच्चा नहीं मान सकती. इसलिए रानडे (समाज सुधारक और न्यायविद महादेव गोविंद रानडे ) ने हमारा धर्म यह बताया है कि हम अपनी इस पूंजी में वृद्धि करते जाएं. अन्य धर्मों के विचारकों ने जो लिखा हो, उससे उसकी तुलना करें, और ऐसा करते हुए यदि कोई नई चीज मिल जाए या उसपर नया प्रकाश पड़ता हो तो हम उसकी उपेक्षा न करें. किन्तु हमने ऐसा नहीं किया.हमारे धर्माध्यक्षों ने एक पक्ष का ही विचार किया है. उनके अध्ययन में, कहने और करने में समानता भी नहीं है.
जन-साधारण को यह अच्छा लगेगा या नहीं, जिस समाज में वे स्वयं काम करते थे, उस समाज को भला लगेगा या नहीं, इस बात का विचार न करते हुए टॉल्स्टॉय की तरह खरी-खरी सुना देनेवाले हमारे यहां नहीं मिलते. हमारे इस अहिंसा-प्रधान देश की ऐसी दयनीय दशा है. हमारी अहिंसा निंदा के ही योग्य है. खटमल, मच्छर, पिस्सू, पक्षी और पशुओं की किसी न किसी तरह रक्षा करने में ही मानो हमारी अहिंसा की इति हो जाती है. यदि वे प्राणी कष्ट में तड़पते हों तो भी हमें उसकी चिन्ता नहीं होती. परंतु दुःखी प्राणी को यदि कोई प्राणमुक्त करना चाहे अथवा हमें उसमें शरीक होना पड़े तो हम उसे घोर पाप मानते हैं. मैं लिख चुका हूं कि यह अहिंसा नहीं है.
टॉल्स्टॉय का स्मरण कराते हुए मैं फिर कहता हूं कि अहिंसा का यह अर्थ नहीं है. अहिंसा के मानी हैं प्रेम का समुद्र; अहिंसा के मानी हैं वैरभाव का सर्वथा त्याग. अहिंसा में दीनता, भीरुता नहीं होती, डर-डरकर भागना भी नहीं होता. अहिंसा में तो दृढ़ता, वीरता, अडिगता होनी चाहिए.यह अहिंसा हिन्दुस्तान के समाज में दिखाई नहीं देती. उनके लिए टॉल्सटॉय का जीवन प्रेरक है. उन्होंने जिस चीज पर विश्वास किया. उसका पालन करने का जबरदस्त प्रयत्न किया, और उससे कभी पीछे नहीं हटे.
इस जगत में ऐसा पुरुष कौन है जो जीते जी अपने सिद्धांतों पर पूरी तरह अमल कर सका हो? मेरी मान्यता है कि देहधारी के लिए संपूर्ण अहिंसा का पालन असंभव है. जब तक शरीर है तब तक कुछ-न-कुछ अहंभाव तो रहता ही है. इसलिए शरीर के साथ हिंसा भी रहती ही है. टॉल्स्टॉय ने स्वयं कहा है कि जो अपने को आदर्श तक पहुंचा हुआ समझता है उसे नष्टप्राय ही समझना चाहिए. बस यहीं से उसकी अधोगति शुरू हो जाती है. ज्यों-ज्यों हम उस आदर्श के नजदीक पहुंचते हैं, आदर्श दूर भागता जाता है. जैसे-जैसे हम उसकी खोज में अग्रसर होते हैं यह मालूम होता है कि अभी तो एक मंजिल और बाकी है. कोई भी एक छलांग में कई मंजिलें तय नहीं कर सकता. ऐसा मानने में न हीनता है, न निराशा; नम्रता अवश्य है. इसी से हमारे ऋषियों ने कहा है कि मोक्ष तो शून्यता है.
जिस क्षण इस बात को टॉल्स्टॉय ने साफ देख लिया, उसे अपने दिमाग में बैठा लिया और उसकी ओर दो डग आगे बढ़े, उसी वक्त उन्हें वह हरी छड़ी मिल गई. (गांधीजी से पूर्व इस सभा में किसी वक्ता ने कहा था कि टॉल्स्टॉय के भाई ने उन्हें अनेक सद्गुणों वाली हरी छड़ी खोजने को कहा था जिसे वे आजीवन खोजते ही रहे) उस छड़ी का वह वर्णन नहीं कर सकते थे. सिर्फ इतना ही कह सकते थे कि वह उन्हें मिली. फिर भी अगर उन्होंने सचमुच यह कहा होता कि मिल गई तो उनका जीवन वहीं समाप्त हो जाता.
