भोपाल मध्यप्रदेश की राजधानी है. सीहोर उससे सटा हुआ जिला है. बात 1994 की है. पंचायती राज एक्ट पारित हुए अभी कुछ ही महीने हुए थे. मध्यप्रदेश देश का प्रथम प्रदेश था जिसने इससे लागू किया था. बसंती बाई सीहोर जिले के बरखेडी ग्राम की एक दलित महिला थी.
1994 में पंचायती राज में अनुसूचित जाति आरक्षण और 33% महिला आरक्षण (अब मध्यप्रदेश में यह 50% है.) के कारण वह बरखेडी की सरपंच चुनी गई. यह एक आंदोलित करने वाली घटना थी ऐसा पहली बार हुआ था. एक तो महिला ऊपर से अनुसूचित जाति से.
यह उच्च वर्ग के लोगो के लिए असहनीय सा प्रतीत हुआ. उच्च वर्ग के लोगों ने उसके खिलाफ पुलिस में झूठे मामले दर्ज़ किए. अभद्र व्यव्हार, गालियां एवं परिवार को धमकी देना आम बात थी. सरपंच के काम में विभिन्न रोड़े अटकाए गए. इन सबसे तंग आकर उसे कुछ महीनों में Resign करना पड़ा.
बात यहीं ख़त्म नहीं होती. बसंती को ग्रामीणों ने काम देने तक से इंकार कर दिया. यह अघोषित सामाजिक बहिष्कार के जैसा था. उसकी समाज के लोग भी उसकी सहायता करने के लिए साथ नहीं आए.
लेकिन यह कहानी का अंत नहीं है. कुछ महीनों बाद ग्रामीणों को महसूस हुआ कि बसंती बाई ने कई बेहतरीन काम किए हैं. शायद कुछ बदलाव जो 50 सालों में नहीं आए थे वे बसंती सरपंच रहते लाने में सफल हुई थी.
अगली बार सरपंच की सीट अनारक्षित होने पर भी बसंती बाई को पुन: चुना गया! यह एक Revolution के जैसा है जिसमे भले ही लिंग और जातिगत भेदभाव को लोगों ने प्रथमतः महत्त्व दिया लेकिन बाद में इन सबसे परे सिर्फ बसंती के काम और गाँव में हुए विकास को महत्त्व दिया गया.
यह छठवां इंडिया है जहाँ जातिगत भेदभाव धीरे-धीरे धुंधलाता जा रहा है.
इसमें हमारे संविधान और इसके क्रियान्वयन के लिए आई सरकारी नीतियों की अहम् भूमिका रही है. जिनमें शामिल है-
१. 1955 का नागरिक अधिकार सुरक्षा अधिनियम (1976 से पहले यह अश्पृश्यता (अपराध) अधिनियम नाम से जाना जाता था.)
२. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989
३. पंचायती राज व्यवस्था
४. विभिन प्रकार के आरक्षण
किन्तु इसका एक दूसरा पहलू भी है. जातिगत भेदभाव कम होने के साथ साथ जातिगत पहचान को बढ़ावा मिला है.
राजस्थान में हुआ गुर्जर आन्दोलन, गुजरात का पाटीदार आन्दोलन, हरियाणा का जाट आरक्षण आन्दोलन, आंध्रप्रदेश का कापू आन्दोलन और महाराष्ट्र का मराठा आन्दोलन इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं और इसकी और इशारा करते नज़र आते हैं.
जहाँ ये आन्दोलन जातिगत पहचान को बढ़ावा देते नज़र आते हैं वहीं जातिगत रूप से मिले आरक्षण के कारण इनकी मांगे आरक्षण प्राप्ति तक सिमट के रह जाती हैं.
इनमें सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली बात ये है कि इन सभी आंदोलनों में (गुर्जर आन्दोलन को छोड़कर, जिसके कुछ अपने कारण हैं.) किसी भी आन्दोलन की मांग खुद को SC/ST वर्ग में शामिल करने की नहीं है. सारे के सारे आन्दोलन सिर्फ अन्य पिछड़ा वर्ग में आरक्षण चाहते हैं.
