Saturday, August 12, 2017

कविता

कविता तो शुरू की थी
लेकिन बुर्का पहनाना पड़ा
हाथ ढांकने पड़े
मस्जिद जाने से रोकना पड़ा.
एक बार जोर से
वन्दे मातरम् बुलवाना पड़ा
दाढ़ी बड़ी थी उसकी
इसलिए ट्रेन में सहम के बैठी
बेचारी कविता तो शुरू की थी
तुमतक अबतक पहुंच नहीं पाई.
कविता तो शुरू की थी
शोर में गुम गई
पढ़ाई के बोझ में मर गई
नब्बे प्रतिशत आए और फांसी चढ़ गई.
खेली भी,
दौड़ी भी,
नाची भी,
पेंटिंग भी की
फिर भी उदास रह गई.
कविता बेचारी बस्ते में दब गई.
कविता तो शुरू की थी
उसकी जाति पूछ ली
फ्रिज़ तलाश लिया
बीफ निकाल लिया.
दंगे हो गए,
बेचारी Lynching में मर गई.
कविता तो शुरू की थी.
कविता निकली बाहर
स्कर्ट की साइज नाप ली
घर आई तो वक़्त पूछ लिया
फब्तियों में बेचारी ज्यादा चल नहीं पाई
कविता तो शुरू की थी
बेचारी निकल नहीं पाई.
कविता तो शुरू की थी
लेकिन उर्दू के शब्द चुनचुन निकालने पड़े
टैगोर का ज़िक्र हटाना पड़ा
औरंगज़ेब को कलाम लिखा तब कुछ बात बनी.
कविता तो शुरू की थी
बेचारी तुमतक अबतक पहुंच नहीं पाई.

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