टॉल्स्टॉय के जीवन में जो अंतर्विरोध दिखता है वह टॉल्स्टॉय का कलंक या कमजोरी नहीं, बल्कि देखनेवालों की त्रुटि है. एमर्सन ने कहा है कि अविरोध का भूत तो छोटे आदमियों को दबोचता है. अगर हम यह दिखलाना चाहें कि हमारे जीवन में कभी विरोध आनेवाला ही नहीं है तो यों समझिए कि हम मरे हुए ही हैं. अविरोध साधने में अगर कल के कार्य को याद रखकर उसके साथ आज के कार्य का मेल बिठाना पड़े, तो उस कृत्रिम मेल में असत्याचरण की संभावना हो सकती है. सीधा मार्ग यही है कि जिस वक्त जो सत्य प्रतीत हो उसपर आचरण करना चाहिए. यदि हमारी उत्तरोत्तर उन्नति हो रही हो और हमारे कार्यों में दूसरों को अंतर्विरोध दिखे तो इससे हमें क्या? सच तो यह है कि यह अंतर्विरोध नहीं उन्नति है. इसी तरह टॉल्स्टॉय के जीवन में जो अंतर्विरोध दिखता है वह अंतर्विरोध नहीं; हमारे मन का भ्रम है.
एक दूसरे अद्भुत विषय पर लिखकर और उसे अपने जीवन में उतारकर टॉल्स्टॉय ने उसकी ओर हमारा ध्यान दिलाया है. वह है ब्रेड लेबर (खुद शरीर श्रम करके अपना गुजारा करना). यह उनकी अपनी खोज नहीं थी. किसी दूसरे लेखक ने यह बात रूस के सर्वसंग्रह (रशियन मिसलेनी) में लिखी थी. इस लेखक को टॉल्स्टॉय ने जगत के सामने ला रखा और उसकी बात को भी प्रकाश में लाया. जगत में जो असमानता दिखाई पड़ती है, एक तरफ दौलत और दूसरी तरफ कंगाली नजर आती है, उसका कारण यह है कि हम अपने जीवन का कानून भूल गए हैं. यह कानून ब्रेड-लेबर है. गीता के तीसरे अध्याय के आधार पर मैं इसे यज्ञ कहता हूं. गीता ने कहा है कि जो बिना यज्ञ किए खाता है वह चोर है, पापी है. वही चीज टॉल्स्टॉय ने बतलाई है.
ब्रेड-लेबर का उल्टा-सीधा भावार्थ करके हमें उसे उड़ा नहीं देना चाहिए. उसका सीधा अर्थ यह है कि जो शारीरिक श्रम नहीं करता उसे खाने का अधिकार नहीं है.यदि हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने भोजन के लिए आवश्यक मेहनत कर डाले, तो जो गरीबी दुनिया में दिखती है वह दूर हो जाए. एक आलसी दो व्यक्तियों को भूखों मारता है, क्योंकि उसका काम दूसरे को करना पड़ता है. टॉल्स्टॉय ने कहा है कि लोग परोपकार करने निकलते हैं, उसके लिए पैसे खर्च करते हैं और उसके बदले में खिताब आदि लेते हैं; यदि वे ये सब न करके केवल इतना ही करें कि दूसरों के कंधों ने नीचे उतर जाएं तो यही काफी है. यह सच बात है. यह नम्रतापूर्ण वचन है. करने जाएं परोपकार और अपना ऐशो-आराम लेशमात्र भी न छोड़ें, तो यह वैसी ही हुआ जैसे अखा भगत ने कहा है- निहाई की चोरी, सुई का दान. क्या ऐसे में स्वर्ग से विमान आ सकता है?
ऐसा नहीं है कि टॉल्सटॉय ने जो कहा वह दूसरों ने न कहा हो, लेकिन उनकी भाषा में चमत्कार था और इसका कारण यह है कि उन्होंने जो कहा उसका पालन किया. गद्दी-तकियों पर बैठने वाले टॉल्स्टॉय मजदूरी में जुट गए. आठ घंटे खेती का या मजदूरी का दूसरा काम उन्होंने किया. शरीर-श्रम को अपनाने के बाद से उनका साहित्य और भी अधिक शोभित हुआ. उन्होंने अपनी पुस्तकों में से जिसे सर्वोत्तम कहा है वह है- कला क्या है?. यह किताब उन्होंने मजदूरी में से बचे समय में लिखी थी. मजदूरी से उनका शरीर क्षीण नहीं हुआ. उन्होंने स्वयं यह माना था कि इससे उनकी बुद्धि और अधिक तेजस्वी हुई और उनके ग्रंथों को पढ़नेवाले भी कह सकते हैं कि यह बात सच है.’
Source: Satyagrah website