कारण? अनुसूचित जाति वर्ग में मुख्यतः वे जातियां शामिल हैं जो 2000 वर्षों से शोषित हैं और अस्पृश्य (अछूत) मानी गई हैं. शायद अन्य जातियां इसीलिए इस केटेगरी में जाना नहीं चाहती क्यूंकि यह अपना उनकी सामाजिक-जातिगत स्थिति को कमतर करेगा और समाज में उनकी स्थिति कमजोर होगी. किन्तु अन्य पिछड़ा वर्ग में जाने में उनकी सामाजिक-जातिगत स्थिति पर भी कम असर करेगा और आरक्षण का फायदा भी देगा. शायद यह उनके लिए Win-Win Situation सा है.
सत्य यह है कि 2000 साल पुरानी समस्या मात्र सत्तर साल की स्वतंत्रता, संविधानिक अधिकार और अथक सरकारी प्रयास पूर्णतः ख़त्म नहीं कर सकते हैं. किन्तु यह भी सत्य है कि परिस्थितियां धुंधली करने में हमारा देश सफल हुआ है.
मुझे प्रत्यक्ष अनुभव तब प्राप्त हुआ जब आज भी सामंतवादी व्यवस्था के लिए जाने जाने वाले बुंदेलखंड के मेरे गाँव में 2016 और 2017 में दलित-महिला सरपंच को ध्वजारोहण और झंडा-वंदन से रोकने की हिमाकत किसी ने नहीं की.
शायद सार्वजानिक कार्यक्रमों जिनपर गाँव की उच्च जातियों (ब्राह्मण, बनिया, क्षत्रिय) का अधिपत्य होता था वहां एक दलित महिला का खड़े होकर ध्वजारोहण और झंडा-वंदन करना न सिर्फ धुंधलाती भेदभावपूर्ण सामाजिक-जातिगत व्यवस्था का परिचायक है बल्कि सबके सामने मस्तक उंच कर खाई महिला लिंगगत भेदभाव को भी धता बता रही थी.
यह छटवां विकसित होता इंडिया आजादी के आन्दोलन के समय के पेरियार, अम्बेडकर, गाँधी के विभिन्न प्रयासों के कारण निर्मित हुआ है. ये प्रयास एक- दूसरे से बिलकुल अलग भले ही थे किन्तु उद्देश्य में पूर्णत: एक ही नज़र आते हैं.
संविधान निर्माताओं और प्रथम प्रधानमंत्री नेहरु के 17 वर्षों के प्रयासों को भी इस नये उभरते भारत के लिए सराहा जाना चाहिए, जिन्होंने न सिर्फ सामान-अधिकारों युक्त संविधान बनाने बल्कि उसके क्रियान्वयन में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की.
1992 में आई नई पंचायती राज व्यवस्था का भी शुक्रिया अदा किया जा सकता है जिसने भेदभाव कम करने में धीमी किन्तु महत्वपूर्ण भूमिका अदा की.
अंत में एक प्रयास भारतीय रेल का भी है जहाँ मेरे सामने बैठे व्यक्ति ने बिना जाति, धर्म पूछे मुझसे बातें की और मुझे खुद का खाना Offer किया.
धुंधले होते जातिगत भेदभाव के साथ बढती हुई जातिगत पहचान वाला यह छठवां भारत विशुद्ध रूप से ‘बेहतरीन’ तो नहीं कहा जा सकता क्यूंकि समय के साथ यह भले ही भेदभाव कम करे किन्तु जातिगत पहचान स्वयं में नई समस्याएं उत्पन्न करेगा. (जिनके बारे में बात लेख के अन्य हिस्से में करेंगे.)
---
Reference:
NCERT Political science textbooks of class 11th and class 12th
Gurcharan Das's 'The Elephant Paradigm'
Wikipedia pages 'Panchayati Raj (India), 'Scheduled Caste and Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act, 1989'
MP govt portal mprural.mp.gov.in
'India Since Independence' by Bipin Chandra
No comments:
Post a Comment