कॉमन सेंस बड़ी रेयर (दुर्लभ) चीज है. शायद इसलिए तीन तलाक़ जैसे फैसले 2017 तक का इंतज़ार करते हैं और उसपर भी दो 'हाइली क्वालिफाइड' (अत्यधिक योग्य) जज अपने पूर्वाग्रह नहीं छोड़ पाते. सदियों से चली आ रही रीति-रिवाज-मान्यताएं-धारणाएं जरुरी नहीं सही ही हों. अगर होतीं तो हम दलित-उत्थान के लिए प्रयासरत नहीं होते, न ही सती प्रथा ख़त्म हुई होती.
ये नहीं है कि बस यही एक कुरीति थी. अभी कई बाकि हैं. हर धर्म में ही. क्यूंकि कुरीतियां मज़हब देख के नहीं बनतीं. वे एक निश्चित वक़्त का समाज देख के बनती हैं, जिन्हें बाद में आने वाली पीढ़ियां फॉलो (पालन) करती रहती हैं... और वे कुरीतियां सदियों तक चलती रहती हैं. फिर हटाओ तो विरोध इसलिए होता है कि वो सदियों से चली आ रही थी.
जरूरी नहीं हमारे बाप-दादाओं ने जो किया वो सही हो और जो हम आज करें वो कल के वक़्त के हिसाब से सही हो. क्यूंकि नैतिकता वक़्त और समाज दोनों के हिसाब से बदलती है... और इसलिए किसी भी रीति का बदलना भी जरूरी है... नहीं तो वो कुरीति में परिणित हो जाएगी.
विरोध इस निर्णय का नहीं बल्कि इस बात का होना चाहिए कि ये निर्णय इतनी देरी से क्यों आया.
इतिहास गवाह है जितना समाज और धर्म का बेड़ागर्क धर्मगुरुओं ने किया है उतना शायद ही किसी ने किया हो. भोपाल में होने वाली मौलवियों की मीटिंग कितना करेगी, देखने वाली बात होगी.
Vivek | 2017
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